बहके सब जिय की कहत | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | बिहारी सतसई - Rajasthan Result

बहके सब जिय की कहत | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | बिहारी सतसई

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बहके सब जिय की कहत, ठौर कुठौर लखैं न|

छिन औरें, छिन और से, ए छबि छाके नैन ||

बहके सब जिय की कहत

प्रसंग – कोई पूर्वानुरागिनी नायिका अपने प्रेम को नहीं छुपाने की विवशता का कारण अपनी सखी से कह रही है।………….

व्याख्या – हे सखि! नायक की शोभा रूपी मदिरा से छके हुए मेरे यह नेत्र बहक कर प्रत्येक क्षण और ही और प्रकार के हो जाते हैं अर्थात प्रतिक्षण बदलते रहते हैं और तब उचित और अनुचित अवसर का ध्यान किए बिना ही यह मेरे मन की बात को प्रकट कर देते हैं भाव यह है कि जिस प्रेम को मैं अपने मन में छुपाए रखना चाहती हूं उसे मेरे मतवाले नेत्र बरबस प्रकट कर देते हैं।

विशेष

1. नेत्रों के बहकने में वाच्यार्थ का तिरस्कार है। व्यंग्यार्थ है- अनुरक्त होकर । अतः शब्दगत अत्यंत तिरस्कृत वाच्य ध्वनि है।

2. नेत्रों के मानवीकरण के कारण भावो में अधिक शक्ति आ गई है। बहके सब जिय की बहके सब जिय की बहके सब जिय की

3. नेत्रो के माध्यम से मन की बात को प्रकट करने का वर्णन परम्परागत है।

4. प्रेम लक्षित हो जाने से लक्षिता नायिका है। a a a a a a a a a a a

5. छिन औरै छिन और से में भेदकातिशयोक्ति अलंकार है।

6. ठौर कुठौर मुहावरे का भावपूर्ण प्रयोग है। a a a a a a a a a a a 

7. छवि छाके में छेकानुप्रास अलंकार है। a a a a a a a a a a a a

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