मीराबाई की भक्ति-भावना | मीराबाई की कृष्ण भक्ति के स्वरूप की विवेचना कीजिए

मीराबाई की भक्ति-भावना | मीराबाई की कृष्ण भक्ति के स्वरूप की विवेचना कीजिए

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मीराबाई की भक्ति-भावना :– भारतीय परंपरा में भक्ति को प्रेमरूप एवं अमृतस्वरूप कहा गया है। इसी प्रेमा-भक्ति की निष्ठा को लेकर मीरा भक्तिकाव्य में उभरती हैं। मीरा का सीधा संबंध किसी वैष्णव सम्प्रदाय से नहीं रहा- पर गिरधरनागर, वृंदावन बिहारी को अपना आराध्य मानकर उन्होंने भक्ति की है। विशेष बात यह भी है कि मीरा में अन्य कृष्ण भक्त कवियों की भांति भक्त एवं कवि दोनों का मेल दिखाई देता है। किन्तु उनका कवि रूप उनके भक्त के रूप के सामने कम उभर पाया है।

 

मीरा की भक्ति में भगवान के प्रति विनय की भावना प्रबल है। घर-परिवार के लोगों के उपालम्भ, व्यंग्य, कष्ट, मीरा को और ताकत देते हैं। मीरा की भक्ति में अबला की दयनीयता नहीं है- झेलने का साहस है।

मीराबाई की भक्ति-भावना

मीरा की भक्ति भावना में बचपन से ही जिस माधुर्यभाव के बीज थे- उनका अंकुरण ही आगे चलकर हुआ। विवाह के बाद मीरा ने अपने पति भोजराज को नटवर कृष्ण के रूप में ही देखा और विधवा हो जाने पर तो कृष्ण के विरह में वे निरंतर बेचैन रही हैं। मीराबाई की भक्ति-भावना

साथ ही गोपीभाव या ब्रज गोपियों के भक्ति-भाव को ही मीरा ने अपना आदर्श माना । फलतः उनके पदों में माधुर्य भाव की भक्ति का साकार सागर उमड़ पड़ा। कृष्णप्रेम, कृष्ण सौंदर्य, कृष्ण लीला आदि विषयों को अपने पदों में प्रधानता देकर मीरा ने मधुर-रस और मधुरभक्ति की मनोरम व्यंजना की है। उन्होंने गिरधर या लोकरक्षक ब्रह्म को अपने पति (रक्षक) के रूप में देखा : मीराबाई की भक्ति-भावना

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई जाके सिर मोर मुकुट, मेरी पति सोई।

 

मीरा में हृदय की इतनी अधिक विशालता है कि वे राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं मानती हैं। राम का रत्न पाकर तो मीरा का भक्त मन सब कुछ पा जाने का अनुभव करता है। यथा;

 

पायो जी मैंने रामरतन धन पायो।

वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु किरपा करि अपनायो ।

जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सबै खोवायो।

खरचै नहि कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।

सत की नाग खेवाहिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस गायो।।

ने इस पद का भाव है कि हमें रामरूपी रत्न मिल गया है। यह बहुमूल्य रत्न गुरु कृपा करके दिया है। यह वह वैभव है-जिसे मैंने हर जन्म में पाना चाहा था और वह अब मिल गया है। यह सम्पत्ति प्राप्त कर संसार के सब कष्ट कट गए हैं। यह ऐसी पूँजी है जो खर्च करने पर कम न होकर बढ़ती है। इसे चोर चुरा नहीं सकता- बल्कि प्रतिदिन सवाई होती रहती है।

सत्य की मेरी इस नाव का खेवन भगवान है। इसलिए मैं भव सागर पार हो गई हूँ। मेरे स्वामी वे गिरधर हैं जो इन्द्र जैसे तानाशाह का गर्व चूर करते हुए सभी जीवों की रक्षा करते हैं। मैं इसी विश्वास मैं उनके गुणगान करती हुई थकती नहीं हूँ।

मीरा का ‘जोगी’ ब्रह्म गगन मण्डल में रहता है- मुक्त विचरता है। किन्तु मीरा को ब्रह्म का सगुण-साकार रूप ही ज्यादा भाता है। बल्लभ सम्प्रदाय के भक्तों की कीर्तन-भजन पद्धति का रंग मीरा पर पूरा चढ़ा हुआ है। मीरा अच्छी तरह जानती है कि इष्ट या आराध्य के प्रति श्रद्धा मिश्रित अनुराग ही भक्ति है। मीराबाई की भक्ति-भावना

