महावीरप्रसाद द्विवेदी की आलोचना-दृष्टि
महावीरप्रसाद द्विवेदी हिंदी आलोचना के शिखर पुरूषों में से हैं। वे हिंदी के विशाल आलोचना-भवन की सुदृढ़ नींव के संस्थापक हैं। परंपरागत साहित्यिक धारणाओं तथा आदर्शों की उपेक्षा करके उन्होंने ही सर्वप्रथम चिंतन तथा मनन के आधार पर निजी विचारों का प्रतिपादन करके परंपरागत आलोचना की शैली तथा विषय तत्त्व में परिवर्तन उपस्थित किया।
महावीरप्रसाद द्विवेदी की आलोचना
यद्यपि उनकी आलोचना आज के मानदंडों के विचार से आधुनिक नहीं कही जाएगी किंतु वह हिंदी के लिए पहली आधुनिक आलोचना अवश्य थी। वे सच्चे आलोचक की भाँति कभी भी अपने युग की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं से अलग नहीं रहे। उन्होंने हिंदी की आवश्यकताओं को समझकर अपनी आलोचना को उन पर आधारित किया तथा गुण-दोष विवेचन की पक्षपातपूर्ण शैली की अपेक्षा चिंतन तथा पक्षपातहीन निर्णय करने का आदर्श प्रस्तुत किया।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी चूंकि संस्कृत के विद्वान थे, इसलिए उन्होंने आलोचनात्मक लेखन का आरंभ संस्कृत के कवियों और उनकी रचनाओं पर विचार करने से ही किया। आलोचना के संदर्भ में द्विवेदी जी के विचार निश्चित थे। उन्होंने हिंदी कालिदास की समालोचना में सुबंधु की ‘वासवदत्ता‘ के निम्नांकित श्लोक को उद्धृत करके आलोचना के अर्थ और प्रयोजन के संदर्भ में दर्शाया था
‘गुणिनापि निजरूपप्रतिपतिः परत एवं संभवति
स्वमहिम दर्शनमक्ष्णोमुर्कुरकरतले जायते यस्मात।’
अपने इसी विचार को उन्होंने ‘कालिदास और उनकी कविता’ में स्पष्ट करते हुए लिखा कि- ‘कवि या ग्रंथकार जिस मतलब से ग्रंथ रचना करता है उससे सर्वसाधारण को परिचित कराने वाले आलोचक की बड़ी ही जरूरत होती है। ऐसे समालोचकों की समालोचना से साहित्य की विशेष उन्नति होती है और कवियों के गूढाशय मामूली आदमियों की समझ में आ जाते हैं।
कालिदास की शकुंतला, प्रियंवदा और अनसूया में क्या भेद है? उनके स्वभाव चित्रण में कवि ने कौन-कौन सी खूबियाँ रखी हैं? उनसे क्या-क्या शिक्षा मिलती है? ये बातें सब लोगों के ध्यान में नहीं हो सकती अतएव वे उनसे लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। इसे थोड़ी हानि न समझिए। इससे कवि के उद्देश्य का अधिकांश हिस्सा व्यर्थ हो जाता है। योग्य समालोचक समाज को इस हानि से बचाने की चेष्टा करता है।‘ (कालिदास और उनकी कविता पृष्ठ-13) द्विवेदी जी की की आलोचना में मूल संदर्भ यही है कि वे रचना को जन सामान्य से परिचित कराते हैं।
महावीरप्रसाद द्विवेदी ने आलोचना के क्षेत्र में मूल्यवादी दृष्टिकोण को ही अपनाया है। उन्होंने अपनी आलोचना का आधार समष्टिगत, नैतिक एवं सौंदर्य मूल्यों को बनाया है। भारतेंदु युगीन आलोचकों की तुलना में इनकी आलोचना में मूल्यात्मक विकास है और यह विकास एक ओर वैयक्तिक मूल्यों के आधार पर है तो दूसरी ओर स्पष्ट रूप से सौंदर्य मूल्यों की चेतना में दृष्टिगोचर होता है। विचार स्वातंत्र्य को वैयक्तिक मूल्य के रूप में स्वीकार करने के बावजूद द्विवेदी जी इसमें उच्छृखलता और व्यक्ति-वैचित्र्य को स्वीकार नहीं करते हैं।।
परंपरा-विच्छिन्न होना उनकी सुरूचि के विपरीत था। सुधारवादी प्रवृत्ति के कारण द्विवेदी जी की आलोचना में समष्टिगत मूल्यों का महत्त्व दिखता है। रीतिकालीन वैयक्तिक मूल्यों के वे विरोधी थे और काव्य की विषय वस्तु के लिए अब उन्हें नायिका-भेद स्वीकार नहीं था, इसलिए उन्होंने कहा कि कविता किसी भी विषय पर लिखी जा सकती है केवल उसमें मनोरंजन और उपदेश होना अनिवार्य है।
