रीतिकालीन काव्य और घनानंद

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रीतिकालीन काव्य और घनानंद रीतिकाल के मध्याह्न के कृती कवि हैं, मतिराम, भूषण, बिहारी आदि उनके पूर्ववर्ती हैं और चिन्तामणि, तोष, देव, पद्माकर आदि परवर्ती। इतिहास में यह वह काल था जब मुगलों का वैभव, अस्ताचलगामी हो रहा था। कला के क्षेत्र में प्रेम, शृंगार का बहुल प्रचार था।

प्रेम आध्यात्मिक रुचि के लोगों के लिए सभी धर्म से प्रभावित रहस्यात्मक था और सामान्य रसिकों के लिए भौतिक शृंगारमय। हिन्दी साहित्य के इस काल को रीतिकाल कहा गया है। हिन्दी साहित्य का उदय लोक भाषा के रूप में हुआ था। पूर्व मध्य काल में जो भक्ति प्रधान रचनाएँ भक्त कवियों ने की थीं उनमें तुलसी, नंददास जैसे कतिपय विद्वानों को छोड़कर अधिकतर लोग कबीरदास, सूर, कुंभनदास जैसे साधारण लोग ही थे।

रीतिकालीन काव्य और घनानंद

इन्होंने साहित्य की परंपरा का परिचय प्राप्त किये बिना ही स्वानुभूति की अभिव्यक्ति की और जिस क्षेत्रीय भाषा से उनका व्यावहारिक परिचय था उसी को उन्होंने काव्यभाषा बना लिया। जायसी, तुलसी ने अवधी को और सूर, परमानंद आदि ने बृजी को अपनाया। मीरा के लिए राजस्थानी माध्यम बनी। इस प्रकार एक ओर यह वाङ्मय मौलिक बन गया दूसरी ओर शास्त्रानपेक्ष भी। रीतिकालीन काव्य रीतिकालीन काव्य

लोकभाषा की इसी परंपरा में रीतिकाल की काव्य परंपरा का विकास हुआ। अपने पूर्ववर्ती कवियों से यह परंपरा इस अर्थ में भिन्न थी कि इसमें आधिदैविकता, ईश्वर के अवतारी रूप का प्रभाव, क्षीण हो गया। कविता देव लोक से उतर कर सहृदय साधारण के बीच पृथ्वी पर विचरण करने लगी। साहित्य के भीतर सन्निविष्ट होने के लिए किसी रचना में सर्वमान्य भावसत्ता का आधार अनिवार्य होता है, वैसी भावसत्ता हिन्दी भारती को पहले पहल इसी काल में मिली।

! उत्तर मध्य काल में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से जन्मी कि कवियों की दृष्टि, काव्य रचना प्रक्रिया के लिए प्राचीन संस्कृत के साहित्य शास्त्रों की ओर गयी। संस्कृत में काव्य समीक्षा के लिए निर्धारित मानदण्ड जैसे अलंकार तत्त्व, ध्वनितत्त्व और रस तत्त्व, औचित्य तत्व आदि तो सिद्धान्त रूप में विद्यमान थे ही, कवि शिक्षा पर भी अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध थे। राजशेखर की काव्य मीमांसा, एवं काव्य कल्पलता वृत्ति आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं।

हिन्दी भाषा के कवियों ने लोक भाषा कवि होने की अपनी हीनभावना को दूर करने और लोकभाषा के साहित्य को शास्त्र का संबल देकर गरिमा प्रदान करने के उद्देश्य से प्राचीन साहित्य शास्त्र को काव्य रचना का मानक बना लिया।

इसके फलस्वरूप उस काल के कवि विद्वान् कहलाये। राज दरबारों में उन्हें विशेष आदर प्राप्त हुआ। केशव इसके निदर्शक हैं। उन्हें ‘भाषाकवि’ होने में हीनता प्रतीत होती थी। उन्होंने रसिक प्रिया, कविप्रिया, ग्रन्थ संस्कृत की गरिमा हिन्दी में उतारने के ध्येय से लिखे और अपनी रचनाओं का आदर्श शास्त्रीय मार्ग को बनाया। केशव रीति पंरपरा के प्रवर्तक आचार्य बने। रीतिकालीन काव्य रीतिकालीन काव्य

