रसखान का जीवन परिचय ।
रसखान का जीवन परिचय :— हिन्दी साहित्याकाश के एक ऐसे जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं जो अपनी प्रभा से किसी की ज्योति को मंद किये बगैर पूरे प्रताप के साथ चमकता रहता है और अपनी विशिष्ट स्थिति भी रेखांकित करता रहता है। हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने वाला कोई भी व्यक्ति रसखान से अपरिचित नहीं रह सकता, लेकिन सचाई का एक दूसरा पहलू यह भी है कि इस अति ख्यात (अत्यन्त प्रसिद्ध) भक्त कवि.का कोई प्रामाणिक जीवन-वृत्त अब तक सुलभ नहीं हो सका हैं।
इनके जीवन के बारे में जो भी तथ्य अब तक प्रकाश में आये हैं, वे किसी न किसी तरह से विवादग्रस्त हैं। यहां पर आपको रसखान के जीवन और कृतित्व के बारे में वे सूचनाएँ दी जा रही हैं जो विद्वानों के तमाम विवादों और मतभेदों से छनकर लगभग प्रामाणिक तथ्य के रूप में स्वीकृत हो चुकी हैं।
रसखान का जीवन परिचय
रसखान का जन्म कब, कहाँ और किस वंश में हुआ था, इसे बताने के लिए कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इनके जीवन पर प्रकाश डालने वाले प्राचीन बाह्य साक्ष्यों के रूप में ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ और बाबा वेणी माधवदास विरचित ‘मूल गोसाईं चरित’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके आधार पर रसखान दिल्ली के रहने वाले एक सैयद मुसलमान थे जो वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से कृष्ण भक्त हो गये थे। अंतः साक्ष्य के रूप में रसखान की रचना ‘प्रेमवाटिका’ के निम्नलिखित दोहे उपलब्ध हैं
देखि गदर, हित-साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा-बंस की, ठसकि छोरि रसखान।।
प्रेम निकेतन श्रीवनहिं, आई गोवर्धन-धाम।
लयो सरन चित चाहिकै, जुगल सरूप ललाम।।
तोरि मानिनी तें हियो, फोरि मोहिनी मान।
प्रेम देव की छविहिं लखि, भए मियाँ रसखान।।
रसखान के इन आत्मोल्लेखों के आधार पर विद्वानों ने उनका जन्म संवत् 1590 और निधन सं. 1675 निश्चित हुआ है। विद्वानों का मानना है कि उपर्युक्त उद्धरण में ‘गदर’ और ‘दिल्ली के श्मशान बन जाने’ का जो उल्लेख हुआ है वह इतिहास-सम्मत घटना है। संवत् 1612-13 में देश को राष्ट्र व्यापी विप्लव, युद्ध, अराजकता, नर-संहार के साथ-साथ भयावह दुर्भिक्ष के दिन भी देखने पड़े थे।
हुमायूँ और शेरशाह सूरी के बीच जो निरन्तर युद्ध चलता रहा, उसकी दुखद परिणति अकबर के गद्दीनशीन होने पर (सं. 1613) भीषण मारकाट और विप्लव के रूप में दिखाई पड़ी। अनुमान किया जा सकता है कि रसखान ने इस राष्ट्र व्यापी युद्धोन्माद और संहार को ‘गदर’ की संज्ञा दी होगी और ‘गद्दी’ के लिए होने वाली इस मारकाट से त्रस्त होकर शान्ति की खोज में ‘गोवर्धन धाम’ के लिये प्रयाण किया रहा होगा।
अब यदि यह मान लिया जाय कि रसखान लगभग 22-23 वर्ष की अवस्था में दिल्ली छोड़कर ब्रज चले गये तो उनका जन्म संवत् 1590 निश्चित किया जा सकता है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास सं. डॉ. नगेंद्र, पृ. 253) ‘रसखान : जीवन और कतित्व’ के लेखक डॉ. देवेन्द्र प्रताप उपाध्याय ने ‘शिवसिंह सरोज’ के आधार पर रसखान का जन्म संवत् 1630 निश्चित किया है।
उन्होंने रसखान के ‘गदर’ सम्बन्धी उल्लेख को जहाँगीर और खुसरो के बीच हुए सत्ता-संघर्ष से जोड़ा है, लोकन उनकी इस धारणा को समीचीन नहीं कहा जा सकता क्योंकि जहाँगीर और खुसरो का तत्ता-संघर्ष राष्ट्रापी नहीं था, अतः उसे गदर की संज्ञा नहीं दी जा सकती, दूसरे ऐसा मान लेने पर रसखान के जीवन की अन्य घटनाओं और तथ्यों की भी संगति नहीं बैठ पाती है।
जन्म संवत् की तरह रसखान का जन्म स्थान भी विवादपूर्ण है।
