बंक बिसाय रंगलीले रसाक्ष छबीले कटाछ कलानि | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
बंक बिसाय रंगलीले रसाक्ष छबीले कटाछ कलानि मैं पण्डित।
सांवल – सेत निकाई-निकेत हियो हरि लेत हैं आरस-मण्डित ।
बेधि के प्रान करैं फिरि दान सुजान भरे खरे नेह अखण्डित ।
आनन्द – आसव – घूमरे नैन मनोज के चोजनि ओज प्रचण्डित ||
बंक बिसाय रंगलीले रसाक्ष
प्रसंग : यह पद्य रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ से लिया गया है। सरस – शृंगार भाव से भरे इस पद्य में कवि ने यौवन-सौंदर्य से भरी नायिका के काम-भाव से उन्मत्त नयनों की भाँति और शोभा का वर्णन किया है। मस्ती से नायिका के नयनों का ओज प्रचण्ड हो गया है, इस प्रकार के भावों को वर्णित करते हुए कवि कह रहा है
व्याख्या : नायिका सुजान के बांके तिरछे नयन बड़े-बड़े, रंगीले और रस भरे हैं। वे सुन्दर और बाँके नयन कटाक्ष करने की कला में पूरी तरह से प्रवीण हैं। अर्थात् उसके कटाक्ष बड़े ही मादक और प्रभावी हैं वे साँवली और उज्जवल सुन्दरता का प्यार नायिका की आँखें जब यौवन की मस्ती से भर जाती हैं, तो देखने वाले के हृदय की अपने प्रभाव से देखने वाले के प्राणों को बेच देती है, बाद में अपने अखण्ड प्रेम का प्रसाद प्रदान करती हैं।
काम- मस्ती में आनन्दरूपी मदिरा से युक्त होकर उन आँखों का ओज और प्रभाव और भी अधिक प्रचण्ड हो उठता है। अर्थात् मस्ती से भरी सुजान की आँखों को देखने का ताव ला पाना बड़ा ही कठिन है। क्योंकि तब उन आँखों का तेज अत्यधिक बढ़ गया होता है।
विशेष
1. मध्यकालीन आदि काव्यों के कामोद्दीप्त नयनों का स्वाभाविक एवं ओजस्वी ढंग से वर्णन किया गया है।
2. स्पष्ट है कि कवि शृंगार – भाव से अंग सौंदर्य वर्णन में निपुण है।
3. पद्य में वर्णन, स्वभावोक्ति, रूपक, उपमा और अनुप्रास आदि कई अलंकार रीतिकाल की परम्परा के अनुरूप ही प्रयुक्त हुए हैं।
4. रूप वर्णन की प्रधानता हैं। मध्यकालीन प्यार-व्यापार के ढोरों का भी पता चलता है।
5. भाषा प्रसाद गुण- प्रधान होते हुए भी ओजस्वी है।
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