इस परंपरा में दो प्रकार के कवि हुए। कुछ ने काव्य शास्त्र के ग्रन्थों का प्रणयन किया और उनके नियम उपनियमों के उदाहरण स्वरचित पद्यों से दिये। इसमें उनका आचार्यत्व और कवित्त्व दोनों व्यक्त हुए। इसलिए इन्हें आचार्य कवि कह सकते हैं। मतिराम, चिन्तामणि देव, पद्माकर आदि इसी श्रेणी के कवि हैं। दूसरे ऐसे भी कवि हैं जिन्होंने कोई काव्य शास्त्र का ग्रन्थ तो नहीं रचा पर कविता काव्यशास्त्र के नियमों के अनुसार ही की। इन्हें रीति प्रमाणित कवि कहना ठीक होगा। बिहारी इसी वर्ग में आते हैं। रीतिकालीन काव्य रीतिकालीन काव्य

रीति काल का एक तीसरा वर्ग और है। ऐसे स्वतंत्र चेता कवि भी इस काल में हुए जिन्होंने शास्त्र की काव्य परंपरा को त्यागकर अपनी संवेदना और अनुभूति को स्वतंत्र अभिव्यक्ति प्रदान की। ये कृती रीति मुक्त या रीति कालीन स्वच्छन्दतावादी कवि कहलाते हैं। घनानंद इस वर्ग के सर्व प्रमुख कवि हैं। वह इस परंपरा के प्रवर्तक कवि हैं।

स्वच्छन्दतावाद को पश्चिमी साहित्य की देन समझने वाले कुछ विद्वान् आधुनिक काल के प्रसाद, पंत, महादेवी वर्मा आदि को ही स्वच्छन्तावादी कहना पसन्द करते हैं। रीतिकाल के घनानंद को अधिक से अधिक रीति मुक्त कहना उन्हें प्रिय है। इस संदर्भ में एक घटना बताकर अपनी बात कहना पर्याप्त होगा।

कविवर दिनकर जी से एक भेंट में घनानंद की चर्चा चल पड़ी। उन्होंने कवि का कोई ऐसा छंद सुनाने को कहा जो उसकी पहचान कहा जा सके। उन्हें निम्नलिखित सवैया सुनाया गया।

अंतर हौं किधौं अंत रहौ दृग फारि फिरौकि अभागनि भीरौं। 

आगि जरौं अकि पानी परौं अब कैसी करौं हिय का विधि धीरौं।

जौ घन आनंद ऐसी रुची तो कहा बस हैं अहो प्राननि पीरौं।

पाऊँ कहां हरि हाय तुम्हें, धरती में धसौं कि अकासहि चीरौं। 

 

सवैया सनकर दिनकर गदगद हो गये और कहने लगे कि स्वच्छन्दतावाद का सर्वप्रथम हिन्दी कवि घनानंद हैं।

रीति परंपरा में आबध्द कवियों की काव्य कला और घनानंद की काव्यकला में बहुत बड़ा अन्तर है। काव्य की साधना में साध्य और साधन दोनों पर दृष्टि रखनी पड़ती है। रीति धारा के कर्ताओं ने साधन पक्ष पर जितना अधिक ध्यान दिया उतना साध्य पक्ष पर नहीं। अर्थात् उनकी कला में रीतिबद्ध अभिव्यक्ति पक्ष विशेष रूप से सँवारा गया भाव पक्ष या अनुभूति पक्ष उपेक्षित रहा।

उनकी बुद्धि काव्य के बाह्य पक्ष को सुन्दर प्रभावी और चमत्कारी बनाने में लगती थी। यह वे अभ्यास और शिक्षा के बल पर करते थे। रीति मुक्त धारा के ही कवि ठाकुर ने इस प्रकार के कविकर्म पर व्यंग्य कसते हुए कहा है कि ऐसी कविता स्थूल और प्राणहीन शरीर जैसी होती है। कवित्त इस प्रकार है ।

सीखि लीनो मीन मृग खंजन कमल नैन, 

सीखि लीनो जस औ प्रताप को कहानो है। 

सीखि लीनो कल्प वृक्ष कामधेन चिन्तामनि. 

