रामचंद्र शुक्ल की आलोचना - दृष्टि - Rajasthan Result

रामचंद्र शुक्ल की आलोचना – दृष्टि

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रामचंद्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि :— आलोचना उन विधाओं में से है जो पश्चिमी साहित्य की नकल पर नहीं बल्कि अपने साहित्य को समझने-बूझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यकता के कारण जन्मी और विकसित हुई और इस आलोचना को धार और परिपक्वता शुक्ल युग में आकर मिली।

इस युग के केन्द्रीय समीक्षक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी रहे, यद्यपि उनके समकालीन ‘बाबू गुलाबराय’, ‘बाबू श्यामसुंदर दास’ आदि समीक्षक भी आलोचना क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। स्वागत है आप सभी का Rajasthanresult में ।।

रामचंद्र शुक्ल की आलोचना

शुक्ल जी ने आलोचना के तेवर व कलेवर में अभूतपूर्व परिवर्तन कर दिया। निश्चित मानदंड व अद्भुत सहृदयता के साथ शुक्ल जी ने आलोचना-क्षेत्र में प्राण फूंक दिए। उन्हीं के शब्दों में यह सब आलोचना अधिकतर बहिरंग बातों तक ही रही। भाषा के गुण-दोष, रस, अलंकार आदि की समीचीनता इन्हीं सब परंपरागत विषयों तक पहुँची।

स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेदन होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखाई जाती हैं, बहुत कम दिखाई पड़ी।’ (हि. सा.इ.,पृ-492)।

शुक्ल जी आधुनिक आलोचना के अधिकृत आचार्य है। उन्होंने पारंपरिक काव्य चिंतन को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि तथा पाश्चात्य काव्य चिंतन के आलोक में पुनर्व्याख्यायित करके समृद्ध और प्रासंगिक बनाया। जहाँ वे भरत, अभिनव और मम्मट की परंपरा से जुड़े दिखाई देते हैं

वही दूसरी और अरस्तू, आर्नल्ड, रिचर्ड्स और इलियट से संवाद स्थापित करते भी नज़र आते हैं। शुक्ल जी की दृष्टि वैज्ञानिक, प्रगतिशील एवं इहलौकिक थी। शुक्ल जी एक युग विधायक और आलोचनात्मक मानदंड के निर्माता हैं।

उन्होंने हिन्दी आलोचना को नई दिशा एवं नई जमीन दी है। ‘हिंदी साहित्य में कविता के क्षेत्र में जो स्थान निराला का रहा और उपन्यास के क्षेत्र में जो स्थान प्रेमचंद का रहा, आलोचना के क्षेत्र में वही स्थान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है।’ (आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना- डॉ. रामविलास शर्मा)। इनके द्वारा तैयार किए गए प्रतिमान मौलिक और प्रौढ़ थे। अपने अतीत व समकालीनता से जुड़ कर उन्होंने आलोचना की दशा व दिशा बदल दी।

इनकी सूक्ष्म दृष्टि ने अब तक हुई आलोचनाओं की कमजोरियों को परख लिया था। अतः वे साहित्य की बहिरंग सजावट के बजाय काव्य की आत्मा, रचनाकार की दृष्टि तथा उनके उद्देश्य को समझ सके और यही समझ उन्हें अन्य आलोचकों से अलग खड़ा करती है।

आचार्य शुक्ल की दृष्टि आलोचना पद्धति के लिए काफी संश्लिष्ट थी परन्तु वह स्पष्टता लिए हुए भी थी। उन्होंने सैद्धान्तिक तथा व्यावाहारिक दोनों प्रकार की आलोचनाओं में बखूबी हस्तक्षेप किया। शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि के महत्त्व को इस तथ्य से जाना जा सकता है कि उनके समकालीन आलोचक उनकी धारा में तो बहे ही तथा उनके बाद के आलोचकों ने भी या तो उनकी परंपरा का निर्वाह किया या उनकी परंपरा से जुड़कर ही नई धारा का संज्ञान करवाया।

