मैया मैं नहिं माखन खायौ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूरदास | - Rajasthan Result

मैया मैं नहिं माखन खायौ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूरदास |

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मैया मैं नहिं माखन खायौ । 

ख्याल परैं ये सखा सबै मिलि, मेरैं मुख लपटायौ॥ 

देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचैं धरि लटकायौ। 

हौं जु कहत नान्हे कर अपनै मैं कैसैं करि पायौ॥ 

मुख दधि पोंछि, बुद्धि इक कीन्ही, दोना पीठि दुरायौ। 

डारि साँटि, मुसुकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ॥ 

बाल-बिनोद-मोद मन मोह्यौ, भक्ति-प्रताप दिखायौ।

सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ॥ (६०)

मैया मैं नहिं माखन खायौ

प्रसंग :— इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन है। वात्सल्य भक्ति-भावना में अनुरक्त भक्त कवि ने बालकृष्ण की बाल-चेष्टाओं का ऐसा मनोहारी चित्रण किया है कि श्रीकृष्ण की माखन चोरी चतुराई पर माता यशोदा की तरह सभी मोहित हो जाते हैं।

 

व्याख्या :— श्रीकृष्ण माखन चोरी की सफाई देते हुए यशोदा माता से कहते हैं कि माता! मैंने मक्खन नहीं खाया है। समझ में आता है कि मेरे मित्रों ने मिलकर मेरे मुख पर लपेट दिया जिससे तू समझती है कि मैंने मक्खन खाया है। यह झूठ है। दूसरी बात यह है कि जिस छींके पर मक्खन का बर्तन लटकाया हुआ था

वह भी इतना ऊँचा था कि मैं अपने छोटे हाथों से उसको पकड़ भी नहीं सकता था। लेकिन चोरी का एक प्रमाण यह भी था कि कृष्ण के हाथों में मक्खन भरा ( दोना) था । उसको भी कृष्ण ने चतुराई से पीठ पीछे छिपा लिया तथा मुख पर लिपटे मक्खन को भी पोंछ डाला। श्रीकृष्ण की इस बाल – चतुराई पर मोहित होकर यशोदा माता ने प्रताड़ना के लिए हाथ में ली हुई संटी भी डाल दी और हँसकर कृष्ण को गले लगा लिया।

श्रीकृष्ण की बाल-विनोदपूर्ण मोहकता ने यशोदा माता के मन को मोहित कर लिया। श्रीकृष्ण ने बाल-विनोद लीला वात्सल्य भक्ति से प्रभावित होकर दिखाईं। सूरदास कवि कहते हैं कि यशोदा माता जैसा वात्सलय भक्ति का सुख शिव और ब्रह्मा ने भी प्राप्त नहीं किया है। यहाँ अद्भुत का समावेश करके आलंबन कृष्ण को अलौकिक बना दिया है।

विशेष

1. शिशु-सुलभ बाल चेष्टाओं को देखकर आनन्दित होने वाली माता के वात्सल्य सुख को अलौकिकता प्रदान करने के लिए भक्त कवि ने अपने भक्तिभाव में अद्भुत का समावेश किया है जिससे अवतारी बालकृष्ण का परब्रह्मत्व सिद्ध होता है।

2. प्रस्तुत पद भारतीय जन-मानस का कंठहार बना हुआ है।

3. ब्रजभाषा की मधुरता और गेयता देखते ही बनती है।

4. गुण, अलंकार भी अनायास ही काव्य – शोभा बढ़ाने वाले हैं।

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