सीखि लीनो मेरुऔ कुबेर गिरि कानो हैं। 

ठाकुर कहत याकी बडी है कठिन बात, 

याको नहीं भूलि कइँ बोधियत बानो। 

डेल सो बनाये आय मेलत सभा के बीच, 

लोगन कबित्त कीबो खेल करि जानो है।

 

घनानंद ने एक सवैया में अपनी रचना प्रक्रिया का संकेत दिया है। उसमें कवि ने संवेदना को काव्य का मूल बताया है। अनुभूति को सही वाणी दे देना यहीं इनके अनुसार सच्ची कविता है। “सुजान के तीखे कटाक्ष वाणों के समान घनानंद की ओर आते हैं। वे पानी में बड़े होकर भी कवि के प्राणों के प्यासे हैं। जादू सा करते जाते हैं, घायल कर देते हैं। कवि की संवेदना विह्वल हो जाती है और वही वाणी बद्ध होकर कविता बन जाती है अपनी काव्य प्रक्रिया में कवि की चेतना भावमग्न रहती है। कविता अपने आप बन जाती है जबकि दूसरे लोग मेहनत करके उसे गढ़ते हैं।

ईछन तीछन बान बरवान सों पैनी दसान लै सान चढ़ावत

 प्राननि प्यासे, भरे अति पानिप, मायल घायल चोंप, चढ़ावत। 

यौँ घनआनंद छावत भावत जान सजीवन ओरे ते आंवत।

 लोग हैं लागि कवित्त बनावत मोहितो मेरे कवित्त बनावत।

 

घनानंद के अनुसार कविकर्म की सफलता संवेदना की तीव्रता में निहित है। इस अवस्था में बुद्धि की क्रिया गौण और मोहन वृत्ति (रीझ) की क्रिया मुख्य बन जाती है। प्रतीकात्मक शैली में कवि ने कहा है कि “रूप सेनापति की भाँति जब सज धजकर खड़ा होता है तो दृष्टा का धैर्य गढ़पति की भाँति गढ़ छोड़ कर भाग जाता है। नेत्र सेनापति से ही मिल जाते हैं। लज्जा लुट जाती है, प्रेम की दुहाई फिरने लगती है। रीझ अर्थात् मोहनवृत्ति पटरानी बन जाती है और बेचारी बुध्दि दासी बनकर रह जाती है। रीतिकालीन काव्य रीतिकालीन काव्य

रूप चमूय सज्यौ दल देखि भज्यौ तजि देसहि धीर मवासी। 

नैन मिले उरके पुर पैठते बाज लुटी न छुटी तिनका सी। 

प्रेम दुहाई फिरी घन आनंद बांधि लिये कुलनेम गुढ़ासी।

रीझ सुजान सची पटरानी बची बुधि बापरी है कर दासी।

 

घनानंद का जीवनवृत्त निश्चित रूप में तो अज्ञात ही है। किंवदन्ती के सहारे इस विषय में कुछ कहा जाता है। लेकिन इतना निश्चित है कि कवि अपने जीवन काल में सुखी नहीं रहा। वह भीतर-भीतर जलता बुझता रहा। उसे सुजान के वियोग और संयोग दोनों ने कभी छोड़ा ही नहीं। व्यथा में समय बिताना कठिन हो गया। कवि खीझकर कहता है कि ऐसे प्राणी को जन्म देकर विधाता ने क्या लाभ कमा लिया।

 