इस प्रकार शुक्ल जी के बाद की आलोचना उनकी दृष्टियों के समर्थन या विरोध में खड़ी इमारत सी लगती हैं। आज भी वे उतना ही महत्त्व रखते हैं जितना उस समय में। उनके तर्क आज भी अकाट्य हैं और उनकी पैनी-पारखी नज़र आज भी कबिलेतारीफ है। रामचंद्र शुक्ल की रामचंद्र शुक्ल की 

हिंदी की लगभग 150 वर्षों की आलोचना के इतिहास में शुक्ल जी केंद्रीय पुरुष आज भी बने हुए हैं, उनको छोड़ कर किसी साहित्यिक विषय पर कोई चर्चा न शुरू की जा सकती है और न ही समाप्त। इसी से उनकी आलोचना दृष्टि की उपादेयता समझी जा सकती है। शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि पूर्णतः स्पष्ट, परिपक्व एवं विकसित है। उनकी सैद्धान्तिक व व्यावहारिक आलोचना दृष्टि को निम्न रूप में समझा जा सकता है।

रामचंद्र शुक्ल की सैद्धान्तिक दृष्टि

सैद्धान्तिक दृष्टि से वे ‘रससिद्धांत’ के समर्थक और पोषक हैं परन्तु उन्होंने शब्दशक्ति, रीति, और अलंकार को कमतर महत्त्व नहीं दिया है। उन्हीं के शब्दों में “शब्द-शक्ति, रस,रीति और अलंकार-अपने यहां की ये बातें काव्य की स्पष्ट और स्वच्छ मीमांसा में कितने काम की हैं, मैं समझता हूँ।

इनके संबंध में अब और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। देशी-विदेशी, नई-पुरानी सब प्रकार की कविताओं की समीक्षा का मार्ग इनका सहारा लेने से सुगम होगा।”(काव्य में अभिव्यंजनावाद, पृ.-226)

उनकी आलोचना दृष्टि सूक्ष्म, तार्किक, विश्लेषणात्मक व निगमनात्मक विधि पर आधारित थी। वे रसवादी, लोकमंगलवादी जैसे उच्च आदर्शों को लेकर साहित्य में चलते हैं। वे हमेशा कबीर की तरह प्रत्यक्षवादी बने रहे। जाति, वातावरण तथा क्षण इन तीनों तत्त्वों को उन्होंने काव्य की आत्मा में झांक कर देखा।

उनकी जाति समाज से जुड़ी थी, वातावरण चित्तवृत्ति को बनाने वाली स्थिति तथा क्षण वह काल था जिसमें रह कर रचनाकार ने उस साहित्य का सृजन किया था। इन तीनों तत्वों को लेकर वे उस छत पर जा पहुँचते हैं जहां से खड़े होकर साहित्यकार ने अपने युग को अपनी कविता को उन कवियों में व्याप्त दर्द को लिखा और महसूस किया था। उनकी प्रत्यक्षवादी दृष्टि उनकी आलोचना को वैज्ञानिक चिंतन देती है, जिसके द्वारा वे साहित्य की आलोचना करते हैं।

उनकी सैद्धान्तिक मान्यताएँ, चिंतामणि के निबंधों में समाई हुई है। उनमें ही उन्होंने सैद्धान्तिक समीक्षा के प्रतिमान निश्चित किए हैं। इसे ‘कविता क्या है?’, ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’, ‘साधारणीकरण और व्यक्ति-वैचित्र्यवाद’, ‘रसात्मक बोध के विविध रूप और प्रकृति’, ‘काव्य में अर्थ की योग्यता’, ‘प्रत्यक्षानुभूति एवं रसानुभूति’, ‘निबंध क्या है?’