कुछ लोगों ने इन्हें दिल्ली निवासी और कुछ लोग पिहानी (जिला हरदोई) का रहनेवाला सिद्ध करते हैं। ‘प्रेमवाटिका’ के ‘दिल्ली नगर मसान’ वाले उल्लेख तक ही सीमित रहने वाले उन्हें दिल्ली का मानते हैं। ‘शिवसिंह सरोज’ और ‘हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास’ आदि ग्रंथों से पता चलता हैं कि ये पिहानी, जिला हरदोई (उ.प्र.) में जन्में थे। इन ग्रंथों में इनका नाम सैयद इब्राहीम बताया गया है।
ऐतिहासिक स्रोतों से पता चलता है कि शेरशाह सूरी द्वारा पीछा करने पर हुमायूँ को कन्नौज के काजी अब्दल गफूर ने आश्रय दिया था जिसके उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उन्हें हरदोई जिले की तहसील शाहाबाद में 5000 बीघे का जंगल और पाँच गाँव दिये थे। पिहानी की बस्ती के मल ये ही गाँव हैं। यह सैयद मुसलमानों की बस्ती है।
सैयद अब्दुल गफूर पिहानी में रहने लगे थे। हो सकता है सैयद इब्राहीम, जो बाद में ‘रसखान‘ के नाम से लोक-प्रसिद्ध हुए, इनके वंश में पैदा हुए हों। यह भी अनुमान किया जा सकता है कि कुछ कालोपरान्त ‘पिहानी’ से ये दिल्ली आ गये हों। हुमायूँ की अनुकूलता और अकबर की उदारता के कारण पिहानी के सैयदों का दिल्ली में आश्रय-स्थान पा जाना असंभव नहीं कहा जा सकता।
अतः यह माना जा सकता है कि रसखान का जन्म पिहानी (जिला हरदोई) में सैयद वंश में हुआ, बाद में ये दिल्ली आये, वहाँ राजवंश से जुड़े, राजसी ठाट-बाट भी भोगा लेकिन बाद में सं. 1612-13 में सत्ता-संघर्ष के लिए हुए भीषण युद्ध और मारकाट से भयभीत और त्रस्त होकर इन्होंने ‘बादशाह वंश की ठसक’ छोड़ दी और वृन्दावनधाम में आकर श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हो गये। कृष्ण भक्त हो जाने पर सैयद इब्राहीम ‘रसखान’ के नाम से लोक-प्रसिद्ध हुए।
खान के कृष्ण-भक्ति की ओर आकृष्ट होने के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। ‘एक किंवदन्ति के अनुसार ये दिल्ली के किसी साहूकार के लड़के पर दिलो-जान से न्योछावर थे। लोग इनकी इस प्रीति को प्रेम का आदर्श समझकर उसकी चर्चा करने लगे थे। कहा जाता है कि एक बार चार वैष्णव आपस में कह रहे थे कि प्रभु से वैसा ही प्रेम करना चाहिए जैसा रसखान का साहूकार के लड़के के प्रति है।
रसखान ने जब उनकी यह बात सुनी तो वे उन वैष्णवों के पास गये और उनसे प्रभु-दर्शन की इच्छा व्यक्त की। वैष्णवों के निर्देशानुसार ये गोसाईं विट्ठलनाथ जी के पास गये और उनसे दीक्षा ग्रहण की। दूसरी किंवदन्ति का संबंध रसखान के आत्मोल्लेख ‘तोरि मानिनी ते हियो, फोरि मोहिनी मान’ से है।
इसके आधार पर यह कथा प्रचलित है कि रसखान किसी रूपवती स्त्री पर मुग्ध थे, जो ‘मानिनी’ और ‘मोहिनी’ थी। वह बार-बार इनसे रूठ जाया करती थी। रसखान को इससे बड़ी वेदना होती थी किन्तु, प्रीति-वश उससे अलग नहीं हो पाते थे। एक बार वे भागवत का फारसी अनुवाद पढ़ रहे थे। गोपियों का विरह-वर्णन पढ़ते-पढ़ते अकस्मात् इनके मन में आया कि जिस नंद-नंदन पर हजारों गोपियाँ न्योछावर थीं
उन्हीं से मन क्यों न लगाया जाय? यही सोचकर ये उस ‘मानिनी’ का मान तोड़कर और ‘मोहिनी’ के ‘रूप-गर्व’ का घड़ा फोड़ कर दिल्ली से वृन्दावन चले आये। यहाँ ‘मोहन’ का अद्भुत रूप देखा। वह उनके हृदय और नेत्रों में समा गया
देख्यौ रूप अपार, मोहन सुन्दर स्याम को।
वह ब्रजराज कुमार, हिय-जिय नैननि में बस्यौ।।
रसखान चाहे किसी साहू के लड़के पर न्योछावर रहे हों या किसी मोहिनी मानिनी के रूप जाल में फंसे रहे हों, इतना स्पष्ट है कि उनकी लौकिक प्रीति ही उदात्त होकर कृष्ण-भक्ति के रूप में परिवर्तित हुई थी।
गोसाईं विट्ठलनाथ से दीक्षा लेने के बाद रसखान ने वृन्दावनवास करते हुए श्रीकृष्ण के नाम, रूप, लीला और धाम के गान-ध्यान में ही अपना सारा जीवन लगा दिया। इनका श्रीकृष्णमय जीवन इष्टदेव की नित्य लीला, गोचारण, वंशी-वादन, गोप-गोपी विवाद आदि विभिन्न आनंददायिनी क्रीड़ाओं का समुच्चय बन गया था।