भक्ति के तीन उपादान हैं- भक्त, भावना और भक्ति । भक्त आश्रय है- भगवान आलंबन और भावना दोनों के बीच संबंध शक्ति है। भक्त अपने ईश्वर को दास्य, वात्सल्य, सखा दाम्पत्य आदि भावों से भजता है।

मीरा नवधा-भक्ति की ओर जाती हैं- पर उनका मन रागानुगा, भक्ति या माधुर्य भाव की भक्ति में ही अधिक आनंद पाता है। श्रद्धा, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास, सखा और आत्मनिवेदन भाव की भक्ति को नवधा भक्ति कहते हैं- इस भक्ति के सभी गुण प्रायः मीरा में मिल जाते हैं। मीरा का भक्ति भाव गोपी भाव का है। मीराबाई की भक्ति-भावना

दक्षिण भारत की भक्तिन आंडाल में कृष्ण भक्ति भाव की मीरा से गहरी समानता है। कहा जाता है कि मीरा अपने को ललिता नाम की गोपी का अवतार भी समझती थीं। ध्यान रखना होगा कि मीरा में माधुर्य भक्ति का पोषण दास्य-भक्ति में प्राप्त विनय-निवेदन आदि भाव में से हुआ है।

पर सूर, तुलसी की भाँति उन्होंने दीनता के भाव को नहीं अपनाया है। वे अजामिल, गणिका, सदना, कसाई आदि भक्तों का संकेत भर कराती हैं दास्य-भाव में रमती नहीं है। मीरा की भक्ति-भावना में दाम्पत्य प्रेम की स्थापना दृढ़ता से मिलती है। प्रेम के विविध रूपों में पति-पत्नी भाव का प्रेम अधिक स्थिर होता है। पति-पत्नी भाव की यह प्रीति ही मधुर रस का आधार है। मीरा के भक्ति-भाव की मूल धुरी में प्रेम का समर्पण है : । ।

मण थे परस हरि के चरण।। टेक।।

सुभग सीतल कँवल कोमल जगत ज्वाला हरण।।

इण चरण प्रहलाद परस्याँ, इन्द्र पदवी धरण।

इण चरण ध्रुव अटल करस्याँ, सरण असरण सरण ।

इण चरण ब्रहमाण्ड भेटयाँ, नरवसिखाँ सिरी भरण।

इण चरण कालियाँ नाथ्या, गोपलीला, करण।

इण चरण गोवरधन धारयाँ, गरब मधवा हरण।

दासि मीरा लाल गिरधर, अगम तारा तरण।

इस पद का भावार्थ यह है कि हे मन । तू निरंतर कष्टों का हरण करने वाले ब्रहम के चरणों का स्पर्श कर । विष्णु के इन चरणों की महिमा अनंत है। ये चरण सुंदर शीतल तथा कमल की तरह कोमल हैं और संसार के तापों से मुक्ति देते हैं

इन चरणों का स्पर्श करके ही भक्त प्रहलाद को इन्द्र के समान ऊँचा पद प्राप्त हुआ। इन चरणों की शक्ति ने ही भक्त ध्रुव की भक्ति को अमरता प्रदान की। भगवान के चरण अनाथों को शरण देने वाले हैं। इन्हीं चरणों ने संसार की सृष्टि की है एवं उसे शोभा श्री दी है।

इन चरणों ने ही काली नाग को वश में करके जन-मन को भय मुक्त किया है। यही चरण गोपियों के साथ रास लीला करते हैं- यही चरण तानाशाहों के गर्व को चूर करने के लिए गोवर्धन पर्वत उंगली पर उठा लेते हैं। यह चरण ही भक्त के लिए नौका हैं-

इन्हीं चरणों की दासता में जीवन मीरा की भक्ति में विश्वास का स्वर पूरी तरह है। कहीं भी उनके मन में संशय या द्वन्द्व नहीं है। यह भक्तिभावना कठिन से कठिन समय में मानव को धैर्य का संदेश देती है।

मीरा और आंडाल की भक्ति-भावना की तुलना

मीरा और आंडाल दोनों ही कृष्ण भक्त कवयित्रियाँ हैं। दक्षिण भारत की आलवार भक्तिधारा का कोमल प्रवाह आंडाल (शताब्दी) के हृदय से प्रवाहित होता है और उत्तरी भारत की भक्ति-धारा को मीरा रस सिक्त कर देती हैं। दोनों ही कृष्ण के प्रेम-सौंदर्य संसार में एकाकार हो गई हैं।