आदि निबंधों द्वारा समझी जा सकती है। उन्होंने, पारंपरिक रसवादी विवेचन जो अपने आरंभिक दिनों के व्यापकता के बावजूद पंडित जगन्नाथ तक आते-आते संकीर्ण हो गया था उसे लोकमंगल के आदर्शवादी, उच्च भावभूमि से अनुनाद कराकर पुनः उसमें विस्फोट सा कर दिया।

साहित्य में सरसता महसूस की जाने लगी। हर साहित्य को लोकमंगलवाद की कसौटी पर कसा जाने लगा। रहस्यवाद (काव्य में रहस्यवाद) की जटिलताओं से दूर जाकर इन्होंने स्पष्टता को महत्त्व दिया। साधारणीकरण की व्याख्या में उन्होंने एक नई अवधारणा का भी ,काव्य सूत्रपात किया।

रामचंद्र शुक्ल की आलोचना दृष्टि वृहद जनवादी थी। हिंदी शब्द सागर की भूमिका जो बाद में ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ के रूप में आई, में उन्होंने अपनी आलोचनात्मक धारणा को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया है। जिसमें जनता और साहित्य की पारस्परिक रिश्तों को स्वीकार किया गया है।

उनकी आलोचना दृष्टि की सबसे बड़ी उपलब्धि लोकमंगलवाद का मानक है जिसके लट्टे से किसी भी साहित्य की सुंदरता, आदर्शपूर्ण-सामाजिक-कल्याणपरक स्थिति की उत्पत्ति की जा सकती है।

यह कसौटी उनकी हिन्दी आलोचना को दी गई सबसे बड़ी उपलब्धि है। “कविता का उद्देश्य हृदय को लोकमानस की भावभूमि पर पहुँचा देना है। यह कहना निश्चित ही जनतांत्रिक परंपरा को सुदृढ़ करना है।

वे लोक की भूमि पर अपने कदम मजबूती से जमाकर जीवन एवं साहित्य पर दृष्टि डालते हैं और उसकी व्याख्या करते है।” (विश्वनाथ त्रिपाठी-हिंदी आलोचना पृ.-55)।

काव्यशास्त्र संबंधी विवेचन में भी उन्होंने अपने दृष्टिकोण से भाव, विभाव एवं रस की पुनः व्याख्या की है। भाव उनके लिए “मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है, प्रत्यक्ष बोध अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गुण संश्लेष का नाम भाव है। मुक्त हृदय मनुष्य अपनी सत्ता को लोक सत्ता में लीन किए रहता है। लोक हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस दशा है। (रस मीमांसा, पृष्ठ-217 )।

उनकी प्रत्येक दृष्टि तार्किक व मनौवैज्ञानिक आधार लिए हुए थी रस की व्याख्या भी इससे अछूती नहीं रही। ‘साधारणीकरण’ प्रकृति के प्रत्येक दर्शन में होता है। जिस तरह काव्य में साधारणीकरण के फलस्वरूप काव्य के पात्रों की आत्मा का एकाकार हमारी आत्मा से हो जाता है।

उसी तरह प्रकृति दर्शन, उसके सृष्टि सौन्दर्य के दृष्टिपात से भी हमें आनंद दु:ख आदि भावों की प्राप्ति हो जाती है। यह साधारणीकरण का व्यापक स्वरूप परिलक्षित कराता है और इस व्यापकता को शुक्ल जी जैसे उत्कृष्ट आलोचक ही महसूस कर सके हैं।

शुक्ल जी काव्य के संदर्भ में अनुभूति या भाव और कल्पना दोनों को समान महत्त्व देते हुए कहते हैं, ‘काव्य के संबंध में ‘भाव’ और ‘कल्पना’ ये दो शब्द बराबर सुनते-सुनते कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनों समकक्ष हैं या इनमें कोई प्रधान है। यह प्रश्न या इसका उत्तर ज़रा टेढ़ा है, क्योंकि रस-काल के भीतर इनका युगपद अन्योन्याश्रित व्यापार होता है।’ (चितांमणि भाग-2, पृ.103)।

