मुनीश्वरो (मार्कण्डेय) उवाच | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | चण्डी- चरित्र | गुरु गोविंद सिंह |

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मुनीश्वरो (मार्कण्डेय) उवाच

हरि सोइ रहे सजि सेज तहाँ। 

जल-जाल कराल विसाल जहाँ । 

भयौ नाभि-सरोज तैं विस्वकर्ता | 

स्रुति – मैल तैं दैत रचे जुग ता ॥ 8 ॥

मुनीश्वरो

प्रसंग : यह पद्य दशम गुरु गोविंद सिंह की रचना ‘चण्डी- चरित्र’ में से लिया गया है। इस काव्य में कवि ने पुराणों और ‘दुर्गा सप्तशती’ के आधार पर चण्डिका देवी के चरित्र एवं दैत्य – विनाशक कार्यों का काव्यमय चित्रण किया है। राजा सुरथ और उनके साथ आए समाधि नामक वैश्य के आग्रह करने पर महामुनि मार्कण्डेय चण्डी के चरित्र का गायन करने लगे । सो ‘मुनीश्वरो उवाच’ अर्थात् मुनीश्वर (मार्कण्डेय) ने जो कुछ कहा, उसका वर्णन और कथा का आरम्भ करते हुए कवि कह रहा है

 

व्याख्या : राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य का प्रश्न सुन, कथा सुनाते हुए मार्कण्डेय बोले- भगवान विष्णु क्षीरसागर की भयानक आवर्ती में शेषनाग की विशाल शैया पर शयन कर रहे थे। वहीं पर उनकी नाभि से उत्पन्न कमल में से पहले सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। फिर जब भगवान विष्णु ने अपने कान से कुछ मैल बाहर निकाली, तो उससे मधु और कैटभ नामक दो राक्षस उत्पन्न हुए।

भाव यह है कि भगवान के सत्व तत्व से देव-सृष्टि हुई, जबकि मैल या उच्छिष्ट एवं त्याज्य तत्वों से दानवों की सृष्टि हुई।

विशेष

1. कवि ने संसार की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा की उत्पत्ति और मूल स्थान का स्पष्ट सांकेतिक वर्णन किया है।

2. कवि ने दैत्य-सृष्टि के उत्स पर भी सांकेतिक प्रकाश डाला है।

3. भगवान के शयन स्थल और उपरोक्त दोनों की उत्पत्ति आदि की मान्यता का आधार पुराण ही है ।

4. पद्य में विशेष, वर्णन, अनुप्रास आदि अलंकार हैं। तोटक छंद है।

5. भाषा-शैली सामान्य, सरल और वर्णनात्मक है।

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