रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |
रवि हुआ अस्त
ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर,
शतशेल सम्वरणशील, नील नभगर्जित स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह
भेद कौशल समूह
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह,
क्रुद्ध कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण,
लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान,
राघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर,
उद्धत लंकापति मर्दित कपि दलबल विस्तर,
अनिमेष राम विश्वजिद्दिव्य शरभंग भाव,
विद्धांगबद्ध कोदण्ड मुष्टि खर रुधिर स्राव,
रावण प्रहार दुर्वार विकल वानर दलबल,
मुर्छित सुग्रीवांगद भीषण गवाक्ष गय नल,
वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्ल रोध,
गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध,
उद्गीरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतुःप्रहर,
जानकी भीरू उर आशा भर, रावण सम्वर।
रवि हुआ अस्त
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियां महाप्राण निराला द्वारा विरचित उनकी सुप्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति – पूजा’ की आरंभिक पंक्तियां हैं। इन पंक्तियों में उन्होंने उस दिवस राम और रावण के मध्य होने वाले उस घमासान युद्ध का वर्णन किया है, जिसमें हार-जीत का कुछ भी निश्चय नहीं हो सका था। रवि हुआ अस्त रवि हुआ अस्त रवि हुआ अस्त रवि हुआ अस्त रवि हुआ अस्त
व्याख्या – राम और रावण के मध्य संपूर्ण होने वाले घमासान युद्ध के पश्चात् अंततः सूर्य अस्त हो गया। दिन के हृदय पर आज का राम और रावण का अनिर्णित युद्ध लिखा रह गया। अभिप्राय यह है कि उस दिन इतना अधिक भयंकर युद्ध हुआ था कि वह सदैव याद रखा जाएगा। दोनों ओर के योद्धा बड़े ही तीव्र, चपल हाथा से अर्थात् तीव्रतापूर्वक धनुषों पर वाण चढ़ाकर चलाते थे जिनकी गति अत्यधिक तीव्र होती थी।
वे योद्धा (वाण) सैकड़ों भालों को रोकने में समर्थ थे और उनका स्वर नीलाकाश में गुंजरित हो रहा था। अर्थात् आकाश में अस्त्र शस्त्रों की झंकारें और वीरों की हुंकारें गूंज रही थीं और प्रतिपक्षी भी शत्रु के व्यूहों को उसी प्रकार की दक्षता के साथ नष्ट कर रहे थे। भाव यह है कि दोनों ही दल बड़ी कुशलतापूर्वक नये-नये प्रकार से सैन्य-संचालन कर रहे थे किंतु वे एक-दूसरे के व्यूहों का उतनी ही कुशलतापूर्वक भेदन (छिन्न-भिन्न) भी कर रहे थे।
आगे बढ़ने का प्रयास करने वाली विकराल राक्षस- सेना के विरुद्ध क्रुद्ध वानर सेना भी हुंकार भरती हुई और भयंकर रूप से गर्जना करती हुई, उसके आक्रमण को रोककर प्रत्याक्रमण कर रही थी, राक्षस दल पर टूट रही थी।
राम और रावण के युद्ध का वर्णन करते हुए कवि आगे कहता है कि अपने वाण को लक्ष्य-भ्रष्ट देखकर उन राम के नेत्रों से, जिनके कमल के समान सुंदर नेत्रों से स्नेह और कोमल भावों की किरणें फूटा करती थीं, आज क्रोधावेश के कारण आग की चिनगारियां निकल रही थीं। उधर तामसी वृत्ति वाला रावण अपने रक्तिम नेत्रों से राम की ओर देखता हुआ उनके गर्व को खंडित करने के लिए अपने प्रबल वाणों का संधान कर रहा था।
इस पंक्ति का राम के पक्ष में अर्थ ग्रहण करने पर अर्थ होगा कि राम अपने रक्तिम नेत्रों के साथ रावण के अहंकार का विनाश करने के लिए उस पर प्रहार कर रहे थे, रावण भी उतने ही कौशलपूर्वक और अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए उनके प्रहारों को विफल करता जा रहा था। इस प्रकार राम का वाण-संधान और रावण का उनको विफल करने का कौशल दोनों का युद्ध दोपहर तक चलता रहा और फिर भी किसी पक्ष की जय-पराजय का निर्णय नहीं हो सका।
राम की असफलता के कारण अर्थात् उन्हें रावण को विजित करने में सफलता न मिल पाने के फलस्वरूप रावण और भी उद्धत हो उठा और उसके रण- – कौशल को देखकर स्वयं राम भी आश्चर्यचकित और विमुग्ध हो उठे। राम का शरीर रावण के वाणों से विद्ध हो उठा था। उन्होंने अपने धनुष की मूठ को दृढ़तापूर्वक पकड़ा हुआ था और उनके विविध शरीरांगों से रुधिर की तीव्र धारा प्रवाहित हो रही थी।
