बहुत बड़ा सवाल का प्रतिपाद्य | मोहन राकेश |
बहुत बड़ा सवाल का प्रतिपाद्य
बहुत बड़ा सवाल का प्रतिपाद्य
यहाँ हम मोहन राकेश की एक महत्वपूर्ण एकांकी ‘बहुत बड़ा सवाल’ के प्रतिपाद्य पर विचार करने जा रहे हैं। इस शीर्षक की उपयुक्तता और प्रासंगिकता पर विचार करते हुए हमने एकांकी के प्रतिपाद्य की ओर भी संकेत किया था।
इस प्रक्रिया में हमने देखा था कि शिक्षित निम्न मध्यवर्ग के सामने उपस्थित बड़े-बड़े सवाल लेखक के सामने उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना बड़ा सवाल उस वर्ग का स्वयं का चरित्र है। इस चरित्र का उद्घाटन ही एकांकी का मूल प्रतिपाद्य है, जिसे एकांकीकार ने शिक्षित निम्न मध्यवर्गीय पात्रों की वार्ता के माध्यम से सम्पन्न किया है।
इस एकांकी में मोहन राकेश ने ‘लो पेड वर्कर्स वेलफेयर सोसाइटी’ की एक मीटिंग के संदर्भ में रोज़गार शुदा शिक्षित निम्न मध्यवर्ग की एक विशेष मानसिकता को अपना विषय बनाया है। यह वर्ग कभी एकजुट होकर किसी बड़े और सामूहिक कार्य के लिए संघर्ष नहीं कर सकता।
परस्पर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना, एक-दूसरे की निंदा करना, दूसरों पर छींटाकशी करना ही जैसे उसका उद्देश्य बन गया है। सामाजिक और संगठन के कार्यक्रमों में भी एक-दूसरे की टांग खींचना, सार्थक कार्यों में बाधा उपस्थित करना, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और संकीर्ण विचारधारा को अधिक महत्व देना, अपने मन की गलाजत या क्षुद्रता को प्रदर्शित करना ही उसकी प्रकृति बन गयी है।
इस वर्ग-समुदाय से कुछ चुने हुए पात्रों के माध्यम से इस एकांकी में लेखक ने एक समूचे वर्ग के जीवन की कटु, विसंगत, कृत्रिम, पाखंडपूर्ण, क्षुद्र मनोवृत्ति का कलात्मक उद्घाटन किया है। यही इस रचना का प्रतिपाद्य है, जिसे रंगमंचीय कौशल के माध्यम से अत्यधिक प्रभावपूर्ण बनाकर दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है।
किसी रचना के प्रतिपाद्य पर विचार करते हुए हमारे सामने उसके समुचित मूल्यांकन का भी प्रश्न आता है। किसी रचना की प्रभावोत्पादकता मूल्यांकन के लिए कोई ऐसी कसौटी नहीं बन सकती, जो प्रतिपाद्य में व्यक्त लेखक की मूल्य-दृष्टि या जीवन-दृष्टि का औचित्य सिद्ध कर सके। इसलिए प्रतिपाद्य का मूल्यांकन करते हुए हमारे लिए यह भी देखना ज़रूरी हो जाता है।
उसके माध्यम से लेखक ने दर्शक और पाठक के सामने क्या संदेश प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से देखें तो ऐसा लगता है कि निम्न मध्यवर्ग की मानसिकता पर व्यंग्य करते हुए लेखक ने उसकी निरर्थकता के साथ ही संगठन की निरर्थकता को भी रेखांकित कर दिया है।
सामाजिक विकास के लिए समाज में परिवर्तन के लिए सामाजिक-वर्गीय संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। यह सही है कि मध्य वर्ग अपनी दो मुँही प्रवृत्ति और ढुलमुल नीति के कारण किसी भी प्रकार के संगठन के प्रति अपने दायित्व का समुचित निर्वाह कर सकने में प्रायः असमर्थ रहा है।
इस दृष्टि से एकांकी का प्रतिपाद्य एक वास्तविकता को सही ढंग से रेखांकित करने के कारण उचित माना जा सकता है, लेकिन अपने आग्रह-अनुरोध या संदेश में वह आशंका की गुंजाइश भी पैदा कर देता है। इससे दर्शक-पाठक के मध्य संगठन-विरोध की भावना को बल मिल सकता है। ‘लो पेड वर्कर्स वेलफेयर सोसाइटी’ जैसे संगठन की निरर्थकता और अराजकता इस ओर एक स्पष्ट संकेत है।
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