इसके बावजूद भी शुक्ल जी ने कल्पना के अतिरेक को काव्य में वर्जित ही माना है। उनकी दृष्टि में काव्य का वह साधन मात्र है। इसलिए उन्होंने पाश्चात्य समीक्षा के उन सभी सिद्धान्तों का निषेध किया जिनमें कल्पना को अतिरिक्त महत्त्व दिया गया था तथा प्रस्तुत विधान की उपेक्षा की गई थी।

इन सिद्धांतो में कलावाद, अभिव्यंजनवाद (Expressionism), मूर्तिमतवाद (Imaginism) संवेदनावाद (Impressionism) प्रतीकवाद (Symbocism) आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त उपमान युक्त ‘छायावाद’ ‘व्यक्ति-वैचित्र्यवाद’ और अंतश्चेतनावाद का विरोध किया और विरोध का मूल कारण इन सभी सिद्धांतों का ‘व्यक्तिवादी’ दृष्टि से प्रेरित होना बताया।

रामचंद्र शुक्ल की व्यावहारिक दृष्टि

शुक्ल जी की सैद्धान्तिक समीक्षा साहित्यिक रचनाओं के आधार पर स्थापित है अतः उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में संगति है। वे जहाँ सिद्धांत प्रतिपादन में प्रवृत्त होते हैं, वहाँ प्रचुर उदाहरण और उद्धरण देकर अपने कथन को प्रमाणित कर देते हैं।

उनके सिद्धांत ऊपर से थोपे हुए नहीं बल्कि साहित्य के रसास्वादन के माध्यम से प्राप्त हुए निष्कर्ष है वे ही उनके समीक्षा सिद्धान्त है। (हिन्दी आलोचना-विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ. 67,)

आलोचना के लिए सहृदयता आवश्यक होती है। शुक्ल जी ने प्राचीन साहित्य की युगानुकूल व्याख्या करते हुए इसे अपने युग की सौन्दर्य दृष्टि से व्याख्या कर प्रासंगिक व सन्दर्भवान बना दिया। तुलसीदास, सूरदास, जायसी, वाल्मीकि, कालिदास को प्रासंगिक व पुनः प्रतिष्ठित करने का श्रेय शुक्ल जी को है। वे शील, शक्ति, सौंदर्य को किसी भी नायक का उत्कृष्टतम गुण मानते थे।

शुक्ल जी का अधिकांश महत्त्वपूर्ण लेखन ‘भूमिका’ के रूप में हुआ। उनके काव्यचिंतन का विकास उनके प्रिय कवियों की व्याख्या के दौरान हुआ। इससे उन्हें हर भाव के प्रति गहरी व गूढ़ जानकारी मिल गई और उनमें अन्तर करने योग्य सामर्थ्य भी।

‘भाव या मनोविकार’ का विशद विवेचन चिंतामणि में मिलता है। भाव या मनोविकार, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, लोभ और प्रीति, श्रद्धा-भक्ति, करुणा, भय आदि का उन्होंने विशद विश्लेषण व व्याख्या की।

तुलसी का भक्तिमार्ग‘, ‘मानस की धर्मभूमि’, आनन्द की सिद्धावस्था, ‘मलिक मुहम्मद जायसी‘, ‘सूरदास‘, ‘तुलसी की भावुकता’, ‘बिहारी लाल’, घनानन्द’, ‘भारतेंदु और उनका मंडल’, ‘श्रीधर पाठक और स्वच्छंदतावाद’, ‘छायावाद’ आदि निबंधों में उनकी व्यावहारिक आलोचना दृष्टि मिलती है। जिसमें उन्होंने करुणा, प्रेम, शील व आनंद दशा की साधनावस्था तथा सिद्धावस्था को अनुभव किया और उन सबकी लोकमंगलवादी दृष्टि से व्याख्या भी की है।

आचार्य शुक्ल ने अपने सुचिंतित काव्य-प्रतिमानों का अपनी व्यावहारिक समीक्षाओं में बड़ी कुशलता से विनियोग किया।उनकी दृष्टि व्यावहारिक होते हुए भी सूक्ष्म विश्लेषण युक्त व मर्मग्राहिणी थी तथा वे आलोचना करते समय दूसरे आलोचकों से भी यही आशा करते थे उनका कथन था किइसके लिए सूक्ष्म विश्लेषण- बुद्धि और मर्म-ग्राहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.-249)।

