रस सागर नागर स्याम लखै अभिलाषित | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

रस सागर नागर स्याम लखै अभिलाषित | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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रस सागर नागर स्याम लखै अभिलाषित – धार – मंझार बहौं ।

सुन सूझत धीर को तीर कहूँ परचे हारि के लाज-सिचार गहौं ।

घनआनन्द एक अचम्भौ बड़ों गुन हाथ हूँ बूड़ति कासों कहौं ।

उर आवत यौं छबि – छाँह ज्यौं हौं ब्रज छैलनी गैल सदाई रहौं ||

रस सागर नागर स्याम लखै

प्रसंग : यह पद्य रीतियुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। नायक या कृष्ण के सौन्दर्य का दर्शन देखने वाले को कहीं का नहीं रहने देता। अपने जादू से निढाल करके रख देता है। इस पद्य में इस प्रकार के प्रेम के प्रभाव को दर्शाने वाले भाव प्रकट करते हुए कवि कह रहा है

व्याख्या :— हे सखि, जब से मैंने प्रेम-सौन्दर्य के समुद्र उस चतुर श्रीकृष्ण को देखा है, तभी से मेरा मन इच्छाओं की धारा के मंझधार में बह या चढ़ – उतर रहा है। अर्थात् नायक श्रीकृष्ण के प्रथम दर्शन ने ही मन में इच्छाओं का तूफान ला दिया है। अब मेरे मन को धीरज-रूपी किनारा कहीं नहीं सूझ रहा ।

थक हारकर मुझे लोक-लाज रूपी सिचाल को थाम कर बहने से बचाना पड़ा है। अर्थात् श्रीकृष्ण को देखने के बाद मन का धीरज तो जाता रहा, पर लोक-लाज ने ही आगे बढ़कर कुछ करने से बचाया ।

कविवर घनानन्द कहते हैं कि यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि गुण यानि मानवता के गुण रूपी रस्सी हाथ में रहते हुए भी मैं रससागर कृष्ण के प्रेम में डूबी जा रही हूँ।अपनी इस विवशता का हाल मैं किससे औ किस प्रकार से कहूँ, समझ नहीं आता। बस, अब तो मन में हर वक्त एक ही बात आती रहती है कि सुन्दरता की इस मूर्ति श्रीकृष्ण की परछाईं बनकर ब्रज की गलियों में उसके साथ ही हर पल, हर जगह डोलती फिरती रहूँ। इसी प्रकार यह जीवन और प्रेम नाव सफल सार्थक हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं।

विशेष

1. प्रथम दृष्टि के प्यार और प्रभाव का प्रभावी एवं यथार्थपरक वर्णन से इस पद्य की प्रमुख विशेषता रेखांकित की जा सकती है।

2. प्रेमी की इच्छायें और चेष्टाओं का वर्णन भी बड़ा स्वाभाविक हुआ है।

3. पद्य में साँग – रूपक, विरोध, श्लेष, प्रश्न और अनुप्रास आदि अलंकार है। ‘गुन हाथ हूं बूड़ति कासों कहौं’ पद में श्लेष और विरोध अलंकारों की योजना सार्थक तो है ही, चमत्कृत करने वाली भी है।

4. भाषा माधुर्यगुण- प्रथम और चमत्कार पूर्ण है।

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