रावण महिमा श्यामा विभावरी | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |
रावण महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम पूजन प्रताप तेजः प्रसार,
इस ओर शक्ति शिव की दशस्कन्धपूजित,
उस ओर रूद्रवन्दन जो रघुनन्दन कूजित,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्दस्वर
बोले “सम्वरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, नहीं हुआ श्रृंगार युग्मगत, महावीर।
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय शरीर,
चिर ब्रह्मचर्यरत ये एकादश रूद्र, धन्य,
मर्यादा पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य
लीलासहचर, दिव्य्भावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार,
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।”
रावण महिमा श्यामा विभावरी
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने इस तथ्य का वर्णन किया है कि जब हनुमान संपूर्ण आकाश को ग्रसित करने के लिए तत्पर हुए तो महाशक्ति को शिव ने यह कहकर समझाया कि तुम चातुर्यपूर्वक इनको समझाकर शांत करने की चेष्टा करो।
व्याख्या – कवि कहता है कि हनुमान ने आकाश में देखा किसमें रावण की महिमा को सुरक्षित रखने वाली महाशक्ति रात्रि के अंधकार की भांति विकराल रूप में परिव्याप्त है। कवि कहता है कि उसमें एक ओर तो शाम-वर्ण वाली महाशक्ति थी जबकि दूसरी ओर राम की पूजा करने और उनके तेज को धारण करने वाले रुद्र रूपमान थे।
एक ओर तो रावण के द्वारा पूजी जाने वाली शिव की शक्ति थी, जबकि दूसरी ओर राम द्वारा की गई शिव- वंदना से प्राप्त शक्ति से ओत-प्रोत हनुमान थे और उसी शक्ति के बलबू र हनुमान समग्र आकाश को ग्रस्त करने के लिए अडिग भाव से बढ़ते जाते थे। संभावित विना ग़ के कारण सदैव अडिग रहने वाले शिव भी क्षण भर को विचलित हो उठे और महाशक्ति के पदतल के भार को धारण करने वाले शिव गंभीर स्वर में महाशक्ति से कहने लगे
हे देवि! अपने तेज का संवरण करने का प्रयास करो – अपना तेज रोको। यह हनुमान साधारण बंदर नहीं है, इसका जन्म पति-पत्नी के मैथुन के फलस्वरूप नहीं हुआ है अर्थात् इसका जन्म अयोनिज और अलौकिक रूप में हुआ है । यह महाबलशाली है और राम की पूजा का साकार रूप है। ‘नहीं हुआ शृंगार-युग्म – गत’ का एक अर्थ यह भी संभव है कि यह हनुमान अभी तक किसी नारी के प्रेम-पाश में आबद्ध नहीं हुआ है।
यह अखंड ब्रह्मचर्यव्रत धारी है और एकादश रुद्र के समान धन्य है अर्थात् ग्यारहवें रुद्र का अवतार है । (रुद्र शिव का ही प्रलयंकर रूप होता है) यह मर्यादा पुरुषोत्तम राम की लीला का साथी है, अलौकिक भावनाएं धारण करने वाला है। यदि तुम इस पर प्रहार करोगी तो तुम्हारी बुरी तरह हार होगी । भाव यह है कि हनुमान को बल के द्वारा परास्त नहीं किया जा सकता। यदि तुम चतुराई से काम लोगी तो यह वानर तुम्हारे सम्मुख विनम्र बन जाएगा और यह संकट टल जाएगा।
विशेष
1. प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने शिव और शक्ति को क्रमशः राम और रावण के पक्ष में प्रदर्शित किया है। महाशक्ति तो रावण के पक्ष में थी जबकि राम द्वारा पूजित शिव राम की ओर थे।
2. रावण के पक्ष की तमोगुणी शक्ति को राम के पक्ष की सतोगुणी शक्ति से परास्त हो जाने की संभावना व्यक्त की गई है।
3. हनुमान की अपरिमेय शक्ति को उभारने के लिए उन्हें अखंड ब्रह्मचारी बताया गया है।
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