भीमराव अम्बेडकर का दर्शन | जीवन परिचय | - Rajasthan Result

भीमराव अम्बेडकर का दर्शन | जीवन परिचय |

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भीमराव अम्बेडकर – जो बाद में बी आर अम्बेडकर कहलाये का जन्म रामजी और भीमाबाई से 14 अप्रैल को भारत के हिन्दू अछूत सम्प्रदायों में से एक से संबंधित एक गरीब परिवार में हुआ था। जब वे छह वर्ष के थे तभी उनकी मां की मृत्यु हो गयी। महाराष्ट्र डपोली के सतारा हाईस्कूल के एक अम्बेडकर नामक अध्यापक भीमराव अम्बेडकर को अत्यधिक प्रेम करते थे।

प्रायः वे उनका लालन-पालन भी करते थे। इस अध्यापक के प्रति प्रेम और सम्मान के प्रतीक के रूप में, उन्होंने स्वयं को अम्बेडकर कहना आरंभ कर दिया। सन् 1907 में, उन्होंने अपनी दसवीं कक्षा बंबई के एल्फिस्टोन हाई स्कूल से 750 अंकों में मात्र 282 अंक प्राप्त करके उत्तीर्ण की।

यह हमें एक लज्जाशील उपलब्धि लग सकती है, परंतु उन दिनों एक अछूत के लिए यह एक असाधारण उपलब्धि थी । यद्यपि धीरे-धीरे उन्होंने अपनी पहचान एक विद्वान के रूप में बना ली, परंतु अपने विद्यार्थी जीवन में वे पढ़ाई में साधारण थे।

जून 1913 में वे भारत छोड़कर संयुक्त राज्य अमरीका चले गये और कोलंबिया विश्वविद्यालय में उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र, मानवशास्त्र और राजनीति विज्ञान का अध्ययन किया।

भीमराव अम्बेडकर

उन्होंने 1915 में एम.ए. और 1917 में पी.एच.डी. पूर्ण की। अमरीका में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स एण्ड पालिटिकल साइन्स में प्रवेश लिया। उन्हें अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी क्योंकि उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो गई और बड़ौदा के दीवान ने उन्हें भारत वापस बुला लिया ।

नीच परिवार में जन्म लेने के कारण बड़ौदा राज्य के कर्मचारियों ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। एक सुबह वे एक ऐसी भीड़ को देखकर भाग गये जो हाथ में लाठी लेकर उन्हें मारने के लिए आ रही थी। कार्यालय में चपरासी तक ने उन्हें पानी देने से मना कर दिया। उनके उच्च शैक्षिक सम्मान भी उनके अछूत होने के धब्बे को धो न सके।

इसके पश्चात, भीमराव अम्बेडकर ने अपनी सारी शक्ति करोड़ों अछूतों को ऊपर उठाने में लगा दी। सन् 1918 में, अम्बेडकर सिदेन्हम कॉलेज में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में शामिल हुए। उनकी ज्ञान की गहनता और प्रभावकारी व्याख्यानों ने उन्हें विद्याथियों में विख्यात बना दिया, परंतु सामाजिक व्यवहार अपरिवर्तित रहा।

कुछ गुजराती प्रोफेसरों द्वारा व्यावसायिक कर्मचारियों के लिए आरक्षित घड़े में से उनके द्वारा पानी पीने पर आपत्ति जताई गयी। भीमराव अम्बेडकर पुनः लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में शामिल हुए और डिग्री प्राप्त की। 1922 में उन्होंने डी एस सी की डिग्री प्राप्त की। अम्बेडकर अब लंदन डॉक्ट्रेट इन साइन्स से वकील, अमेरीका से पी.एच.डी. दर्शनशास्त्र में और बॉन विश्वविद्यालय से पढ़े हुए एक विद्वान थे।