शुक्ल जी ने स्थायी साहित्य में स्थान पानेवाले-तुलसी, जायसी, तथा सूर पर स्वतंत्र रूप में लिखी गई अपनी समीक्षाओं में इन कवियों की विचारधारा में डूबकर उनकी अंतर्वृत्तियों का विश्लेषण करने में अपनी सूक्ष्म बुद्धि और मर्म ग्राहिणी प्रज्ञा का परिचय दिया है।

‘तुलसीदास‘ काल क्रमानुसार उनकी पहली समीक्षा कृति है। शुक्ल जी ने इसे गोस्वामी तुलसीदास के महत्त्व के साक्षात्कार और उनकी विशेषताओं तथा उनके साहित्य में छिपी दृष्टियों के लघुप्रयत्न के रूप में लिखा।

इसमें उन्होंने तुलसीदास की भक्ति पद्धति, उनके आदर्श, उनकी लोकमंगलवादी दृष्टि तथा लोकादर्श का नितांत मौलिक व उत्कृष्टतम स्वरूप से विवेचन किया है। तुलसीदास चूंकि उनके प्रतिमान हैं, आदर्श है, समन्वय संस्थापक हैं अतः शुक्ल जी ने उनके व्यक्तित्व व उनके काव्य की गहरी छानबीन की।

किसी कवि को महान बनाने के लिए एक बड़े आलोचक की भी आवश्यकता होती है इस अर्थ में तुलसी का काव्य शुक्ल जी का ऋणी है। शुक्ल जी के अनुसार तुलसीदास शुद्ध भारतीय परम्परा समाज व संस्कृति के जीते जागते प्रतीक थे तथा उनका काव्य इसका प्रमाण बना।

उनके राम शील, शक्ति व सौन्दर्य से युक्त लोकोत्तर चरित्र हैं और उनके उपास्य भी। गोस्वामी तुलसीदास के राम में भक्तों के हृदय को अपनी ओर आकृष्ट करके उसे अपनी वृत्तियों की ओर ढालने की अद्भुत क्षमता है और यही शील उनके भक्तों के भक्ति का मूल है।

शुक्ल जी का इस सन्दर्भ में कथन है कि- ‘भक्ति और शील की परस्पर स्थिति भी ठीक उसी प्रकार बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से है, जिस प्रकार आश्रय व आलम्बन की। और आगे चलिए तो आश्रय और आलम्बन की परस्पर स्थिति भी ठीक उसी प्रकार है जैसे ज्ञाता और ज्ञेय की।’

शुक्ल जी के अनुसार राम का अयोध्या से निर्वासन, वन गमन, चित्रकूट में भरत और राम का मिलन, शबरी का आतिथ्य, लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप, भरत की प्रतीक्षा आदि रामकथा के मर्मस्पर्शी संदर्भ हैं। चित्रकूट में ‘भरत और राम का मिलन’ के संदर्भ में शुक्ल जी कहते हैं- “यह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का तथा नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन के संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य, यह झाँकी अपूर्व है।” (गोस्वामी तुलसीदास पृ.-52)।

शुक्ल जी वस्तु परिगणन शैली को हेय मानते थे और इसीलिए वे तुलसीदास के वस्तु परिगणन शैली की उपेक्षा की प्रशंसा करते हैं। भावों के उत्कर्षक के रूप में जब गोस्वामी जी अलंकारों का प्रयोग करते है तो शुक्ल जी भी इस प्रयोग का समर्थन करते हैं।

शुक्ल जी मर्यादावादी थे जिनके सामाजिक आदर्श भी उच्च भावभूमि पर स्थित थे। अत: वे तुलसीदास के काव्य में भी आदर्शों व लोक मर्यादाओं को देखते हैं उनके रामराज्य की स्थापना की लोकमंगलवादी दृष्टि से वे अभिभूत हो जाते हैं।