मीरा के गिरधर नागर और आंडाल के ‘रंगनाथ’ छबीले मुरलीधर कृष्ण ही हैं। दोनों ही अपार्थिव आलौकिक विराट प्रेम भूमि पर खड़ी है और दोनों ही ‘गोपी-भाव’ से माधुर्य-भक्ति में तल्लीन हैं। दोनों की तन्मयता ने गीति परम्परा से भारतीय भक्ति साहित्य को समृद्ध किया है।

आंडाल की विचारधारा पर वैष्णव चिंतन की गहरी छाप है और मीरा पर भी। फिर मीरा के आविर्भावकाल तक रामानुजाचार्य की वैष्णव विचारधारा का प्रसार हो चुका था। आंडाल के पदों में (तिरूप्पावै संग्रह में) मीरा की भाँति ही दास्य-भाव की अभिव्यक्ति हुई है। यही दास्यभाव दोनों में आत्मदान प्रेरित एकाग्रता को जन्म देता है।

दोनों ही कृष्ण लीला के रस को मोक्ष के रस से अधिक महत्वपूर्ण मानती हैं। आंडाल की भावना तो वृंदावन में लतागुल्म बनने की है। वे गोपियों के चरणों की रौंदी हुई धूल बनने के लिए भी प्रार्थना करती हैं। मीरा और आंडाल के पदों का तात्विक विश्लेषण किया जाये तो हम दोनों में प्रेम की अटूट केन्द्रीयता और आनंद भाव की तन्मय शक्ति पाते हैं।

भक्ति का प्रपत्ति मार्ग दोनों ने अपनाया है। प्रश्न उठता है कि प्रपत्ति मार्ग क्या है ? आत्मनिवेदन को ही प्रपत्ति कहते हैं। भक्ति-मार्ग में इस शब्द का प्रयोग शरणागति के अर्थ में होता है। समस्त वैभव का परित्याग करके भगवान की शरण में जाना ही प्रपत्ति है।

इसके लक्षण हैं-भगवान के गुणों का वर्णन, पूर्ण समर्पण, दीनता के भाव से स्तुति, भगवान के रक्षक रूप पर दृढ़ वास मीरा और आंडाल में इन सभी भावनाओं के एक समान लक्षण मिलते हैं संक्षेप में, कह सकते हैं कि मीरा तथा आंडाल में अद्भुत समानताएँ हैं और दोनों ही भक्ति आंदोलन की सांस्कृतिक शक्ति की अखंडता को सामने लाती हैं।

वेदनानुभूति बनाम प्रेमानुभूति

मीरा की प्रेमानुभूति उनके भक्तिभाव का ही एक प्रबल रूप है। लेकिन यहाँ स्पष्ट रूप से यह जान लेना भी आवश्यक है- कि मीरा का प्रेम-अनुभव लौकिक और अलौकिक दोनों तरह के प्रभाव लिए हुए हैं। यह प्रेम कहीं भी वासना का पर्याय नहीं है इसमें, आत्मापरमात्मा के मिलन का रहस्यवाद है। भावना के क्षेत्र की रहस्य साधना मीरा के गोपी भाव का एक अपना ही लोक है। कृष्ण के अनेक रूपों के दर्शन मीरा बराबर करती हैं।

भागवत धर्म में भक्त का जो रूप प्रकट होता है-उसी रूप में विरहिणी मीरा दिखाई देती हैं। मीरा कहीं तो कृष्ण के प्रेम की चातकी हैं, कहीं विरह कोकिला, कहीं होली खेलने को व्याकुल गोपी, कहीं प्रेमोन्माद में नृत्य करती हुई प्रेयसी। मीरा का प्रेम इन्द्रियों से परे अतीन्द्रिय का स्पर्श करता है। सूफी प्रेम का दर्द भी कहीं-कहीं झलकता मिलता है ।

हेरी मैं तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद न जाणै कोय ।

घायल की गति घायल जाणै को जिण लाइं होय।

 

घायल हृदय में प्रेम का घाव गहरा है। इतना गहरा घाव न कबीर में है, न सूर तुलसी में। प्रेमघाव से घायल मीरा चिर सुहागिनी हैं प्रियतम की प्रतीक्षा में पूरी कर व्यतीत कर देती हैं- कृष्ण के बिना ‘सखी मेरी नींद नसाणी हो’ तक ही नहीं है- उनसे आगे हैं-यथा :

मीरा के में है, न रात जाग स्थिति

हेरी महातूं हरि बिनि रहस्यो न जाय ।। टेक ।।

सास लडै मेरी ननद खिजावै, राणा रहया रिसाय।

पहरों भी राख्यो, चौकी बिठारयो, ताला दियो जड़ाय ।

पूर्व जनम की प्रीत पुराशी सौ क्यूं छोड़ी-जाय ।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, अवरून आवै म्हारीदाय ।।

