रसमूरति स्याम लखै जिय जो गति | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
रसमूरति स्याम लखै जिय जो गति होति सु कासों कहौं ।
चित्त चुम्बक लौह लौं चायनि च्वै चुहरे उहरैं नहिं जेतो गहौं ।
बिन काज या लाज-समाज के साजनि क्यों घनआनन्द देह दहौं।
उर आबत यों छवि-छांह ज्यों हों जघैल की गैंल सदाई रहों ॥
रसमूरति स्याम लखै जिय
प्रसंग :— यह पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। गोपियाँ-गोप कृष्ण का साथ कभी भी छोड़ना नहीं चाहते। उसके रूप सौंदर्य का पान करते हुए हमेशा उसके साथ ही लगे रहना चाहते हैं। कुछ इसी प्रकार के भावों को प्रकट करते हुए, इस पद्य में कवि कह रहा है…….
व्याख्या :— हे सखि! रस की साकार प्रतिमा, प्रिय श्रीकृष्ण को देखने पर मेरे इस मन की दशा क्या और कैसी होती है, उसका वर्णन मैं किससे करूँ? अर्थात्, मन की उस स्थिति का वर्णन कर पाना कतई सम्भव नहीं हुआ करता ? जिस प्रकार लोहा स्वतः ही चुम्बक का आकर्षण पाकर उसकी तरफ खिंचा चला जाता है, फिर पकड़ने की जितनी भी कोशिश करो, वश में नहीं आ पाता; उसी प्रकार कृष्ण के रूप-सौंदर्य रूपी चुम्बक की तरफ यह मन रूपी लोहा बड़े चाव से स्वतः ही खिंचा चला जाता है।
फिर कितना भी प्रयत्न करो, कृष्ण के रूप की तरफ से हट ही नहीं पाता। घनानन्द कवि कहते हैं कि बिना कारण समाज की लाज के नाम पर मैं आनन्द की वर्षा करने वाले उस कृष्ण से दूर रहकर, उसके वियोग की आग में अपना तन-मन क्यों जलाऊँ ? अर्थात्, श्रीकृष्ण के दर्शन करने के बाद फिर मन में समाज का भय और घर की लाज आदि कतई नहीं रह जाते। इसका ध्यान करना तो वियोग की आग में अपने को जलाना है, सो मैं नाहक क्यों जलूँ।
इसी कारण समाज और लोक लाज की परवाह न कर मैं प्रिय कृष्ण की तरफ खिंची चली जाती हूँ। मेरे मन में तो हमेशा यही इच्छा आती रहती है कि मैं कृष्ण के सुन्दर रूप की परछाई बनकर ब्रज की गलियों में हमेशा मंडराती रहूँ। अर्थात् हमेशा उस प्रिय कृष्ण के साथ लगी रहूँ, यही मेरे मन की एकान्त इच्छा है।
विशेष
1. पद्य में प्रेमभक्ति और संयोग- शृंगार की अवस्था का सुन्दर समन्वय स्पष्ट देखा-परखा जा सकता है।
2. यहाँ स्पष्टतः नायक कृष्ण और नायिका गोपी या राधा ही है।
3. पद्य में उपमा, रूपक, उदाहरण, अनुप्रास आदि अलंकार हैं। प्रश्न का भाव भी है।
4. भाषा प्रसाद गुण से संयत, लाचीली, प्रवाहमय एवं संगीतात्मक है। कहावतों का प्रयोग भी स्पष्ट दर्शनीय है।
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