वे तुलसी की सहृदयता, प्रबन्धात्मक शक्ति, मेधा, भावुकता, अनुभूति, प्रभाव-साम्यता, रसवादिता आदि की प्रशंसा करते है तथा उन्हें हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ कवि घोषित करते हैं। तुलसी के काव्य की विशेषताएँ शुक्ल जी की व्यावहारिक आलोचना को दृष्टि प्रदान करते हैं तथा सैद्धान्तिक आलोचना का निर्माण करते हैं। शुक्ल जी इसके लिए गोस्वामी जी के कृतज्ञ हैं तथा तुलसी का काव्य शुक्ल जी जैसा महान आलोचक पाकर अमर हो गया।

जायसी को शुक्ल जी ने श्रेष्ठता के दूसरे पायदान पर स्थान दिया है, इसका कारण पद्मावत में व्याप्त प्रबंध नियोजन, लोकधर्मिता तथा मानवीयता ही है। जायसी का उदात्त हृदय एकता में विश्वास रखता है। जायसी के अनुसार हिंदू मुस्लिम सभी का सुख-दु:ख व विरह एक है।

‘शुक्ल जी ने जायसी की अपनी दो सौ पृष्ठों की विस्तृत समीक्षा में प्रेम गाथा परंपरा, जायसी का जीवन वृत्त, पद्मावत की कथा और उसका ऐतिहासिक आधार, पद्मावत की प्रेमपद्धति, ईश्वरी-मुख-प्रेम, मत और सिद्धांत, जायसी का रहस्यवाद, जायसी की जानकारी आदि अनेक विषयों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है किंतु उनकी प्रवृत्ति मुख्यतः जायसी की प्रबन्ध कल्पना, स्वभाव चित्रण, रस-निरुपण, भाव व्यंजना, अलंकार विधान और काव्यभाषा जैसे विषयों के विवेचन में ही रमी है निश्चय ही इन विषयों का उनका विवेचन श्लाघ्य है।’ (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- रामचन्द्र तिवारी, पृ. 62)।

शुक्ल जी ने जायसी के विरह वर्णन की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। पदमावत में नागमती का विरह पशु-पक्षी सभी को एकसूत्र में बांधती है। इसलिए शुक्ल जी उद्घोषणा करते हैं कि ‘जायसी का विरह वर्णन हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है।’ (जायसी ग्रंथावली, पृ. 40)

शुक्ल जी ने तुलसी और जायसी के समकक्ष ही सूरदास को माना है। इस संदर्भ में वे सूरदास की विवेचना करते हुए लिखते हैं कि ‘यदि हम मनुष्य जीवन के संपूर्ण क्षेत्र को लेते हैं तो सूरदास की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है, पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों- (शृंगार तथा वात्सल्य) को लेते हैं, तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अंतर्दृष्टि विस्तार और किसी कवि का नहीं है।’ (भ्रमरगीत सार की भूमिका, पृ.2)।

सूर के हृदय से निकली प्रेम की तीन प्रबल धाराओं (विनय के पद, बाल लीला के पद और प्रेम संबंधी सूर ने बड़ा भारी सागर तैयार कर दिया।

इस सागर में शुक्ल जी का मन रमता रहता है। गोप जीवन की स्वच्छंदता, गोचारण के मधुर दृश्य, गोपियों का दारुण वियोग तथा बाल कृष्ण की हठ चपलता, क्षोभ, प्रतिबिम्ब के पकड़न, चंद्रमा को खिलौना समझकर माँगने की हठ और माखन चोरी आदि जैसे भावों का सूर ने किया जिस पर शुक्ल जी जैसे सहृदय समालोचक के मन का मुग्ध होना स्वाभाविक ही था। वे सूर की वाग्वैदिग्ध्य, व्यंजना तथा अद्भुत कल्पना शक्ति की प्रशंसा करते हैं। रामचंद्र शुक्ल की आलोचना

