भक्तिकाव्य स्वरुप और विकास :– इस इकाई में आपको हिंदी भक्तिकाव्य के स्वरूप और विकास के संबंध में जानकारी दी जाएगी। बाद की इकाइयों में आप भक्ति काव्य धारा से जुड़े कुछ प्रतिनिधि कवियों के काव्य का अध्ययन भी करेंगे। भक्तिकाव्य स्वरुप भक्तिकाव्य स्वरुप
भक्ति काल हिंदी साहित्य के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल माना जाता है। इसी काल के दौरान कबीर, जायसी, सूर, मीरा, तुलसी, रहीम जैसे महान कवि हुए जिनकी रचनाओं ने लाखों नर-नारियों को प्रभावित और प्रेरित किया। इस युग के उक्त रचनाकारों की काव्य रचनाओं का अध्ययन करने से पहले यह जरूरी है कि आप इस युग की विशेषताओं को ठीक से समझें । भक्ति काव्य का लेखन क्यों आरंभ हुआ ? भक्ति क्या है? उस युग की परिस्थितियाँ क्या थीं? भक्तिकाव्य स्वरुप भक्तिकाव्य स्वरुप
भक्ति काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ कौन-कौन-सी हैं? इन प्रवृत्तियों की कौन सी प्रमुख विशेषताएँ हैं? भक्ति काव्य का विकास कैसे हुआ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर जानना आपके लिए जरूरी है। भक्ति काव्य के स्वरूप और विकास का पर्याप्त परिचय प्राप्त कर लेने से आपको इस खंड में सम्मिलित कवियों को समझने में मदद मिलेगी। भक्तिकाव्य स्वरुप भक्तिकाव्य स्वरुप
भक्ति काव्य पर विचार करें तो हम इस बात को आसानी से पहचान सकते हैं कि सामान्यतः सभी भक्त कवियों का काव्य भक्ति भावना से प्रेरित है। लेकिन इन कवियों के काव्य की अपनी अलग-अलग पहचान भी है। उदाहरण के लिए, कबीर और तुलसी या जायसी और सूर के काव्य में काफी भिन्नताएँ हैं। ये भिन्नताएँ कौन-कौन-सी हैं और इनका आधार क्या है, इन पर हम इस इकाई में विचार करेंगे।
इसी संदर्भ में भक्ति के भेदों और उनसे संबंधीत काव्य रूपों, निर्गुण भक्ति, सगुण भक्ति, कृष्ण भक्ति, राम भक्ति, सूफी मत, प्रबंध काव्य, मुक्तक काव्य आदि को लेकर कई प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होंगे। हम इन पर विचार-विमर्श करेंगे ताकि आगे की इकाइयों को समझने में सहायता मिले। भक्तिकाव्य स्वरुप भक्तिकाव्य स्वरुप
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भक्तिकाव्य स्वरुप की पूर्व परंपरा
धर्म के क्षेत्र में ईश्वर की प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं : ज्ञान, भक्ति और कर्म । ज्ञान का संबंध ईश्वर संबंधी तत्वचिंतन से है। जबकि भक्ति का संबंध ईश्वर के प्रति निष्ठा और प्रेम द्वारा उसकी प्राप्ति से है। कर्म का संबंध उन आचार-विचारों से है, जिनका पालन करके व्यक्ति अपने को ईश्वर की प्राप्ति के योग्य बनाता है। एक अन्य मार्ग योग है जिनमें कठोर साधना और तप पर बल दिया गया है। ।
विद्वानों ने भक्ति का उद्गम वेदों से माना है। वेदों में ऐसे बहुत से सूक्त और मंत्र हैं जिनमें कष्टों और दुखों से मुक्त करने की प्रार्थना ईश्वर से की गई है तथा यह कामना की गई है कि ईश्वर बल, ओज और सहनशक्ति प्रदान करें। ईश्वर या विभिन्न देवताओं के प्रति आराधक की इस तरह की प्रार्थनाओं में हम भक्ति का मूल तत्व पा सकते हैं। भक्ति के इस तत्व को हम उपनिषदों में भी पाते हैं, लेकिन इसका वास्तविक विकास ‘भगवद्गीता’ में मिलता है जो प्रख्यात महाकाव्य ‘महाभारत’ का एक अंग है। भक्तिकाव्य स्वरुप भक्तिकाव्य स्वरुप
‘भगवद्गीता’ में ईश्वर के प्रति गहरी निष्ठा को जीवन का लक्ष्य बताया गया है। गीता में ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं- कर्म, ज्ञान और भक्ति । गीता के अनुसार ये सभी मार्ग समान रूप से फलदायक हैं। भक्ति के क्षेत्र में भी गीता का आदर्श यही है कि जो ईश्वर को जिस रूप में भजता है, ईश्वर उसे उसी रूप में प्राप्त होते हैं। भक्ति के स्वरूप की विस्तृत चर्चा बाद में कई पुराण ग्रंथों में भी मिलती है जिनमें ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ का विशेष महत्व है।
दक्षिण भारत में भक्ति साहित्य
