भारतेन्दु की भक्तिपरक कविताओं की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट करें | - Rajasthan Result

भारतेन्दु की भक्तिपरक कविताओं की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट करें |

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भारतेन्दु की भक्तिपरक कविता

भारतेन्दु की भक्तिपरक और राजभक्ति

आधुनिक कविताओं में भारतेंदु की उन सभी कविताओं को लिया जा सकता है जो उन्होंने ब्रिटिश शासनाध्यक्षों, ब्रिटिश राज और देशभक्ति के बारे में लिखी हैं। भारतेंदु ने प्रथम कविता महारानी विक्टोरिया के प्रति एलबर्ट की मृत्यु पर 1861 ई0 में लिखकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की है। इसी प्रकार महारानी के द्वितीय पुत्र ड्यूक ऑफ एडिनबरा के 1869 में भारत आगमन पर “श्री राजकुमार सुस्वागत पत्र लिखकर भारतेंदु अपना हर्ष प्रकट करते हैं :
जाके दरस-हित सदा नैना मरत पियास। 
सो मुख-चंद बिलोकिहैं पूरी सब मन आस। 
नैन बिछाए आपु हित आवहु या मग होय। 
कमल-पाँवड़े ये किए अति कोमल पद जोए। (भारतेंदु समग्र, पृ0 189)
1870 मेंज ड्यूक ऑफ एडिनबरा के बनारस आने पर और 1871 में प्रिंस ऑफ वेल्स के बीमार पड़ने पर, 1874 में प्रिंस के रूसी राजकुमारी के साथ विवाह होने पर तथा 1875 में भारत आने पर भारतेंदु ने उनके सम्मान में कविताएं लिखी हैं :
“स्वागत स्वागत धन्य तुम भावी राजधिराज। 
भई सनाथा भूमि यह परसि चरन तुम आज। 
राजकुंअर आओ इते दरसाओ मुख चंद। 
बरसाओ हम पर सुधा बाढ़यौ परम आनंद। (भारतेंदु समग्र, पृ0 216) ,
यही नहीं ”प्रिंस ऑव वेल्स” को भारत का दुःख जानने के लिए आया हुआ मानकर वह उनके सामने भारत की पीड़ा को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं :

भरे नेत्र अंसुअन जल-धारा। 
लै उसास यह बचन उचारा। 
क्यों आवत इत नृपति-कुमारा। 
भारत में छायो अंधियारा।
                                   (भारतेंदु समग्र, पृ0 219)
तिनको सब दु:ख कुंअर छुड़ावो। 
दासी की सब आस पुरावो। 
बृटिश-सिंह के बदन कराला। 
लखि न सकत भयभीत भुआला।
                                       (भारतेंदु समग्र, पृ0 220)
भारतेंदु की ऐसी कविताओं के आधार पर उन पर ब्रिटिश राज के प्रति वफादार रहने का आरोप भी लगाया जाता रहा है। लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। डॉ0 शंभुनाथ सिंह प्रश्न करते हैं, “महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत व्यवहार के स्तर पर अंग्रेज़ों से कभी बिगाड़ नहीं किया और उनका अनेक अवसरों पर सत्कार किया तो उन्नीसवीं शताब्दी के एक राजभक्त परिवार के सदस्य से यह आशा क्यों करनी चाहिए कि वह उपनिवेशवाद विरोधी वैचारिक संघर्ष में सभी अंग्रेज़ों को एक ही नज़र से देखेगा और उनसे मानवीय रिश्ते तोड़ लेगा।” (भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, पृष्ठ 27)
लेकिन मूल सवाल यह भी नहीं है। मूल सवाल यह है कि 1857 के राष्ट्रीय संग्राम के होने के बावजूद भारतेंदु महारानी विक्टोरिया के प्रति और ब्रिटिश लार्ड आदि के प्रति सहानुभूति, सम्मान प्रदर्शन क्यों करते रहे। इसका जबाब 1857 से पूर्व अंग्रेज़ी राज और 1857 के बाद के अंग्रेज़ी राज के फर्क को रेखांकित करने पर मिल सकता है।
1857 से पूर्व अंग्रेज़ों की नीति भारत को सिर्फ लूटने खसोटने की रही थी। उनकी निगाह में सभी शोषण के पात्र थे। जमींदार, नवाब, किसान, स्त्री-पुरुष सभी समुदाय के लोगों में उनके लिए कोई भेदभाव नहीं था। लेकिन राष्ट्रीय संग्राम के बाद ब्रिटिश हुकूमत के आते ही अंग्रेज़ों की नीति में गहरा अंतर आ गया।