अतः वे बाद में, एक विख्यात संविधानविद्, अद्वितीय सांसद, विद्वान और विधिवेत्ता और उन सबसे अधिक शोषित वर्ग के नेता बनने के लिए पूर्णतः उपयुक्त थे। उन्होंने गवर्नर जनरल के कार्यकारी परिषद् के सदस्य के रूप में और स्वतंत्रता के बाद नेहरू के पहले मंत्रिमंडल (1942-46) में कानून मंत्री के रूप में कार्य किया। कानून मंत्री के रूप में उन्होंने भारत की संविधान समिति का संचालन किया।

भीमराव अम्बेडकर का दर्शन

भीमराव अम्बेडकर भारतीय सामाजिक तंत्र और विचारधाराओं से अत्यंत प्रभावित थे और पाश्चात्य आधुनिकता का उन पर भी प्रभाव था। उन्होंने पश्चिम की प्रणालियों और नीतियों का प्रयोग भारतीय समाज का विश्लेषण करने के लिए किया ।

यद्यपि उन्होंने पश्चिमी उदारवाद और मार्क्सवाद के आदर्शों की सराहना की, किन्तु उन्होंने उसकी पूर्णता बौद्ध दर्शन में पाई। उन्होंने हमारे राजनैतिक और आर्थिक तंत्र को उन्नत बनाने के लिए उदार ढंग और सामजिक एवं धार्मिक सुधारों के लिए उत्कृष्ट विधियां बताई ।

सामजिक दर्शन

सामाजिक समीक्षा भीमराव अम्बेडकर के दर्शन एवं क्रिया का आधार है। यह उस अपमान के चारों ओर घूमता है जो उन्होंने और पीड़ित वर्ग के अन्य सदस्यों ने अछूतों के रूप में भारत के प्रत्येक स्थान पर सहन की। उनके दर्शन और संघर्ष को उन सारे लोगों की मुक्ति के लिए किए गये सामाजिक प्रयास के रूप में माना जा सकता है, जिन्हें व्यवस्थित रूप से मुख्यधारा से अलग कर दिया गया था ।

सामाजिक सद्विवेक को सभी अधिकारों के विश्वसनीय पक्ष के रूप में माना जाता है। सामाजिक तंत्र, कई बार लोगों को नैतिक अधिकारों को प्राप्त करने से रोकता है और दृढ़ सांस्कृतिक बंधनों का पालन कराता है। जाति व्यवस्था ने लोगों को हठी और अनैतिक बना दिया था। अतः मौलिक मानव अधिकारों और सामाजिक न्याय का भारत में कई शताब्दियों से हनन हो रहा था।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था जाति व्यवस्था पर आधारित है। जाति व्यवस्था समाज में सांस्कृतिक रूप से अत्यधिक गहन, सामाजिक रूप से प्रमाणित, धार्मिक रूप से स्वीकृत और आर्थिक रूप से उत्पीड़क व्यवहार है। जाति व्यवस्था कर्म का उच्चतम से निम्नतर रूप में व्यवस्थित सामाजिक विभाजन है। यह व्यक्ति के जन्म द्वारा निर्धारित होता है।

वर्तमान मे हमारे संविधान में कई विधान नीची जाति के सदस्यों की उच्च जाति की संभव प्रताडनाओं से रक्षा के लिए बनाये गये हैं। तब भी नीची जाति के विरूद्ध अलगाव और क्रूरताएं होती रहती हैं। तब भीमराव अम्बेडकर के समय, जब कोई सुरक्षा – विधान नहीं थे, दलितों की कितनी प्रताड़नाएं और अपमान हुआ होगा।

भीमराव अम्बेडकर ने चातुर्वण्य के विरूद्ध व्यवस्थित रूप से एक व्यापक आलोचना प्रस्तुत की। चातुर्वर्ण वर्ण या रंग पर आधारित चार वर्णों का निर्धारण और विभाजन है। वर्ण व्यवस्था पर उनका आक्रमण आक्रामक नहीं, सिद्धांत आधारित था । “मेरे लिए यह चातुर्वण्य अपने पुराने ढांचे के साथ अत्यंत घृणित है और मेरा सारा अंग उसका प्रतिकार करता है। परंतु मैं चातुर्वण्य के विरूद्ध अपनी आलोचनाओं को मात्र अपनी भावनाओं पर आधारित नहीं बनाना चहता। ऐसे कई दृढ़ आधार हैं, जिन पर मैं अपनी आलोचनाओं के लिए निर्भर करता हूं।”