भक्ति साहित्य का उदय सबसे पहले दक्षिण में हुआ। दक्षिण में भक्ति का प्रभाव ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से दिखाई देने लगता है। इससे पूर्व वहाँ बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव था। किंतु बाद में वैष्णव और शैव धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा। इन दोनों के बढ़ते प्रभाव ने भक्ति के प्रसार में योग दिया। तमिल साहित्य में अडियारों तथा आलवारों की परंपराओं का संबंध भक्ति साहित्य से है। आलवार संतों की परंपरा ईसा से 100-200 वर्ष पूर्व से आरम्भ होकर बारहवीं शताब्दी तक दिखाई देती हैं।
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार,‘ये भक्त कवि अधिकतर निम्न वर्ग के व्यक्ति थे और उनमें से अधिकाश अशिक्षित भी थे, किंतु इन्होंने ही भक्ति को सर्वप्रथम सामान्य जन-जीवन के भी स्तर तक ला दिया। भक्ति के द्वारा अनुप्राणित हो इन्होंने अपने हृदय के सच्चे एवं भावपूर्ण उद्गार प्रकट किए और उनके कारण ये अपने परवर्ती कवियों के लिए पथ-प्रदर्शक भी बन गए। अडियारों के इष्ट देव शिव थे और उनकी भक्ति-साधना में विशेष अंतर नहीं था। उनका लक्ष्य एक समान था, उनके भावों में अपूर्व सादृश्य था।’ इन भक्त कवियों में महिलाएँ भी शामिल थीं।
भक्ति साहित्य केवल तमिल भाषा तक ही सीमित नहीं था बल्कि मलयालम, तेलुगु में भी इसका प्रणयन हुआ। कन्नड़ भाषा में भी भक्ति साहित्य की रचना हुई। दक्षिण में विद्यमान भक्ति की परंपरा ही 13वीं-14वीं सदी में अखिल भारतीय आंदोलन के रूप में विकसित हुई।
भक्ति साहित्य पर अन्य प्रभाव
भक्ति साहित्य की परंपरा में बौद्ध, सिद्ध और नाथ साहित्य का भी योगदान रहा है, विशेष रूप से भक्ति की निर्गुणवादी परंपरा पर सिद्धों और नाथों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। धर्म की ब्राह्मणवादी परंपरा से अलग बौद्ध साहित्य में धर्म की लोकवादी परंपरा दिखाई देती है।
इसमें धार्मिक रूढ़ियों और कर्मकांडों का विरोध किया गया है तथा वर्णाश्रम व्यवस्था को भी अस्वीकार किया गया है। नाथों और सिद्धों ने अपने साहित्य में इस परंपरा को आगे बढ़ाया और बाह्य धार्मिक आचारों की तुलना में ईश्वर के प्रति हृदयगत निष्ठा को अधिक महत्व दिया।
13वीं 14वीं सदी के इस भक्ति आंदोलन पर इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव भी था। इस्लाम की एक शाखा सूफी मत में निहित प्रेम तत्व और उदारतावाद ने भक्ति आंदोलन को और अधिक व्यापक तथा लोकप्रिय बनाया। कई सूफी कवियों ने प्रबंध काव्यों की रचना कर इस युग के काव्य को और अधिक समृद्ध किया। इनके प्रबंध काव्यों में फारसी और भारतीय परंपरा का सुंदर संयोग दिखाई देता है।
भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास में भक्तिकाल का समय वि.सं. 1375 (सन् 1318) से वि.सं. 1700 (सन् 1643) तक माना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी भक्ति काव्य का आरम्भ विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी से मानते हैं लेकिन वे भी इसका विस्तार 1700 तक ही स्वीकार करते हैं। शुक्लजी के कालविभाजन को ही स्वीकार कर लिया गया है इसलिए हम भी भक्तिकाल का समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से सत्रहवीं शताब्दी तक मान सकते हैं।
प्रश्न यह है कि ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं जिनके कारण भक्ति आंदोलन का उद्भव हुआ। इस प्रश्न पर विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत प्रस्तुत किए हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि मुस्लिम शासकों का राज्य स्थापित होने के कारण जनता में जो हताशा फैल गई थी, उसी के कारण भक्ति साहित्य का उदय हुआ।
उन्हीं के शब्दों में, ‘देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया।
उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भाक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?’