1858 के अपने घोषणापत्र में महारानी ने जो लम्बे चौड़े वायदे किए थे, उन्हें पढ़कर कोई यह नहीं कह सकता था कि ब्रिटिश राज यहाँ लूट-खसोट के मकसद से पाँव जमा रहा है। घोषणापत्र में यह भी कहा गया था,’हमारी यह इच्छा है कि जहाँ तक संभव हो सके, बिना किसी जाति, धर्म विभेद के हमारी प्रजा नौकरी के उन पदों पर नियुक्त हो सके।
जिनके पालन की योग्यता उनमें अपनी शिक्षा, योग्यता और ईमानदारी के कारण हो।” (आधुनिक भारतीय इतिहास एवं संस्कृति से उद्धृत, पृष्ठ 521) महारानी ने भारतीयों के धार्मिक विश्वासों में हस्तक्षेप न करने का भी आश्वासन दिया था।

संभवत: यही कारण है कि भारतेंदु महारानी विक्टोरिया के प्रति इतना सम्मान, प्रदर्शित करते हैं और भारत के कल्याण की उससे अपेक्षा करते हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि उस समय तक देश की राजनीतिक हालत ऐसी हो चुकी थी कि नवाबों, राजाओं, सामंतदारों की आलसी, शोषणपरक प्रवृत्तियों से प्रजा बेहाल थी। सामाजिक बुराइयों, धार्मिक अंधविश्वासों से समाज पतन की ओर अग्रसर था।
ऐसे में ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा ज्ञान-विज्ञान, नयी तकनीक, नये प्रशासन की तरकीबें और स्वच्छ प्रशासन के आश्वासन निश्चय ही मन को लुभाने वाले थे। भारतेंदु ने लाई लारेंस, (1864-1869), लार्ड मेयो (1869-1872ई0), लार्ड रिपन (1880-1884) के प्रति लेख, कविताएँ लिखकर जो अपनी श्रद्धांजलि प्रकंट की है, वह अकारथ नहीं थी। लार्ड लारेंस ने देश की आर्थिक उन्नति के लिए बहुत कुछ किया।

किसानों के हितों की सुरक्षा के लिए 1868 में पंजाब टेनेन्सी एक्ट और अवध टेनेन्सी एक्ट पास करवाया, जिसे इतिहासकारों ने भी “लाभकारी एवं परोपकारी विधान” माना है। यह बात दीगर है कि ब्रिटिश सत्ता के ये सभी सुधार अपने पैर जमाने की चालबाज तरकीबों का ही एक दिखावटी हिस्सा थे।
लार्ड मेयो ने भी अपने अल्पशासनकाल में देशी राजाओं और प्रजा का आदर अर्जित करने के लिए अनेक कदम उठाए। सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार मिटाने की व्यवस्था भी मेयो ने की थी। लार्ड रिपन ने अपने शासनकाल के दौरान सुधार के जितने कार्य किए उन्हीं के कारण उन्हें इतनी प्रशंसा मिली। भारतेंदु ने “रिपनाष्टक’ लिखकर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की :

जय-जय रिपन उदार जयति भारत-हितकारी 
जयति सत्य-पथ-पथिक जयति जन-शोक-बिदारी 
जय मुद्रा-स्वाधीन-करन सालम दुख-नाशन 
भृत्य-वृत्ति-प्रद जय पीड़ित-जन दया-प्रकाशन
(भारतेंदु समग्र, पृ0 257)
भारतेंदु लार्ड रिपन और पूर्ववर्ती सभी लार्ड शासकों में अंतर करते हैं और बताते हैं कि क्यों रिपन सभी लार्डों से अधिक सम्मानीय, प्रसिद्ध और प्रशंसनीय है :
जदपि बाहुबल क्लाइव जीत्यौ सगरो भारत । 
जदपि और लाटनहू को जन नाम उचारत। 
जदपि हेसटिंग्स आदि साथ धन लै गए भारी। 
जदपि लिटन दरबार कियो सजि बड़ी तयारी। 
पै हम हिंदुन के हीय की भक्ति न काहू संग गई। 
सो केवल तुम्हरे संग रिपन छाया सी साथिन भई। (भारतेंदु समग्र, पृ0 258)
ध्यान देने की बात है कि भारतेंदु अंधराजभक्त नहीं थे। लार्ड हेसटिंग्स, लार्ड लिटन के प्रति उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ इस बात की गवाह हैं। लार्ड हेसटिंग्ज ‘द्वारा धन लूट कर ले जाना, लार्ड लिटन के शासन के दौरान 50 लाख से भी अधिक लोगों की अकाल में मृत्यु होना तथा उसके कुशासन की अनेक त्रुटियों की भारतेंदु ने कटु आलोचना की है:

स्ट्रैची डिजरैली लिटन चितय नीति के जाल 
फंसि भारत जरजर भयो काबुल युद्ध अकाल 
सुजस मिलै अंगरेज कों होय रूस की रोक 
बढ़े ब्रिटिश वाणिज्य पै हम को केवल सोक। (भारतेंदु समग्र, पृ0 251)