कहियै काहि जलाय हाय जो मो मधि बीतै। 

जरनि बुझौं दुख जाल धकौं, निसि बासर ही तैं। 

दुसह सुजान वियोग बसौं के सँजोग नित। 

बहरि परै नहिं समै गमै जियरा जितको तित। 

अहो दई रचना निरखि रीझि खीझि मुरझौ सुमन।

ऐसी विरचि विरचिको कहा सरयौ आनंद घन।।

एक कवित्त में कवि ने सुजान के वियोग में मृत्यु प्राप्त होने का वर्णन भी किया है। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण में घनानंद ने जब प्राण त्यागे तब भी उन्हें सुजान की सुधि नहीं भूली। वह प्रतीक रूप में निर्दिष्ट है अथवा यथार्थ रूप में पर प्रेमी के जीवन की सन्ध्या का हृदयस्पर्शी वर्णन है

बहुत दिनानके अवधि आस-पास परे खरे अरवरनि भरे हैं उठि जान को कहि कहि आवन सदसौ मन भावन को गहि गहि राखति ही दै बैं सनमान को झूठी बतियानि की पत्यानि तै उदास वै के अब न धिरत घन आनंद निदान को। अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान चाहत चलन ये संदेसो लै सुजान को। ऐसा दुखी पीड़ित जीवन, पीड़ा प्रधान काव्य का ही प्रणेता हो सकता है। वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान। रीतिकालीन काव्य रीतिकालीन काव्य

पीड़ा मार्मिक अनुभूति को जन्म देती है। मार्मिक अनुभूति अपनी अभिव्यक्ति के लिए अपना ही नया मार्ग खोज लेती है। घनानंद की कविता निजी अनुभूति की निजी अभिव्यक्ति है। उनकी कविता का प्रधान स्वर वेदना का है। एक कविता में उन्होंने अपनी कविता की सामान्य विशेषता की ओर इंगित किया है।

घनानंद का काव्य उनकी आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति है। उन्होंने सुजान के संयोग का सुख भोगा था और बाद में उसके वियोग की वेदना को भी सहा। इन दोनों दशाओं की गहरे में अनुभूति प्राप्त की थी। उसी को कवि ने काव्य निबद्ध कर दिया। जोग वियोग की रीति में क्योंकि घनानंद की चेतना अत्यधिक संवेदना प्रधान है। इसलिए जीवन के खट्टे मीठे अनुभव उनके हृदय के गहरे में बैठ जाते हैं।

यह कहना कठिन है कि उनकी वर्ण्य वस्तु अत्यधिक प्रभविष्णु है या उनकी अनुभूति ही विशेष रूप से भावुकता प्रवण है। प्रेयसी सुजान का चित्र रूपायित करते हुए कवि कह उठता है कि उसकी आँखों में सुजान के रूप के विविध रंगों से चित्र बन जाता है यह निर्णय करना कठिन है कि यह रूप की विचित्रता है या देखने वाले की विलक्षणता।

 

हँसनि लसनि आछी बोलनि चितौनि चाल, 

मूरति रसाल रोमरोम छवि हेरे की। 

अंग अंग आभा संग द्रवित संवित हवै कै, 

रुचि रुचि लीनी सौंज रंगनि घनेरे की। 

लिखिराख्यौ चित्रयौँ प्रवाह रूपी नैननि पै, 

लही न परति गति उलटि अनेरे की। 

रूप को चरित्र है आनंद घन जान प्यारी, 

अकि धौं विचित्रताई मोचित चितेरे की।

 

रीति परपरा के कवियों ने साहित्यशास्त्र की नायिका का वर्णन किया है किसी देखी-भाली, मन में बैठी सुन्दरी का नहीं। घनानंद इसके विपरीत अपनी प्रेयसी के चितेरे हैं, उन्होंने सुजान के रूप, चेष्टाओं, स्वभावगत अलंकरण, नृत्य, शयन, गायन, मदिरापान आदि का विवरण सहित वर्णन किया है। यह सब कवि की स्वानुभूति है।

सोकर उठी अलसायी सुजान का एक चित्र नीचे लिखे सवैया में देखने लायक है

 