हम पहले बता चुके हैं कि भक्ति और भक्ति साहित्य दोनों की भारत में लंबी परंपरा रही है। अगर हम राजनीतिक स्थिति से स्वतंत्र सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियों का अवलोकन करें तो भक्ति साहित्य के उदय के कारण को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं
दक्षिण में उत्पन्न हुए शंकराचार्य (आठवीं सदी) के अद्वैतवाद का देश व्यापी असर पड़ा था। अद्वैतवाद के अनुसार ईश्वर की सत्ता ही सत्य है, यह जगत् मिथ्या है। माया के वशीभूत होने के कारण ही हम जगत को सत्य समझ लेते हैं शंकराचार्य के मत ने ईश्वरीय भक्ति के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
रामानुज, निम्बार्क, मध्व, वल्लभ आदि आचार्यों ने ईश्वर, जीव और जगत के पारस्परिक संबंधों की नए ढंग से व्याख्या की और भक्ति के महत्व की पुनः स्थापना की।
शंकराचार्य का समय आठवीं शताब्दी माना जाता है और रामानुज का समय ग्यारहवीं शताब्दी। रामानुज ने भक्ति को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आलवार संतों की लंबी परंपरा तो पहले से ही विद्यमान थी, इसलिए यह कहना बहुत उचित नहीं लगता कि जनता राजनीतिक पराजय से हताश होकर ईश्वर की ओर उन्मुख हुई थी।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्पष्ट मत है कि ‘अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी साहित्य का बारह आना वैसा ही होता, जैसा आज है।’
भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय आंदोलन था। मध्य भारत में कबीर, नानक, जायसी, रैदास, सूरदास, तुलसीदास, दादूदयाल तो पश्चिम में नामदेव, नरसी, मीरा, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास और दक्षिण में आलवार आदि नायनार संत कवि हुए। इस भक्ति आंदोलन में समाज के निम्न समझे जाने वाले तबके भी शामिल थे।
संपूर्ण भक्ति साहित्य में करुणा और अनुरक्ति का स्वर तो है, लेकिन अवसाद और पराजय का स्वर कहीं नहीं है। दूसरे इस भक्ति आंदोलन में हिंदू तथा मुस्लिम दोनों ही शामिल थे और नामदेव, नानक, कबीर, रैदास, चैतन्य, जायसी आदि ने हिंदू मुस्लिम एकता पर विशेष बल दिया। इसलिए यह कहना बहुत उचित नहीं लगता कि भक्ति साहित्य मुस्लिम शासकों के अत्याचारों की प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ।
इसका अर्थ यह भी नहीं है कि भक्ति साहित्य में जनता के सांसारिक कष्टों के तत्व नहीं हैं। गरीब हिंदू और मुस्लिम जनता राजनीतिक उत्पीड़न, धार्मिक कट्टरता, सामाजिक भेदभाव और रूढिबद्धता से परेशान थी। भक्ति आंदोलन उनके इन्हीं कष्टों और दुःखों को अभिव्यक्ति दे रहा था। 12वीं-13वीं सदी के राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तनों ने निम्न समझी जाने वाली कारीगर जातियों की स्थिति में सुधार को संभव बनाया। इससे इन जातियों में आत्मसम्मान का भाव उत्पन्न हुआ।
इन्हीं परिस्थितियों में भक्ति के प्रचार ने इन वर्गों को अपनी ओर आकृष्ट किया क्योंकि भक्ति के क्षेत्र में हृदयगत निष्ठा को अधिक प्रधानता दी गई थी। धार्मिक कर्मकांडों और सामाजिक रूढ़ियों को भक्ति के मार्ग की बाधा माना गया था। भक्ति वस्तुतः धार्मिक उपासना के क्षेत्र में समानता और उदारता को स्वीकारती है और इसी विशेषता ने भक्ति को लोकप्रिय बनाया और कवियों ने इसे अपने काव्य का विषय बनाया।
भक्ति का स्वरूप
