मीत सुजान अनीति करौ जिन | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

मीत सुजान अनीति करौ जिन | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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मीत सुजान अनीति करौ जिन, हा हा न हूजियै मोहि अमोही।

दीठि कौं और कहूँ नहिं ठौर, फिरि दृग रावरे रूप की दोही|| 

एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान बटोही |

हौ घनआनन्द जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही ||

मीत सुजान अनीति करौ

प्रसंग :— यह पद्य रीतिकाल के रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि और प्रमुख कवि घनानन्द – विरचित ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। प्रिय द्वारा विरक्त होने पर प्रेमी की दशा बड़ी ही दयनीय हो जाया करती है। उसका मन आठों याम प्रिय की निष्ठुरता के बारे में सोच-सोच हाहाकार करता रहता है। प्रेमी मन की ऐसी ही स्थिति का चित्रण करते हुए कवि कह रहा है-

व्याख्या :— हे प्रिय सुजान ! प्राणप्रिय! मैं हाहाकार करके कह रहा हूँ कि मेरे प्रति निष्ठुर -निर्मोही बनने की अनीति मत करो! अर्थात् मैं तन-मन से तुमसे प्रेम करता हूँ। तुम्हें भी मुझसे प्रेम था। प्रेमपाय की नीति यही है कि हर हाल में प्रेम का निर्वाह किया जाए। मेरी दयनीय दशा पर तरस खाकर तुम भी प्रेमपाय की नीति का पालने करो, अनीति का नहीं ।

तुम्हारे सुन्दर रूप-यौवन की दुहाई खाकर कहता हूँ कि तुम्हें छोड़कर मेरी नजर को कहीं भी अन्यत्र कोई ठौर ठिकाना नहीं है। अर्थात् तुम्हारे प्रेम में पागल मेरी आँखें केवल तुम्हें ही देखना चाहती हैं, और किसी पर कभी टिकती नहीं। मेरे क्षीण होते तन में प्राण रूपी यात्री तुम्हारे प्रेम और विश्वास की लाठी का सहारा लेकर ही टिके हुए हैं। अर्थात् जिस दिन मुझसे तुम्हारे प्रेम और विश्वास का आश्रय भी छिन जाएगा. उस दिन यह प्राण भी मेरे शरीर का साथ छोड़ देंगे। तुम्हारे अभाव में मैं जीवित नहीं रह सकता।

कवि घनानन्द कहते हैं कि तुम्हारी प्रेम रूपी बादल ही मेरे जीवन के लिए आनन्ददायक है। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारा रूप सौन्दर्य ही मेरे लिए संजीवनी के समान है। हे दैव। मेरी ओर से मुख मोड़ कर क्यों अपने रूप सौन्दर्य के प्यासे प्राणों को प्यासे ही मर जाने देना चाहते हो अर्थात् पहले की तरह ही प्रेम से भरकर मुझे दर्शन दो, और मेरे प्यासे प्राणों की प्यास बुझाकर संजीवनी पान के समय मेरे मुर्दा हो रहे जीवन को नये प्राण प्रदान करो। यही प्रेम की वास्तविक रीति है। इसका पालन करना हर प्रेमी का कर्तव्य होता हैं। निष्ठुर -निर्मोही बनकर मुँह फेर लेना और प्रिय के प्राणों का गाहक बन जाना घोर अनीति है।

विशेष

1. प्रेम में नीति मर्यादा का पालन करना प्रेमियों के लिए परम आकार चितारा गया है। ऐसा न करना अनीति कही गई है।

2. पद्य में श्लेष, वीप्सा, अनुप्रास, रूपक और दीपक आदि विविध अलंकार है।

3. भाषा भावानुरूपिणी, माधुर्य गुणयुक्त, मुहावरेदार और संगीतात्मक है। सतत प्रवाहमयता भी उल्लेख्य है।

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