उनका मानना है कि कविता का विषय मनोरंजक और उपदेश-जनक होना चाहिए। यमुना के किनारे-किनारे केलि-कौतूहल का अद्भुत वर्णन बहुत हो चुका। अब चींटी से लेकर हाथी पर्यंत पशु, भिक्षुक से लेकर राजा पर्यंत मनुष्य, बिंदु से लेकर समुद्र पर्यंत जल, अनंत आकाश, अनंत पृथ्वी, अनंत पर्वत सभी पर कविता हो सकती है, सभी से उपदेश मिल सकता है और सभी के वर्णन से मनोरंजन हो सकता है।
राष्ट्र-प्रेम, संस्कृत-प्रेम और राष्ट्रभाषा हिंदी प्रेम को उन्होंने समष्टिगत मूल्यों के रूप में स्वीकृति प्रदान की है। राष्ट्रप्रेम की भावना उस समय के युग की मांग थी। इसीलिए द्विवेदी जी ने भी राष्ट्रप्रेम को अपनी आलोचना का आधार बनाया। बाबू शिवप्रसाद गुप्त की ‘पृथ्वी-प्रदक्षिणा’ की आलोचना द्विवेदी जी ने राष्ट्रप्रेम के आधार पर करते हुए कहा है कि जिस पाठक ने इस पुस्तक से मातृभूमि के प्रति भक्ति का भाव ग्रहण न किया, वह जीवन्मृत ही है- ‘रही शिक्षा-प्राप्ति की बात।
सो इस विषय में तो हम इस पुस्तक को अद्वितीय ही समझते हैं। इसे पढ़कर भी जिस अभागे के हृदय में अपनी मातृभाषा और अपनी मातृभूमि के विषय में भक्ति की धारा न बही, स्त्रोत का भी प्रवाह न बह उठा उसे जीवन्मृत ही समझना चाहिए।’ (समालोचना समुच्चय, पृ.76)
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी मूलतः एक शास्त्रीय आलोचक थे। उन्होंने परंपरायुक्त साहित्यिक प्रतिमानों को उदार भावना से ग्रहण किया है। उनकी आलोचना में आचार्यत्व के प्रकृति के अनुकूल ही खंडन-मंडन की प्रवृति, शास्त्रार्थ की क्षमता व टीका तथा सूक्ति पद्धति का स्वरूप लक्षित होता है। द्विवेदी जी ने अपनी आलोचना में नवीन उद्भावानाओं के साथ ही पारंपरिक सैद्धांतिक आलोचना का भी ध्यान रखा है।
इनकी सैद्धांतिक आलोचना वस्तुतः काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण और ध्वन्यालोक जैसे संस्कृत ग्रंथों के अनुकूल ही है। ‘कवि बनने के सापेक्ष साधन’, ‘कवि और कविता’ में उन्होंने शास्त्रीय निरूपण किया तो ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ जैसे आलोचनात्मक निबंधों में काव्य के प्राचीन उपाख्यानों को नवीन दृष्टि से सुसज्जित और चित्रित करने के प्रेरणा दी; इसी प्रेरणा का परिणाम मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’ है। ‘कवि और कविता’, ‘कविता तथा कवि कर्तव्य’ ऐसे निबंध है जिससे आचार्य द्विवेदी की काव्य-विषयक धारणाओं का पता चलता है।
द्विवेदी जी यथार्थ को काव्य का आवश्यक तत्त्व मानते हैं। यथार्थ से उनका तात्पर्य कवि द्वारा अनुभूत सत्य से है। इसी में उन्होंने कवियों के लिए ‘प्रकृति विकास को खूब ध्यान से देखने’ और प्रकृति पर्यालोचन के सिवा मानव स्वभाव की आलोचना को आवश्यक माना है। उनके द्वारा व्याख्यायित सूत्र को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ‘प्रकृति विकास’ पर यही ध्यान और ‘मानव-स्वभाव’ की यही आलोचना आगे चलकर पंडित रामचंद्र शुक्ल के प्रकृति प्रेम और करूणा में दिखलाई पड़ती है।
मानव स्वभाव की आलोचना को आवश्यक मानते हुए द्विवेदी जी ने लिखा है कि .जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातो का यथेष्ट ज्ञान नहीं, वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता’ (ज्ञानमासी, पृ.-111) ,