भक्ति साहित्य ईश्वर के प्रति भक्त की निष्ठा और भावना का ही प्रतिफलन नहीं है, फिर भी भक्ति वह केन्द्रीय तत्व अवश्य है जो उनके काव्य में अंतः धारा की तरह सर्वत्र प्रवाहित दिखाई देता है। भक्त कवि पहले भक्त थे बाद में कवि। उन्होंने कविता के लिए कविता नहीं की थी बल्कि सभी भक्त कवियों ने ईश्वर के प्रति अपने हृदय के उद्गारों को ही वाणी दी थी, इसलिए उनके भाब्दों में सच्ची निष्ठा, गहरा अनुराग और तीव्र भावनात्मक उद्वेग स्पष्ट परिलक्षित होता है।
कबीर, जायसी, सूर, मीरा, तुलसी आदि सभी भक्त और कवि दोनों थे, लेकिन उनके काव्य में भक्ति के अतिरिक्त अन्य बातों में एकरूपता नहीं है। भक्ति के स्वरूप में भी इनके यहाँ कुछ न कुछ भेद अवश्य है जैसे सूरदास की भक्ति सख्य भाव की है, तुलसी की हास्य भाव की और कबीर तथा जायसी की दाम्पत्य भाव की। भक्ति के ऊपरी भेदों की व्याख्या हम यथावसर करेंगे, इससे पहले हम भक्ति के अर्थ को समझने का प्रयास करें।
भक्ति का अर्थ
‘भक्ति’ शब्द की निष्पति ‘भज्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- सेवा कराना। लेकिन इसका अर्थ सिर्फ ‘सेवा’ शब्द तक ही सीमित नहीं है। भक्ति में ईश्वर का भजन, पूजा, प्रीति और अर्पण सभी शामिल हैं। दूसरे शब्दों में, भक्ति ईश्वर के प्रति भक्त के प्रेम की अभिव्यक्ति है। ‘भक्ति’ की परिभाषा नारद ने अपने ‘भक्ति सूत्र’ में की है उनके अनुसार, ‘सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा। अमृतस्वरूपा च ।’ अर्थात् भक्ति भगवान के प्रति परम प्रेमरूपा है और अमृतस्वरूपा है।
भक्ति में ईश्वर के प्रति गहरी अनुरक्ति (प्रेम) पर विशेष बल दिया गया है। भक्ति का यह केंद्रीय भाव है और ईश्वर के प्रति इसी उत्कट प्रेम को हम सभी भक्त कवियों में समान रूप से देख सकते हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार, ‘श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।’ शुक्लजी की इस परिभाषा में प्रेम के साथ श्रद्धा का संयोग किया गया है। श्रद्धा ईश्वर के प्रति पूज्य भाव की अभिव्यक्ति’ है। भक्त ईश्वर के प्रति गहरा प्रेम ही महसूस नहीं करता वरन् उसे अपना उद्धारक, पालनकर्ता और मार्गदर्शक भी मानता है।
भक्ति का स्वरूप
भक्ति को ईश्वर की प्राप्ति का सबसे सुगम साधन माना जाता है। भागवत पुराण में भक्ति के नौ प्रकार के साधनों का उल्लेख है :
1. श्रवण (ईश्वर के रूप-गुण-लीला को सुनना)
2. कीर्तन (ईश्वर के नाम-रूप-लीला आदि का गुणगान करना)
3. स्मरण (ईश्वर के नाम-रूप आदि को याद करना)
4. पादसेवन (ईश्वर के चरणें की सेवा करना)
5. अर्चन (ईश्वर की पूजा करना)
6. वंदन (ईश्वर की वंदना करना)
७. दास्य (ईश्वर को अपना स्वामी मानकर दास भाव से उनकी सेवा-अर्चना करना)
८ .सख्य (ईश्वर को अपना सखा, बंधु और मित्र मानना)
९. आत्मनिवेदन (ईश्वर के चरणों में सर्वस्व अर्पित करना)
भागवत पुराण में भक्ति के दो भेदों की चर्चा की गई है। जब भक्त किसी इच्छा से प्रेरित होकर ईश्वर की पूजा-अर्चना करता है तो ऐसी भक्ति ‘सगुणा’ या ‘गौणी’ भक्ति कहलाती है।
जब भक्त मोक्ष की कामना भी त्याग देता है तथा ईश्वर का प्रेम और उसकी कृपा प्राप्त करना ही उसका लक्ष्य रह जाता है तो ऐसी भक्ति ‘निर्गुण’ या ‘अहैतुकी’ भक्ति कहलाती है।
भक्ति काव्य में हम अहैतुकी भक्ति का प्रभाव अधिक देखते हैं। भक्ति के जिन नौ साधनों की चर्चा ऊपर की गई है, उसे देखने से स्पष्ट है कि इसमें मुख्य बल ईश्वर के स्मरण और पूजा को दिया गया है। ईश्वर की पूजा की कोई बाह्य विधि नहीं बताई गई है तथा जोर ईश्वर के नाम-रूप-गुण और लीला के स्मरण और कीर्तन पर है। भक्ति काव्य में भी इसीलिए नाम-स्मरण और ईश्वरीय लीला के गुणगान को इतना अधिक महत्व दिया गया है।
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