देशभक्ति

1858 से 1881 तक यानि कि लार्ड रिपन के शासन शुरू होने तक भारतेंदु की राजनीति समझ इस प्रकार की थी कि वे जनता के दुखों, पीड़ाओं, बदहाली आदि को कभी प्रिंस ऑव वेल्स के द्वारा, कभी लार्ड के द्वारा महारानी तक पहुँचाने का अनुनय विनय करते रहे और महारानी को जनता का हितरक्षक मानते रहे।
डॉ0 शिवकुमार मिश्र के शब्दों में, “जहाँ तक भारतेंदु की राष्ट्रभक्ति का सवाल है वह भी काफी अर्से तक ऐसी राष्ट्रभक्ति है, जिसमें देश-दशा के प्रति पीड़ा, देशवासियों की दुर्गति पर क्षोभ और अवसाद, देशोद्धार की वास्तविक चिंता, देश के रुढ़ि-जर्जर स्वरूप पर खेद और आक्रोश, अपनी परंपरा पर गर्व, अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को पाने की ललक तथा प्रगति के नये रास्तों पर देश को ले जाने की चिंता, पराधीनता तथा आर्थिक शोषण से उसकी मुक्ति की प्रबल आकांक्षा और उसके लिए किए गए प्रयास आदि तो हैं, परन्तु यह सब राजराजेश्वरी के संरक्षण में हो सकेगा इस बात का भोला विश्वास भी है।” (भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, पृष्ठ 63)।

बाद में उपनिवेशी साम्राज्यवाद की सुधारवादी नीति की कलई उनके सामने उतरती गई। वे इस बात को समझ गये कि साम्राज्यवाद सामंतवाद के साथ हाथ मिलाकर वही पुराना लूट खसोट का खेल खेल रहा है और जनता की वास्तविक तकलीफों को दूर करने का उसका इरादा पाकसाफ नहीं है। वे यह भी देख रहे थे कि अंग्रेज़ी सत्ता ने जनता और अपने बीच ऐसे लोगों की एक जमात को प्रश्रय देकर खरीद लिया है।
जो अंग्रेज़ी सत्ता के न्यायिक होने का बिगुल बजाती रहे और बदले में लूट का एक हिस्सा हासिल करती रहे। इसलिए 1881 में रचित उनकी कविता “विजय वल्लरी” और 1884 में रचित “विजयनी विजय बैजयन्ती’ में भारत के दुख कष्टों का तो खूब वर्णन है किंतु कहीं पर भी महारानी तक इन दु:खों को पहुँचाने का आह्वान नहीं है। “विजय वल्लरी” अफगान युद्ध समाप्त होने पर और “विजयिनी विजय बैजयन्ती’ मिस्र विजय के बाद लिखी गई।

लेकिन दोनों कविताओं का मूल लक्ष्य राजभक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि राजभक्ति को औजार बनाकर अंग्रेज़ों के शोषण अत्याचार को उद्घाटित करना तथा वीरतापूर्ण भारतीय संघर्ष की ऐतिहासिक परम्परा को उजागर करते हुए “अण्डरग्राउण्ड” रूप से भारतवासियों को ललकारना है। ये वस्तुत: औपनिवेशिक सुधारवाद से मोहभंग की कविताएँ हैं।” (भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, डॉ0 शंभुनाथ, पृष्ठ 31)
“विजय वल्लरी” में भारतेंदु ने अफगान युद्ध में भारतीय सैनिकों की वीरता पर हर्ष व्यक्त किया है, किंतु ऐसे युद्ध अंग्रेज़ क्यों लड़ते हैं, इससे किसे लाभ होता है, इसका भी स्पष्टीकरण वे देते हैं :
ये तो समुझत व्यर्थ सब यह रोटी उतपात। 
भारत कोष बिनास कों, हिय अति ही अकुलात। 
ईति भीति दुष्काल सों पीड़ित कर को सोग। 
ताहू पै धन-नास की यह बिनु काज कुयोग। 
स्ट्रेची डिजरैली लिटन चितय नीति के जाल। 
फॅसि भारत जरजर भयो काबुल युद्ध-अकाल।
(भारतेंदु समग्र, पृ0 251)
भारतेंदु की यही बदली हुई समझ “नये जमाने की मुकरी” में दिखाई देती है, जिसकी रचना उन्होंने 1884 में की थी:
भीतर-भीतर सब रस चूसै। 
हँसि-हँसि के तन मन धन मूसै। 
जाहिर बातन में अति तेज 
क्यों सखि सज्जन, नहीं अंगरेज!
(भारतेंदु समग्र, पृ0 256)
उपनिवेशी सुधारवाद की पोल इस मुकरी में पूरी तरह खुल कर सामने आ जाती है। अंगरेज़ अब लड़ाई झगड़े से नहीं, हँसकर, चालबाजियाँ करके लूटने में लगे हैं।

यह भी पढ़े :–

  1. जहाँ न धर्म न बुद्धि नहि नीति | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | अंधेर नगरी । भारतेन्दु |
  2. लोभ पाप को मूल है | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | भारतेन्दु हरिश्चंद |

 

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