द्विवेदी जी की आलोचना के मूल में शास्त्र के स्थितिशील तत्वों की उपेक्षा, प्राचीनता से उचित का ग्रहण और अनुचित का त्याग, नवीनता से विवेकपूर्ण स्वीकृति, समाज संसार को महत्त्व, उपयोगिता, सोद्देश्यता, सदाशयता स्वाभाविकता, सरसता और प्रभावोत्पादन की क्षमता को काव्य के आवश्यक तत्वों के रूप में प्रतिष्ठित करने का आग्रह आदि है।
इसी दृष्टि के आधार पर उन्होंने भारतेंदु युग के लेखकों, मिश्रबंधुओं के ‘हिंदी नवरत्न’ तथा मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ की आलोचना की है। भारत-भारती की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा है कि यह काव्य वर्तमान हिंदी साहित्य में युगांतर उत्पन्न करने वाला है। वर्तमान और भावी कवियों के लिए यह आदर्श का काम देता है। यह सोते हुए को जगाने वाला है, आत्म विस्मृतों को पूर्ण स्मृति में लाने वाला है।
इसमें वह संजीवनी शक्ति है, जिसकी प्राप्ति हिंदी के और किसी-काव्य में नहीं हो सकती। वे उन्हीं कवियों को श्रेष्ठ मानते हैं जो पवित्र भावों और विचारों का चित्रण अपने काव्य में करते हैं। ‘हिंदी नवरत्न’ की आलोचना करते हुए द्विवेदी जी ने अपने पवित्र भावों को प्रस्तुत करने वाले कवियों को ही महाकवि मानने का मत प्रस्तुत किया है।
बिहारी को रत्न मानने का विरोध करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘लेखकों ने जिसे महाकवि की उपाधि दी है उसे उस तरह तालाब के किनारे मोछ मरोड़ते हुए खड़ा करना और यह कहना कि नरों और नारियों, दोनों को स्नान करते समय, देखने ही के लिए ये यहाँ आए हैं, बहुत ही अनुचित जान पड़ता है।'(समालोचना समुच्च्य, पृ.-206)।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की समालोचनाओं का सैद्धांतिक पक्ष तो अत्यधिक उभरा हुआ था ही, किंतु उसका व्यावहारिक पक्ष भी कम प्रभावी नहीं था। उनकी व्यावहारिक समालोचनाओं से व्याख्या, विश्लेषण और निर्णय की अपूर्व प्रज्ञा प्राप्त होती है। उनकी व्यावहारिक आलोचना पद्धति में प्रायः नवीन तथा पुरातन दोनों प्रकार की शैलियों के रूप मिलते हैं।
उन्होंने संस्कृत काल की उन पद्धतियों को भी अपनाया, जो रीतिकाल में अपनाई गई थीं तथा पाश्चात्य शैलियों को भी अपनाया जो अंग्रेजी की देन थीं। इनके व्यावहारिक आलोचना की दो कोटियाँ हैं- पहला प्राचीन कवियों के संबंध में लिखी गई आलोचनाएँ और दूसरा समकालीन कवियों और लेखकों की वृत्तियों की आलोचनाएँ। प्राचीन कवियों की आलोचनाओं के संदर्भ में द्विवेदी जी ने ‘विक्रमांकदेव चरित चर्चा, नैषधचरित चर्चा, ‘कालिदास’, ‘कालिदास की निरंकुशता’ आदि जैसे बड़े-बड़े निबंध लिखकर प्राचीन कवियों की कृतियों की आलोचना का सूत्रपात किया।
उन्होंने समकालीन साहित्यकारों की कृतियों पर अलग से कोई आलोचना ग्रंथ नहीं लिखा किंतु वे पत्र-पत्रिकाओं में विशेषतया ‘सरस्वती’ में, जिसके वे संपादक थे- छोटी-छोटी रिव्यू लिखा करते थे। जिन ग्रंथों में अभारतीयता का भाव होता था, जिनकी भाषा गंदी होती थी, उनके लेखकों को द्विवेदी जी बड़ी खरी-खोटी सुनाते थे, लेकिन ऐसा उन्हीं के साथ करते थे जो पंडित बनते थे। नए लोगों की गलतियों का वे स्वयं परिश्रम से परिमार्जन करते थे।
द्विवेदी जी लोकवादी व आदर्शवादी आलोचक थे, जो साहित्य की कलात्मकता को महत्त्व देते हुए भी नीतिवादिता की प्रवृत्ति का परित्याग नहीं कर सकते थे। वे अपनी साहित्यालोचना द्वारा समाज में सात्विक आदर्श-भाव और जनसामान्य के प्रति सहानुभूति को बढ़ाना चाहते थे और मानवीय हृदय में पलने वाली हीन भावनाओं को कम करने की कोशिश में थे। 1903 ई. में ‘सरस्वती’ का संपादन भार ग्रहण करने के बाद से उनका संबंध हिंदी साहित्य से निरंतर गाढ़ा होता गया।
जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने हिंदी साहित्य को आलोचना का विषय बनाया और अपनी आलोचना के माध्यम से उसमें नवचेतना के प्रसार के लिए अथक प्रयास किया। जनता को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए द्विवेदी जी ने सच्ची और उचित आलोचना की। उस समय पत्र-पत्रिकाओं का नया युग था, पत्रों और पुस्तकों के नए पाठक तथा लेखक थे। सभी की बुद्धि अपरिपक्व और सभी को पथप्रदर्शक की आवश्यकता थी। युग के सामयिक मांग को द्विवेदी जी ने स्वीकार किया।
यही कारण है कि उनकी अधिकांश रचनाएँ पत्रिकाओं के लेख रूप में ही प्रकाशित हुईं। वे सत्य की अभिव्यंजना करके उपेक्षा, निंदा, अनादर, गाली आदि सभी कुछ सहने को प्रस्तुत थे। उनकी आलोचनाओं की प्रमुख विशेषता हिंदी के प्रति पूजा भाव, आराधना और तप में है। कोरा आलोचक होने और अपनी साधना के बल पर युग का मानचित्र परिवर्तित कर देने में कौड़ी-मुहर का-सा अंतर है। (महावीरप्रसाद द्विवेदी: डॉ. उदयभानु सिंह, पृ.-136)। द्विवेदी जी साहित्य और मनुष्य में गहरा संबंध मानते हैं।
डॉ. उदयभानुसिंह ने हिंदी साहित्य सम्मेलन के तेरहवें अधिवेशन के अवसर पर स्वागताध्यक्ष पद से दिए गए उनके भाषण के आधार पर लिखा है कि ‘द्विवेदी जी का कथन है कि साहित्य ऐसा होना चाहिए जिसके आकलन से बहुदर्शिता बढ़े, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकार की संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाए और आत्म गौरव की उद्भावना हो।’ (महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग, पृ.-121)
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती का संपादन करते हुए संपादकीय टिप्पणियों, स्वतंत्र समालोचनात्मक निबंधों, साहित्यिक कवि चर्चाओं, सामाजिक विधारधाराओं, पुनरूत्थानवादी व्याख्या और परंपरागत सैद्धान्तिक निरूपणों को लेकर जिस आलोचना साहित्य का निर्माण किया है, उसका स्थायी महत्त्व है। ‘सरस्वती’ के संपादन से खड़ी बोली आंदोलन को बहुत महत्त्व मिला।
भारतेंदु युग की आलोचना के केंद्र में ‘नाटक’ दिखता है जबकि द्विवेदी जी ने अपनी आलोचना का केंद्र ‘कविता’ बनाया। इसका प्रमुख कारण यह था कि द्विवेदी युग में कविता को प्रमुखता मिलने लगी थी, साथ ही कविता की भाषा को लेकर समस्या खड़ी हो गई थी। भाषा को लेकर समस्या यह थी कि कविता की भाषा खड़ी बोली हो या ब्रजभाषा। द्विवेदी जी ने भाषा के रूप में खड़ी बोली का न केवल समर्थन किया बल्कि अपनी पत्रिका सरस्वती के माध्यम से जोरदार वकालत भी की।
खड़ी बोली को अपनाने के पीछे उनका जनवादी आग्रह था। उनका मानना था कि ब्रजभाषा एक क्षेत्र विशेष तक सीमित हो गई थी और खड़ी बोली बोलचाल की भाषा बन गई थी। बोलचाल की भाषा होने के कारण ही उन्होंने खड़ी बोली में कविता-रचना का सुझाव देते हुए लिखा कि ‘बोलचात की भाषा में कविता अवश्य होनी चाहिए। कोई कारण नहीं कि हम लोग बोले एक भाषा और कविता दूसरी भाषा में हो बातचीत के समय जो जिस भाषा में अपने विचार प्रकट करता है वह यदि उसी भाषा में कविता भी करे तो और भी उत्तम।
ब्रजभाषा बहुत काल से कविता में प्रयुक्त होती आई है। पर एक अथवा दो जिले की भाषा पर देश भर के निवासियों का प्रेम बहुत दिन तक नहीं रह सकता।’ (साहित्यालाप, पृ.-61)