भावार्थ यह है कि सखि में कृष्ण के बिना नहीं रह सकती। कृष्ण प्रेम की दीवानी देखकर में सास लड़ती है, ननद खिजाती है, राणा क्रोध करता है, तालों में बंद करवा देता है, चौकी बिठाता है पहरा लगवाता है। पर कुछ भी हो पुरानी प्रीत टूट नहीं सकती है। मुझे तो केवल कृष्ण चाहिए और कोई नहीं। इस प्रकार यह पद अनन्य प्रेम भाव का है।

गीतिकाव्य-धारा

अनादिकाल से मनुष्य सुख-दुःख के चरम क्षणों की अभिव्यक्ति गीतों में करता आया है। यदि आज हम गीतिकाव्य को परिभाषित करना चाहते हैं तो कहते हैं कि हृदय के प्रबलतम भावों की प्रबलतम सहज अभिव्यक्ति का नाम गीत है।

 

जाहिर है कि गीत में सहज आत्माभिव्यक्ति, प्रबल वैयक्तिक अनुभव, संगीतात्मकता, भावस्फूर्त शब्द और शैली जैसे तत्व मिले रहते हैं। मूलतः गीत मानवीय वृत्तियों को सहज स्थिति के साथ अभिव्यक्ति देता है। फलतः उसमें हृदय का सौंदर्य, आंतरिक भावावेग की तरलता, निश्छलता और लयात्मक गति रहती है। आज चाहे गेयता गीतिकाव्य का लक्षण न माना जाए पर हिंदी के मध्यकाल में गेयता गीत का अनिवार्य धर्म था।

विद्यापति के पद, सिद्धों नाथों के चर्या गीत, कबीर, सूरदास, तुलसीदास जैसे संत भक्तकवियों के गीतों की गेयता शक्ति से सभी परिचित हैं। अन्य काव्यरूपों से गीतिकाव्य की एक अलग पहचान का रूप हैउसका अन्तर्मुखी भावपरक दृष्टिकोण।

गीतिकार एक सीमित दायरे में वैयक्तिक और आत्मनिष्ठ हो जाता है। इस दृष्टि से गीत कवि की निजी भावनाओं का गिने-चुने शब्दों में प्रकाशन है। गीत में मुक्त भाव और स्वच्छंद कल्पना लयात्मक संगीत में फूट पड़ती है।

यही कारण है कि गीतिकाव्य का रचनाकार अपनी भावानुकूल लयों में अपनी भावनाओं को व्यक्त करता हैं गीतिकाव्य में आत्माभिव्यक्ति एवं वैयक्तिकता से तात्पर्य है-तीव्र भावावेग का उठना । गीतिकाव्य की कुछ विशेषताएँ हैं- (1) आत्माभिव्यक्ति (2) गेयता या संगीतात्मकता (3) भाव का तीव्र-प्रभाव एवं अन्विति (4) सहज प्रेरणा (5) कोमल शिल्प विधान (6) आकार की संक्षिप्तता।

गीतों की यह परम्परा लंबे काल से अबाध चली आ रही थी। बौद्ध सिद्धों के चर्या-गीतों, नाथों के गीत-पदों में यही परम्परा दिखाई देती है। सिद्धों के गीतों में रागों की अव्यवस्था और विषय की कठिनता के कारण वे जनता के कंठहार न बन सके। साथ ही सिद्धों के गीतों का साम्प्रदायिक रंग भी प्रचार-प्रसार में बाधा थी।

लेकिन मीरा ने साम्प्रदायिक रंग से मुक्त होकर सरल-सहज लोक की भाषा में अपने हृदय की अनुभूतियों को व्यक्त किया। इसी ढंग की आत्माभिव्यक्ति ने उनके गीतों को सरलता, रमणीयता, प्रभावोत्पादकता तथा सहज लय-योजना प्रदान की है। मीरा के दुःख सुख के भाव-भक्तिभावना से ओत-प्रोत होकर आए जिनमें भक्त-हृदय का दिव्य संगीत भी गूंज रहा था।

पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में विद्यापति, नरसी मेहता, चण्डीदास की रचनाएँ जिस गीतपद्धति पर हुई थी- मीरा ने उसी का लोक विस्तार किया है। यही पद्धति मीरा के समकालीन अथवा परवर्ती भक्त सूरदास, नंददास, कृष्णदास, चतुर्भुजदास गदाधर भट, हरिदास, हितहरिवंश आदि में विकसित होती रही। जैसे मीरा के प्रत्येक पद में आराध्य देव कृष्ण के नाम, रूप, गुण, चरण, लीला आदि का वर्णन रहता है- वैसे ही अन्य वैष्णव भक्तों के पदों में भी।