उन्होंने वर्ण व्यवस्था को अप्रचलित, अव्यावहारिक, अबौद्धिक और अंधविश्वासपूर्ण सामाजिक क्रिया माना । चातुर्वण्य द्वारा समाज पर किये गये आघातों का वर्णन उन्होंने कुछ इस प्रकार किया : “जाति ने सार्वजनिक उत्साह को नष्ट कर दिया है। जाति ने सार्वजनिक पुण्य को असंभव बना दिया है। सद्गुण जाति के वश में आ गया है और नैतिकता जाति बंधक बन गयी है। यहां योग्य व्यक्ति के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। यहां गुणी के लिए कोई प्रशंसा नहीं है।”

क्या समाज के पतन के लिए ये सामाजिक बुराइयां पर्याप्त नहीं हैं? वे निरंतर मानव सम्मान और सामाजिक समानता के लिए लड़े। अम्बेडकर का मुख्य लक्ष्य एक समता आधारित समाज की स्थापना करना था। उन्होंने जाति के दमन को अपना लक्ष्य बनाया । उनका मानना था कि भारत की वास्तविक स्वतंत्रता समतामूलक समाज द्वारा ही संभव हो सकती है। उन्होंने कहा कि सामाजिक उन्नति और स्थिरता एक समान समाज में ही संभव है ।

राजनैतिक आदर्श और सामाजिक-राजनैतिक आलोचना

भीमराव अम्बेडकर ने सामाजिक समानता की स्थापना के लिए एक कार्य योजना तैयार की और अपने सपने को पूरा करने के लिए प्रत्येक अवसर का उपयोग किया। वे फ्रांस के ज्ञानोदय से प्रभावित थे। “अगर आप मुझसे पूछेंगे, तो मेरा आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित समाज होगा।”

एक आदर्श समाज को समाज के प्रत्येक सदस्य को उर्ध्व एवं क्षितिज गतिशीलता का अवसर प्रदान करना चाहिए। एक आदर्श समाज में, विभिन्न समूहों, विभिन्न सिद्धांतों और विभिन्न हितों को सचेतन रूप में सम्प्रेषित करने और सहभागिता करने का मार्ग होना चाहिए। यह एक सच्चे लोकतंत्र में कार्यरत होता है। लोकतंत्र मात्र शासन का स्वरूप नहीं है।

यह मुख्य रूप से बंधुओं के प्रति सम्मान और आदर का भाव है।’ एक समाज, जो अपने लोगों के बीच पारस्परिक क्रिया को अवरोधित करता है, वह कैसे स्वतंत्र हो सकता है? ऐसे समाज में हम लोकतंत्र की स्थापना कैसे कर सकते हैं? समानता भारत में एक अविचारणीय इच्छा थी क्योंकि सामाजिक प्रतिष्ठा, स्थान और फलतः योग्यता वंशानुक्रमित थी । विकासोन्नमुख आंदोलन कड़े रूप से प्रतिबंधित थे।

1940 की जनगणना में प्रभावशाली समुदायों ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए पीड़ित समुदायों के सदस्यों को स्वयं को प्रभावशाली समुदायों के सदस्यों के रूप में पंजीकृत करने को विवश किया। सत्ता प्राप्ति में संख्या बल ही एक समुदाय को दूसरे समुदाय पर राजनीतिक लाभ प्रदान करता है।

इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में जनगणना को सचेत रूप से बिगाड़ दिया गया। “अछूत इस षड्यंत्र के शिकार बने और उन्होंने निश्चय किया कि जनगणना में पुनः स्वयं को अछूत नहीं मानेंगे और स्वयं को केवल हिन्दू कहेंगे। इसने अछूतों की संख्या को कम कर दिया और हिन्दुओं की श्रेणियां अत्यधिक बढ़ गयीं।”