द्विवेदी जी काव्य में सरल भाषा लिखने के पक्षपाती थे, साथ ही वे व्याकरण के नियम और भाषा संस्कार पर भी बल देते थे। ‘निराला जी ने आचार्य द्विवेदी के युग निर्माता व्यक्तित्व को काव्य की भाषा में प्रस्तुत करते हुए कहा है कि खड़ी बोली के घर को साहित्य के विस्तृत प्रांगण में स्थापित कर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने मंत्रपाठ द्वारा देश के नवयुवक समुदाय को एक अत्यंत शुभ मुहूर्त में आमंत्रित किया और इस घर में कविता की प्राण प्रतिष्ठा की।
हिंदी साहित्य की वर्तमान धारा पूर्ण ज्ञान के महासागर की ओर जितना ही आगे बढ़ती जाएगी, लोग उतना ही उनके महत्त्व को समझेंगे।’ (आलोचना के सौ बरसः भाग-1, संपादक-अरविंद त्रिपाठी के पृष्ठ-12 से उद्धृत)। व्याकरण सम्मत भाषा के बावजूद वे क्लिष्ट भाषा और दूरारूढ़ कल्पना को वे काव्य का दोष समझते वे थे। उन्होंने काव्य में छंदों का सापेक्षिक महत्त्व ही स्वीकार किया है क्योंकि कविता का अच्छा या बुरा होना विशेषतः अच्छे अर्थ और रस बाहुल्य पर निर्भर करता है।
मुहावरे को भी वे अपनी भाषा में महत्त्व देते थे। उनके अनुसार’मुहावरे का भी विचार रखना चाहिए, क्योंकि मुहावरे ही भाषा का प्राण है।’ (रसज्ञ रंजन, पृ.-18)
द्विवेदी जी एक प्रगतिशील विचारक भी थे। उनके इस विचार को ‘कविता का भविष्य’ निबंध में देखा जा सकता है। उनके सामाजिक चेतना की इसी प्रगतिवादी दृष्टि के कारण डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है’महावीरप्रसाद द्विवेदी की सामाजिक चेतना की तुलना 19वीं सदी के पाश्चात्य प्रगतिशील विचारकों की सामाजिक चेतना से की जाए तो देखा जाएगा कि बीसवीं सदी का आरंभ होते-होते हिंदी बुद्धिजीवियों की सामाजिक चेतना तेजी से बदल रही है और पूर्ववर्ती पाश्चात्य विचारकों की चेतना के समानांतर आगे बढ़ रही है।
यही कारण है कि इतिहास और समाजशास्त्र के विवेचन में द्विवेदी जी की विचारधारा इतनी आधुनिक और वैज्ञानिक दिखाई देती है और दार्शनिक विषयों का विवेचन वे नवीन बुद्धिवादी तार्किक दृष्टि से प्रस्तुत करते हैं। यह स्थिति दर्शन और इतिहास के क्षेत्र में ही नहीं है, इनके साथ साहित्य के क्षेत्र में भी वही चेतना सक्रिय है।’ (महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृष्ठ-227)। इसी संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह भी इन्हें लोकवादी समीक्षक मानते हैं।
इस तरह कहा जा सकता है कि द्विवेदी जी की आलोचना दृष्टि उस पूरे युग की सर्जनात्मक चेतना की प्रेरक उन्नायक, विधायक एवं परिष्कारक के रूप में दिखती है। वे वैयक्तिक मूल्यों के खिलाफ और समष्टिगत मूल्यों के आग्रही थे, इसलिए उन्होंने रीतिकालीन वैयक्तिक मूल्यों को खारिज किया है। उन्होंने हिंदी आलोचना को नैतिक स्तर प्रदान करते हुए काव्य में मंगल भाव को अपरिहार्य माना है।
उन्होंने अपनी आलोचना के द्वारा विशिष्ट का अध्ययन नहीं किया है बल्कि सामान्य को विशिष्ट की दिशा में अग्रसर किया है। निःसंदेह रूप से कहा जा सकता है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी हिंदी आलोचना के आधार स्तंभ हैं, जिन्होंने हिंदी के शैशवकालीन साहित्य को अपनी समष्टिगत नैतिक आदर्शों और परंपरा तथा नवीनता से समावेश कर चलना सिखाया। अतः वे अपने युग के सबसे बड़े आलोचक थे।
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