वानर सेना में रावण के दुर्निवार वारों के कारण खलबली मची हुई थी और सुग्रीव, अंगद, गवाक्ष, नल और जय आदि वानर योद्धा मूर्छित हो गए थे। लक्ष्मण और जाम्बवान के प्रहारों को रावण बीच में ही काट (रोक) देता था अथवा “इतना ही नहीं सुमित्रानंदन और अगणित भालुओं के अधिपति जाम्बवान, जो अपने धैर्य के लिए प्रसिद्ध थे, रावणा के प्रहारों से विचलित हो युद्ध-क्षेत्र से हटने के लिए विवश हो गए।” युद्धस्थल में प्रलय सागर गरज रहा था अर्थात् प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित था, उसमें मात्र हनुमान ही अपनी संज्ञा संभाले रहने में समर्थ थे।
भाव यह है कि रावण के प्रहारों से अन्य योद्धा तो मूर्छित हो चुके थे जबकि मात्र हनुमान ही राम की सेना के ऐसे योद्धा थे जो अभी तक होशो-हवाश में थे। हनुमान के क्रोधपूर्ण मुख को देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी विशाल ज्वालामुखी पर्वत से अग्नि की लपटें निकल रही हों ।
इस प्रकार हनुमान चार पहर तक रावण के साथ निरंतर भयंकर युद्ध करते रहे और उनको इस प्रकार युद्ध करते देखकर, जय को प्राप्त करने के विषय में आशंकित राम के हृदय में आशा का संचार होता रहा। भाव यह है कि उन क्षणों में राम को हनुमान का पराक्रम देखकर यह आशा बंधी कि मैं रावण को परास्त करके जानकी को प्राप्त कर सकता हूं।
विशेष
1. कवि निराला का उपर्युक्त काव्य-वर्णन वाल्मीकि रामायण से प्रभावित है।
2. उनके इस सामासिक युद्ध वर्णन पर हर्ष, बाण, मिल्टन और बायरन की शैलियों का भी प्रभाव है।
3. युद्ध का वर्णन करते हुए लेखक ने तीन बातों पर विशेष बल दिया है – योद्धाओं के घात-प्रतिघात युद्ध की गति और युद्ध का कोलाहल। इन तीनों की अनुभूति कराने के लिए उसने भाषा का कुशल प्रयोग किया है, शब्द शक्ति एवं वाक्य-विन्यास का पूरा-पूरा उपयोग किया है और इन सबकी सहायता से उसने काव्य में चित्रमयता तथा नाद- सौंदर्य लाने में सफलता प्राप्त की है। नाद यदि चित्र नहीं बना सकता, तो चित्र संगीत की सृष्टि करने में असमर्थ होता न घरंतु शब्द द्वारा चित्र और संगीत दोनों की सृष्टि संभव है, इसलिए शब्द की महिमा गाई है उसे ब्रह्म के समतुल्य कहा गया है।
4. उपर्युक्त पंक्तियों की भाषा बड़ी ही ध्वन्यात्मक हैं।
5. इन व्यूह, समूह, प्रत्यूह आदि शब्द ध्वनि प्रधान बिंबों के निर्माण में सहायक हुए पंक्तियों की भाषा विषयानुकूल है, परंतु पूर्णत: संस्कृतनिष्ठ होने के कारण सहज अर्थध कराने में कठिनाई उत्पन्न करती है।
6. राम और रावण के उपर्युक्त युद्ध के सजीव वर्णन हो पढ़कर वीरगाथाकाल के सजीव युद्ध वर्णनों की स्मृति सजग हो उठती है।
7. युद्ध के आतावरण को सजीव बनाने के लिए जिस नाद-व्यंजना की आवश्यकता पड़ती है उसको कवि संयुक्ताक्षरों तथा महाप्राण ध्वनियों के प्रयोग द्वारा उत्पन्न किया है।
8. उपर्युक्त पंक्तियों में रौद्र और भयानक रसों की संश्लिष्ट योजना हुई है। रवि हुआ अस्त रवि हुआ अस्त
9. एक आलोचक ने इन पंक्तियों में नराला के व्यक्तित्व का प्रतिफलन स्वीकार करते हुए यह मत व्यक्त किया है—“इस काव्य नायक राम के चरित्रांकन में कवि ने उपचेतना में ही अपने व्यक्तित्व को भी समावेश कर देया है। जैसी वीरता, उदारता तथा सकरुणता निराला के व्यक्तित्व में रही है, वैसी ही उन्होंने राम के व्यक्तित्व में अंकित कर दी है और तद्नुसार ही कविता में रस व्यंजना परिलक्षित होती ।”
10. राम की शक्ति पूजा में कवि ने भावों के ज्वार के अनुरूप ही प्रचंड प्रवाहमय छंद की योजना की है जो एक नवीन छंद प्रतीत होता है। प्रसाद के ‘आंसू’ काव्य में प्रयुक्त आंसू बंद की भांति इसको ‘शक्ति-पूजा’ छंद की संज्ञा प्रदान की जा सकती है।
11. इन पंक्तियों में रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, श्लेष, यमक, व्यतिरेक आदि अलंकारों की बड़ी ही सुष्ठु नियोजना है।
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