उच्च जाति के हिन्दुओं ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए अछूतों को एकीकृत किया और उत्पीड़न के लिए उनको पृथक कर दिया। अछूत, अछूत ही रह गये । अम्बेडकर और अछूतों के अन्य नेताओं को देशद्रोही के रूप में चित्रित किया गया ।

वे चिंतित थे कि “राजनीतिज्ञों ने यह कभी भी नहीं समझा कि लोकतंत्र शासन का एक स्वरूप नहीं है; यह मुख्य रूप से समाज का एक स्वरूप है। एक लोकतांत्रिक समाज के लिए एकता, समान लक्षित समुदाय, सार्वजनिक हितों के प्रति ईमानदार और पारस्परिक सहानुभूति से युक्त होना अनिवार्य नहीं भी हो सकता है। परंतु अनिवार्य रूप से इसमें दो चीजें सम्मिलित होती हैं। पहला है, मनोवृत्ति, अपने बंधुओं के प्रति सम्मान और समानता का व्यवहार। दूसरा है, दृढ़ सामाजिक अवरोधों से स्वतंत्र सामाजिक व्यवस्था।”

परंतु भारतीय राजनीतिज्ञ केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाये रखने में व्यस्त रहे, और कभी जाति व्यवस्था को चुनौती नहीं दी । अम्बेडकर ने गांधी को सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए पीड़ित वर्गों की अभिलाषाओं को दबाने के लिए दोषी ठहराया।

दूसरे गोल मेज सम्मेलन में पीड़ित वर्गों के लिए एक अलग निर्वाचन मण्डल की आवश्यकता पर ब्रिटिश अधिकारियों को मनाने में सफल हुए और उसे प्राप्त भी किया। एक पृथक निर्वाचन मण्डल होने का अर्थ था कि अछूत लोग अपने उम्मीदवार के लिए वोट करेंगे और उन्हें हिन्दू बाहुल्यता से अलग वोट उपलब्ध कराये जाएंगे।

गांधी को लगा कि पृथक निर्वाचन मण्डल हरिजनों को हिन्दुओं से अलग कर देगा। हिन्दुओं के विभाजित होने के विचार ने उन्हें बहुत दुख पहुंचाया। उन्होंने मृत्यु तक भूख हड़ताल व्रत आरंभ कर दिया। सार्वजनिक दबाव और राष्ट्रीय नेताओं के अनुमोदन के कारण, भीमराव अम्बेडकर को अंततः पृथक् निर्वाचन मण्डल की बजाय आरक्षण द्वारा अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त करके ही संतुष्ट होना पड़ा। 1932 का यह समझौता पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है।

अगस्त, 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो बाबा साहब अम्बेडकर स्वतंत्र भारत के पहले विधि मंत्री बने । संविधान सभा ने संविधान की रचना के लिए उन्हें समिति का सभापति बनाया। उनके वकालत, अर्थशास्त्र और राजनीति के अध्ययन ने, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन और अनुभव ने उन्हें इस लक्ष्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति बनाया।

उन्होंने कई देशों के संविधानों का अध्ययन किया और उन पर भारतीय संदर्भ से प्रकाश डाला, प्रारूप समिति के अन्य सदस्यों के विचारों का समन्वय किया । संविधान सभा में प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख, प्रारूप की प्रत्येक पंक्ति को स्पष्ट किया जिससे कि सभी सन्तुष्ट हो सके और भारत के लिए सर्वोत्तम संविधान बनाया। इसीलिए उन्हें संविधान का शिल्पकार कहा जाता है। ।

भीमराव अम्बेडकर ने सभी के हित के लिए राज्य समाजवाद के साथ संसदीय लोकतंत्र पर बल दिया। उन्होंने कहा कि विधि-शासन ने नागरिकों की समानता ने, कानून निर्माण और नीति–निर्धारण में लोगों की भागीदारी ने उन्हें संसदीय लोकतंत्र को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया । संविधान सभा की प्रारूप समिति के सभापति के रूप में अम्बेडकर सामाजिक न्याय के प्रोत्साहन के लिए कानून और क्रियाओं को उद्घाटित करके पीड़ित वर्गों की मुक्ति के लिए उचित मार्गों को प्रदर्शित कर सके।