शुक्ल जी ने छायावाद में उपस्थित रहस्यवादिता का विरोध किया। इसी आधार पर उन्होंने कबीर के काव्य का भी विरोध किया था। परन्तु उन्होंने अभ्यान्तर प्रभाव-साम्य के अनुसार अप्रस्तुत की योजना को छायावाद की बहुत बड़ी विशेषता माना है। शुक्ल जी ने छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद को रहस्यवाद के करीब खड़ा करके उनके समस्त काव्य (खासकर कामायनी) को उस आनंदवाद का प्रवर्तक बना दिया जो एकांतिक प्रेम की वकालत करता है।

इस प्रकार शुक्ल जी की आलोचना पांडित्यपूर्ण चिंतन, मौलिक विवेचन और गहन अनुशीलन का ऐतिहासिक मानदंड है। महाकवि तुलसीदास, सूरदास, जायसी पर लिखी गयी विस्तृत समालोचनाओं तथा ग्रन्थ भूमिकाओं द्वारा जहाँ उनकी मौलिक तर्क पूर्ण और अकाट्य स्थापनाएँ प्रकाश में आईं वहीं हिंदी समालोचना की दृष्टि व्यवस्थित और विकसित हो पाई है।

जीवन की समग्रता के कारण ही आचार्य शुक्ल ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ देखने के आग्रही थे। उन्होंने हिंदी की सैद्धान्तिक समीक्षा को नया तथा मौलिक रूप प्रदान किया। पाश्चात्यवादी प्रवृत्तियों एवं विचारधाराओं का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उसे नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का श्रेय शुक्लजी को जाता है। रामचंद्र शुक्ल की आलोचना

उनके अनुसार ‘किसी साहित्य में केवल शहर की भद्दी नकल से अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए खूब आए परन्तु वह कूड़ा-करकट के रूप में न इकट्ठी हो जाए, उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय, जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुंचे।” (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ.-550)।

शुक्ल जी प्रथम ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने हिंदी में सैद्धान्तिक समीक्षा के स्वतंत्र प्रतिमानों को विकसित किया है तथा उनकी प्रासंगिकता को व्यावहारिक साहित्य पर कसते हुए आगे बढ़ाया है। हिंदी के मौलिक समीक्षा शास्त्र की नींव भी उन्होंने रखी तथा उसे दृढ़ आधार भी प्रदान किया। वे क्रान्तिकारी युग प्रवर्तक आलोचक थे। रामचंद्र शुक्ल की आलोचना

उन्होंने साहित्य को रीतिवादी मानसिकता से पूर्णतः मुक्त कराते हुए रस जैसे वैयक्तिक तत्व को लोकमंगल से जोड़कर उसके भीतर निहित सामाजिक पक्ष को उभारा। उन्होंने संस्कृत के मानदंड व अंग्रेजी समीक्षा के प्रतिमानों से भी हिंदी आलोचना को सुसज्जित करते हुए साहित्य के संबंध में सुसंगत दृष्टिकोण का निर्माण किया है। उनके इस दृष्टिकोण का आधार ज्ञान का भौतिकवादी सिद्धांत है, जिसके अनुसार ज्ञान और भाव का आधार यह भौतिक जगत ही है। रामचंद्र शुक्ल की आलोचना

 

नलिन विलोचन शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ में कहा है कि शुक्ल जी से बड़ा समीक्षक संभवतः उस युग में किसी भी भारतीय भाषा में नहीं था। यह बात देखने पर उचित ठहरती है बल्कि ऐसा लगता है कि समीक्षक के रूप में शुक्ल जी अब भी अपराजेय है। निश्चितरूपेण शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि अत्यन्त उदात्त, व्यापक जीवन दृष्टि लिए हुए लोकमंगलवादी धरातल पर फैली हुई है। निश्चित रूपेण शुक्ल जी हिंदी आलोचना के शिखर पुरूष व अधिकृत आचार्य हैं।

 

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