गीतिकाव्य की इस कसौटी पर यदि हम मीरा के गीतों को कसते हैं तो कहा जा सकता है कि प्राचीन काल से विद्यमान गीत परम्परा का मीरा ने सफल उपयोग किया है। प्राचीन लोकगीतों की शैली को मीरा ने अपने पदों में सार्थक ढंग से अपनाया है।

जैसे ‘हेरी मैं तो प्रेम दिवानी मेरा दरद न जाने कोय’ गीत वस्तुतः गीतिकाव्य का वह सर्वश्रेष्ठ रूप है जो संस्कृत में जयदेव के “गीतगोविंद” में मिलता है- जिसमें एक ओर रागों का प्रबल विधान है- तो दूसरी ओर राधा कृष्ण लीला का मधुर गान। यही परम्परा समय के साथ मैथिल कोकिल विद्यापति में फूटती है और मानव-मन सौंदर्य से भर जाता है।

यही गीतिकाव्य धारा हिंदी के भक्तिकाल-निर्गुण और सगुण कवियों में वेग से प्रवाहित होती है। आगे चलकर वैष्णव-भक्त संगीत की राम और कृष्ण भक्ति धारा इस गीति परम्परा में प्रेम, आनंद और माधुर्य का सम्मिश्रण है। मीरा इसी युग युगांतर से चली हुई परम्परा की उत्तराधिकारी बनी हैं और इसी परम्परा को उनसे नवजीवन प्राप्त हुआ है।

वैष्णव भाव की है पदपरम्परा का जो रूप दक्षिण भारत के आलवार भक्तों में – विशेषकर भक्तिन आंडाल में मिलता है- कुछ-कुछ वैसा ही भाव जगत मीरां के पदों का भी है। आत्माभिव्यक्ति का वेग और संगीतात्मकता दोनों ही आंडाल एवं मीरा के गीतों में दिखाई देती है।

मीरा का अनुभूति-पक्ष बहुत सशक्त है। मीरा के गीतों से सूर के गीतों की तुलना करते हैं तो कहा जा सकता है कि मीरा के गीतों में हृदय के आवेगों की तीव्रता सूर से ज्यादा है मीरा की वैयक्तिक वेदना में सूर की गोपियों की वेदना से कसक, तड़प और दर्द अधिक है। सच्चाई यह है कि हिंदी की वैष्णव भावधारा का कोई भी हिंदी कवि मीरा के गीतिकाव्य की सहज आत्माभिव्यक्ति और तरल संगीतात्मकता का मुकाबला नहीं कर सकता है।

मीरा के सभी पद गीतों के रूप में है और अधिकांश एक टेक देकर (चार से दस) चरणों से जोड़ दिए गए हैं। यह पूरा का पूरा पद शास्त्रीय संगीत की राग रागनियों के अंतर्गत रखा जाता है। मीरा के समय तक रामानन्द, कबीर, नरसी मेहता; चैतन्य महाप्रभु तथा निर्गुण-सगुण भक्तों की राग-रागनियों का एक विराट संसार सामने आ चुका था।

इस परिवेश का प्रभाव भी मीरा पर पड़ा होगा। लोक-संगीत की छाप लेकर कबीर, सूरदास, कुम्भनदास, कृष्णदास, रैदास, दादू सभी के पद आ रहे थे। फलतः गायन, वादन, नृत्य, भाव-प्रदर्शन चारों का संगीत-समुच्चय एक धारा के रूप में मीरा की पदावली में प्रवाहित है

गायनमाई म्हां गोविंद के गुण गाणा।

वादन- नृत्य ताल पर बावेण मिरदंग बाजां, साधां आगे नाचां।

नृत्य- पग बांध धुंघरयां बाजा रही।

 

भाव- प्रदर्शन

i) हेरी मैं तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद न जानै कोय।

ii) चलो रे माणा गंगा-जमुना तीर।

मीरा के गीतों में मुख्य विषय उनका अपना जीवन है। इन गीतों पर उनके व्यक्तित्व की गहरी छाप है और घटनाओं की तड़प का दर्द भी अंकित है। गिरधर की छवि ही मीरा के भौतिक जीवन के कष्टों का हरण करती हैं आज भी इन गीतों में मानव को शांति देने की शक्ति है।

यह भी पढ़े :–

  1. विद्यापति के काव्य सौंदर्य का वर्णन कीजिए |
  2. विद्यापति की कविता में प्रेम और शृंगार के स्वरूप पर सोदाहरण प्रकाश डालिए |

 

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