अपनी कृष्णासक्ति के कारण रसखान एक बार ब्रज आये तो फिर इसके बाहर कदम नहीं रखा और इस अभिलाषा के साथ कि “मानुष हों तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन” ब्रजभूमि में समा .. गये। रसखान ने महावन के समीप रमणरेती में दिव्य वन्दावनधाम में प्रवेश किया। आज भी इस स्थान पर उनकी स्मृति के रूप में 12 खम्भों की उनकी समाधि शेष है जिसे ‘रसखान की छतरी’ कहा जाता है।
रसखान की जन्म तिथि की तरह उनकी निधन-तिथि भी अनिश्चित ही है। उनकी अंतिम रचना ‘प्रेमवाटिका’ के रचनाकाल (सं. 1672) के आधार पर विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि उनकी मृत्यु 85 वर्ष की अवस्था में संवत् 1675 के आस-पास हुई होगी।
रसखान की रचनाएँ
रसखान स्वच्छन्द वृत्ति के प्रेमोन्मत्त कृष्ण भक्त थे। उन्होंने न तो किसी मत-सम्प्रदाय से बँधकर (गोसाईं विट्ठलनाथ से दीक्षित होने के बावजूद) कृष्ण-भक्ति की और न किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर काव्य-रचना की। उनकी काव्य-रचना का यदि कोई उद्देश्य माना जा सकता है तो वह है कृष्ण के प्रेम एवं सौन्दर्य में निमग्न अन्तःकरण की भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति।
रसखान ने अपनी प्रेमोन्मत्तता में समय-समय पर राधा-कृष्ण के प्रेम सौन्दर्य एवं रसकेलियों से संबंधित तमाम कवित्त-सवैयों की रचना की जिन्हें विभिन्न संकलनकर्ताओं ने ‘सुजान-रसखान’ नाम से कई रूपों में तैयार किया। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा संपादित ‘सुजान रसखानि’ में 214 छंद (कवित्त, सैवैया, सोरठा, दोहा) और डॉ. विद्या निवास मिश्र द्वारा संपादित ‘रसखान रचनावली’ में संकलित ‘सुजान रसखान’ में 267 छंद हैं।
इन छंदों का प्रतिपाद्य भक्ति, प्रेम, राधा-कृष्ण की रूप-माधुरी, मुरली-माधुर्य और श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं के सरस प्रसंग हैं। ‘सुजान रसखानि’ ही रसखान की कीर्ति का स्थायी आधार है। इसके अलावा उनकी तीन और रचनाएँ हैं-प्रेमवाटिका, दानलीला और अष्टयाम। देवेन्द्र प्रताप उपाध्याय ने अपने आलोचना-ग्रंथ ‘रसखान : जीवन और कृतित्व’ में उपर्युक्त चारों रचनाओं सुजान-रसखान, प्रेमवाटिका, दानलीला और अष्टयाम को संकलित किया है।
सुजान रसखान’ के बाद ‘प्रेमवाटिका’ रसखान की प्रौढ़ और प्रामाणिक कृति है। इसमें रसखान ने दोहों में राधा-कृष्ण को प्रेमोद्यान के मालिन-माली मानकर प्रेम के गूढ़ तत्व का निरुपण किया है। रसखान की प्रेम-सम्बन्धी धारणा और आदर्श को समझने के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है। इसमें कुल 53 दोहे हैं। ‘दानलीला’ 11 छंदों का एक छोटा-सा प्रबंध है
जिसमें रसखान ने राधा-कृष्ण के संवाद के रूप में श्रीकृष्ण की दानलीला का रुचिकर वर्णन किया है। इस छोटी-सी रचना में राधा-कृष्ण की जो नोक-झोंक चित्रित हुई है, वह उनके प्रेम-संबंधों की मार्मिकता को भी सहज रूप में व्यक्त कर देती है। ‘अष्टयाम’ में 26 दोहे हैं। इसमें श्रीकृष्ण के प्रातः जागरण से रात्रि शयन तक की उनकी अष्टकालिक दिनचर्या एवं तत्सम्बन्धी क्रीड़ाओं का चित्रण हुआ है।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि रसखान की उपर्युक्त रचनाओं में दो का ही विशेष महत्व है-
1.सुजान रसखान, 2. प्रेमवाटिका’ रसखान की भक्ति-भावना, उनकी सौन्दर्यानुभूति, और प्रेमानुभूति को समझने के लिए यही दो रचनाएँ मुख्य आधार का काम देती हैं। अन्य रचनाओं की प्रामाणिकता भी संदिग्ध है।
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