उन्होंने राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के द्वारा अपने सारे सपनों को संविधान में प्रकाशित किया। उनके सामाजिक विचार मौलिक अधिकारों में प्रकाशित होते हैं।

आर्थिक आदर्श और सामाजिक विकास

भीमराव अम्बेडकर के आर्थिक दर्शन में उपयोगितावाद का सिद्धांत निहित था। यह सिद्धांत अधितम लोगों का अधिकतम शुभ की बात करता है। एक आर्थिक तंत्र तभी स्वीकार किया जा सकता है जबकि वह अधिकतम, जो कि समाज के आधार हैं, के हित का ध्यान रख सके।

भीमराव अम्बेडकर ने गांव के गरीबों के दुखों का व्यक्त किया, जन-आंदोलनों को व्यवस्थित किया और समाज के सबसे कमजोर वर्ग के उद्धार के लिए कार्यरत क्रिया कलापों और कानूनों को प्रात्साहित किया। 1936 में उनके द्वारा स्थापित स्वतंत्र मजदूर संघ ने पीड़ित वर्गों से संबंधित कार्यकर्ताओं को मानव – स्थान दिलाने के लिए संघर्ष किया ।

भीमराव अम्बेडकर द्वारा वर्ण व्यवस्था पर किया गया आक्रमण मात्र उच्च जाति के प्रभुत्व को रोकने के लिए नहीं था, बल्कि आर्थिक विकास के लिए अधिक व्यापक संकेत था। क्रिया शक्ति की उर्ध्व और क्षितिज गतिशीलता आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य है। वर्ण व्यवस्था मेहनत और साथ ही साथ पूंजी की गतिशीलता को कम कर देती है।

उन्होंने कहा, “सामाजिक एवं वैयक्तिक दक्षता के लिए व्यक्ति की क्षमता का उस प्रतिद्वंद्विता के बिन्दु तक विकास करना आवश्यक है कि वह अपने भविष्य को चुन सके और बना सके।” जाति व्यवस्था के अंतर्गत चुनाव क्षमता पर आधारित न होकर सामाजिक स्थान पर आधारित था ।

ब्रिटिश सरकार को 1947 में प्रस्तुत “राज्य और अल्पसंख्यक” नामक अपने स्मारक पत्र में, अम्बेडकर ने भारत के आर्थिक विकास के लिए एक योजना बनाई थी। इस योजना ने “राज्य पर लोगों के आर्थिक जीवन को सुनियोजित करने के लिए एक ऐसा उत्तरदायित्व डाला जो वैयक्तिक उद्यमों के प्रत्येक मार्ग को बंद किये बिना उत्पादकता के उच्चतम बिन्दु तक ले जाएगा और धन के समान वितरण को भी प्रदान करेगा ।”

लोकतंत्र का लक्ष्य, लोकतंत्र के सामाजिक व आर्थिक लक्ष्य को प्राप्त करके ही, पूर्ण किया जा सकता है। इसका उत्साह संविधान के राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में प्रदर्शित होता है।

कानून मंत्री के रूप में डॉ. अम्बेडकर हिन्दू धर्म विधेयक के एक अनुच्छेद- विवाह और वंशानुक्रम के संबंध में औरतों के अधिकारों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुधार के लिए बहुत कठोरता पूर्वक लड़े। संसद में यह विधेयक पास नहीं होने पर उन्होंने सितंबर, 1951 में इस्तीफा दे दिया।

