मुख हेरि न हेरत रंक मयंक सु पंकज | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

मुख हेरि न हेरत रंक मयंक सु पंकज | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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मुख हेरि न हेरत रंक मयंक सु पंकज छीवति हाथ न हौं।

जिहिं बानक आयौ अचानक ही घनआनन्द बात सुकासौ कहौं।

अब तौ सपने – निधि लौं न लहौं अपने चित चेरक-आँच दहौं ।

डर आवति यौं छबि छाँह ज्यौं हौं ब्रजछैल की गैल सदाई रहौं ।

मुख हेरि न हेरत रंक मयंक

प्रसंग :— यह पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ से लिया गया है। इसमें कवि ने अपने प्रिय की सुन्दरता की तुलना में सभी प्रकृति के सुन्दर पदार्थों को तुच्छ एवं हीन बताया है। गोपी के मन में विद्यमान हर क्षण प्रिय कृष्ण के साथ बिताने की स्वाभाविक इच्छा का उपरोक्त सन्दर्भ में वर्णन करते हुए इस पद्य में कवि घनानन्द कह रहे हैं

 

व्याख्या :— एक बार जब उस प्रिय का सुन्दर मुख देख लिया जाता है, तब चन्द्रमा की सुन्दरता कंगाल- सी लगने लगती है और उसकी तरफ देखने तक को जी नहीं चाहता। उसके हाथों की शोभा को कमलों की सुन्दरता छू तक नहीं पाती। अर्थात् प्रिय श्री कृष्ण का मुख और हाथ इतने सुन्दर हैं कि उनकी शोभा के सामने चन्द्रमा की सुन्दरता और कमलों का विकास फीके पड़ जाते हैं।

वह अचानक जिस सुन्दर आकर्षक रूप में मेरे सामने आकर खड़ा हो गया, उसकी सुन्दरता और शोभा का वर्णन मैं केसे और किसके करूँ? अर्थात् उस शोभा का वर्णन अवर्णनीय मानते हैं। आज तो उसका वह रूप सौन्दर्य सपने में सोचने वाले उस मन जैसा लगता है जिसे व्यक्ति न तो ले और न छोड़ ही पाता है, बस, सखि, मेरा मन तो अब उस जादू के प्रभाव की आँच में रात-दिन जलता रहता है। अर्थात् रात-दिन उस सुन्दर-सलोने रूप को वियोग मन सालता है। ।

इस स्थिति में अब मेरे मन में केवल एक ही बात आती है। वह यह कि सब कुछ छोड़-छाड़ उस सुन्दर शोभा (श्रीकृष्ण) की परछाई बनकर ब्रज के रसिया केसंग वहाँ की गलियों में हमेशा या रात-दिन डोलती फिरू। इसके सिवा अन्य कोई इच्छा शेष नहीं रह गई।

विशेष

1. रूप-सौन्दर्य के अचूक प्रभाव का वर्णन बड़े ही मार्मिक एवं प्रभावी ढंग से किया गया है।

2. प्रेमीजन के मन की दृढ़ता एवं अन्तिम इच्छा भी स्पष्ट है।

3. पद्य में विरोध, एकार्थ, रूपक, उपमा, अनुप्रास एवं विषम अलंकार है।

4. भाषा सजीव, प्रसाद गुणात्मक एवं सहज स्वाभाविक है।

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