धार्मिक समीक्षा और सामाजिक परिवर्तन

हिन्दुत्व पर अम्बेडकर निरंतर आघात करते रहे, क्योंकि इसमें शोषण व उत्पीड़न की यांत्रिकता अंतर्निहित थी। उनका मानना था कि अछूत यदि हिन्दुत्व से संबंधित रहेंगे तो कभी भी अपने दुखों से ऊपर नहीं उठ पाएंगे। उन्होंने पीड़ित वर्गों को एक करने के लिए, उन्हें हिन्दुत्व की जकड़ से अलग करने के लिए गांधी और अन्य राष्ट्रीय नेताओं की इच्छा के विरूद्ध भारतीय समाज में एक पृथक सत्ता बनाने के लिए अत्यधिक कार्य किया।

1935 के दलितों के येओला सम्मेलन में अम्बेडकर ने कहा, हम सबसे निम्न मानव अधिकारों को पाने में भी सफल नहीं होते.. मैं हिन्दू पैदा हुआ हूं। मैं इसे छोड़ नहीं सकता, परंतु मैं गहनतापूर्वक आपको यह निश्चित करता हूं कि मैं एक हिन्दू के रूप में नहीं मरूंगा।”

अम्बेडकर ने अपने लेख श्री गांधी और अछूतों की मुक्ति में लिखा है, “दासता, गुलामी, कृषि-दासता सभी नष्ट हो गये हैं। परंतु छुआछूत अभी भी अस्तित्ववान और तब तक रहेगा जब तक कि हिन्दुत्व रहेगा… अछूतों के दुख.. हिन्दुत्व के चतुर गणित का परिणाम हैं .. दलित मात्र घृणित ही नहीं है बल्कि विकास करने के सभी अवसरों से रहित हैं।”

अम्बेडकर ने चातुर्वण्य का उन पक्षधरों को यह प्रश्न पूछकर कि क्यों वे मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में स्तरित करने पर इतना जोर देते हैं, निरूतर कर दिया, जिनका यह मानना था कि यह गुण पर आधारित था न कि जन्म पर एक विद्वान व्यक्ति का सम्मान ब्राह्मण न होने पर भी किया जाना चाहिए।

एक सैनिक का सम्मान क्षत्रिय न होने पर भी किया जाना चाहिए। “जब तक ये नाम रहेंगे, हिन्दू लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को जन्म पर आधारित उच्च और नीच के, ऊपर से नीचे के वर्गीकरण के विषय में सोचते रहेंगे और उसके अनुसार कार्य करते रहेंगे। उन्होंने चातुर्वण्य की सामाजिक व्यवस्था का एक अव्यावहारिक व हानिकारक अभ्यास के रूप में तिरस्कार किया। “

उसी प्रकार उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर शंका की। नाम चाहे कुछ भी हो इतना निश्चित है कि कांग्रेस हिन्दू पूंजीपतियों द्वारा निर्मित मध्यम वर्ग हिन्दूओं का तंत्र है जिसका लक्ष्य भारतीयों को स्वतंत्र बनाना नहीं बल्कि ब्रिटिश नियंत्रण से स्वतंत्र होना और ब्रिटिश द्वारा अधिग्रहित शक्ति के स्थानों का अधिग्रहण करना है।

यदि कांग्रेस उस स्वतंत्रता को पा गया, जिसे वह पाना चाहता है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दू दलितों के साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा कि वे अतीत में करते आये हैं।” उनके अनुसार भारत एक राजनैतिक क्रांति से गुजरने के लिये यथोचित रूप से परिपक्व नहीं था। सामाजिक परिवर्तन के संतोषजनक स्तर के बाद ही राजनैतिक स्वतंत्रता समतावादी समाज को उत्पन्न करेगी।

अतः वे पहले सामाजिक आन्दोलन चाहते थे और राजनैतिक आन्दोलन या पीड़ित वर्गों को शक्तिशाली बनाने के लिए पृथक निर्वाचन मण्डल को पाना चाहते थे और राष्ट्र की राजनैतिक स्वतंत्रता को बाद में पाना चाहते थे | अन्यथा उन्हें भय था कि उच्च वर्गीय हिन्दू शक्ति का प्रयोग पीड़ित वर्गों को प्रताड़ित करने के लिए कर सकते हैं। परंतु भारत ने अपने लोगों को प्रत्येक व्यक्ति को बंधु के रूप में और समान रूप में मानने के लिए तैयार किये बिना ही स्वतंत्रता प्राप्त कर ली ।

अतः पीड़ित वर्गों का उत्पीड़न और शोषण होता रहा और वे पीड़ित वर्गों को अपनी मुक्ति के लिए उत्तेजित करने के लिए शिक्षित और व्यवस्थित करने को मजबूर हुए।

अम्बेडकर ने इतिहास से यह सीखा कि धार्मिक आन्दोलन पीड़ित वर्गों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए मजबूत बनाते हैं। यह शुद्धतावाद ही था जिसने अमरीकी स्वतंत्रता का युद्ध जीता। शुद्धता एक धार्मिक आन्दोलन था । यही बात मुस्लिम साम्राज्य के लिए भी सही है। एक राजनैतिक शक्ति बनने के पहले अरब एक संपूर्ण धार्मिक आन्दोलन से गुजरे थे जो कि पैगंबर मुहम्मद साहब द्वारा शुरू किया गया था।

भारतीय इतिहास भी इसी निष्कर्ष को दिखाता है । चंद्रगुप्त के राजनैतिक आन्दोलन के पूर्व बुद्ध का धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन हुआ था। शिवाजी द्वारा किये गये राजनीतिक आन्दोलन के पूर्व महाराष्ट्र के संतों द्वारा धार्मिक और सामाजिक सुधार किये गये थे। सिखों के राजनैतिक आन्दोलन के पूर्व गुरु नानक द्वारा धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन किये गये थे।”

बुद्ध के मार्ग की सैद्धांतिक और व्यावहारिक शक्तियों यथा मानवतावादी एवं प्रभुत्व रहित व्यवहार और मत संबंधी नियंत्रण के निषेध को जानने के बाद उन्होंने इसे अपना लिया। अम्बेडकर ने कई लोगों से परामर्श किया, राष्ट्रीय नेताओं और सुधारकों को धर्म परिवर्तन के विचार से डराया, इतने दिनों इंतजार किया और अंततः 15 अक्टूबर, 1956 को उन्होंने 8,00,000 अनुयायियों के साथ स्वयं को नागपुर में दीक्षाभूमि में बुद्ध धर्म में परिवर्तित कर लिया।

इस समय उन्होंने हिन्दुत्व से पूर्ण संबंध विच्छेद के विचार से 22 शपथों को निर्धारित किया। परिवर्तित लोगों ने इस शपथ को लिया कि वे हिन्दू विश्वासों और व्यवहारों में कोई आस्था नहीं रखेंगे। इन शपथों ने बुद्ध की शिक्षाओं में आस्था जताई, नैतिक जीवन को पालन करने का निर्धारण किया और अंधविश्वासों नाशवान् व अर्थहीन धार्मिक कर्मकांडों को अस्वीकार करने की मांग की।

उन्होंने अपने आलाचकों को उत्तर दिया, “मेरा धार्मिक परिवर्तन किसी भौतिक अभिप्रायः से प्रेरित नहीं है मेरे धार्मिक परिवर्तन में आध्यात्मिक भावना के अतिरिक्त अन्य कोई भावना अंतर्निहित नहीं है। हिन्दूवाद मेरे अंतःकरण को प्रभावित नहीं करता। मेरा आत्म सम्मान हिन्दुत्व को समाहित नहीं कर सकता।”

उन लोगों के विचारों के लिये चिंतित मत हो, जो भौतिक लाभ के लिए धार्मिक परिवर्तन के विचार का मूर्खतापूर्वक तिरस्कार करते हैं। तुम क्यों ऐसे धर्म के अंतर्गत रहो जिसने तुम्हें सम्मान, धन, भोजन, और आवास से वंचित किया है?” धर्म परिवर्तन समारोह के दो महीने बाद अम्बेडकर की मृत्यु हो गई । तथापि उन्होंने जिस धार्मिक आन्दोलन को जन्म दिया था वह पनपता रहा, और अब इसमें लगभग चालीस लाख बौद्ध शामिल हैं। –

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