रस आरस सोय उठी कछु भोय लगी लसैं पीक पगी पलकें,

 घन आनंद ओप बढ़ी मुख और सुझेलि फबीं सुथरी अलकै। 

अंग राति जम्हाति लजाति लखें, अंग-अंग अनंग दिपैं झलकें।

अधरानि में आधिय बात धरै लड़कानि की आनि परी छलकैं।

 

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि घनानंद ने समय की परिधि में बंधे अपने जीवन का काव्य लिखा है, शास्त्रीय नियम उपनियमों का बखान नहीं किया। यही उनकी स्वच्छन्तावादी प्रवृत्ति है।

घनानंद के विषय में यह भी किंवदन्ती है कि वे फारसी के भी जानकार थे, यद्यपि उनकी भाषा में फारसी या उर्दू का प्रभाव नहीं के बराबर है। पर अनुभूति प्रधान प्रेम को काव्य का मुख्य विषय बनाने में और उसे रहस्यवादी एवं व्यंजक बनाने में कवि ने फारसी की काव्य शैली से प्रेरणा ली।

अन्य कवियों की भाँति घनानंद भी अपने समय के आलोचक हैं, उनके समय में भी सामान्यतः लोग निष्ठुर, हृदयहीन और आत्मपरक थे। उनका स्वयं से ही प्यार था। अतः घनानंद का प्रेम विषम हो गया। यह उस समय के समाज की विषम गति का व्यंजक है। फारसी में प्रेम प्रतीक रूप में वर्णित होता है। वह व्यंजना द्वारा जीवन के समस्त सुख दुःखों का व्यंजक बनता है। घनानंद ने भी इस व्यंजकता का पुट अपनी अभिव्यक्ति में दिया है।

उनकी उक्ति में जो स्थान-स्थान पर मार्मिकता और विषमता प्रतीत होती है। वह प्रेम शृंगार के कारण ही नहीं जीवन के व्यापक रूप की पीड़ा और अभाव उसमें झलकते हैं। एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि यह संसार मनुष्यों का जंगल है इसमें मानव का मिलना दुर्लभ है। मानव रूप में भेड़िये, स्यार बहुत हैं। ऐसी दुनिया में रहने वाले प्रेमी स्वभाव के व्यक्ति को पीड़ा ही प्राप्त हो सकती है घनानंद की कविता में जो पीड़ा का प्राधान्य है उसका कारण पतनशील सामान्तशाही का विषम जीवन भी है। नीचे लिखे सवैये में कवि की इसी मानसिकता की झलक मिलती है।

 

लै ही रहे हौ सदा मन और कौ, दैबौन जानत जानदुलारे।

 देख्यौ न है सपने हूँ कहूँ दुखं, त्यागे सकोच औ सोच सुखारे। 

कैसौ संयोग वियोग धौ आहि, फिरौ घन आनंद वै मतवारे।

नि मो गति बूझि परै तबहि जब होहु घरीक लौ आपु ते न्यारे।

प्रेमानुभूति की अध्यात्मपरक रहस्यवादी अभिव्यक्ति की घनानंद ने सूफियों या उर्दू-फारसी के अध्यात्मवादी कवियों की प्रेरणा से प्राप्त की प्रतीत होती है। हिन्दी साहित्य के लिए यह एक सुयोग ही था कि यहाँ उर्दू-फारसी का भिन्न स्वभाव का वाङ्मय लिखा जा रहा था। उसके सद्गुणों को पचा लेना हिन्दी के स्वास्थ्य के लिए अच्छा ही होता। कवि शास्त्रोन्मुख न होकर आत्मोन्मुख होते।

आधुनिक युग में छायावाद और उसके बाद के हिन्दी साहित्य ने पश्चिमी साहित्य से प्रेरणा लेकर अपना रूप विकसित किया है। घनानंद ने इस सौष्ठव को प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया। उसे पचा कर भारतीय संस्कृति और ब्रजभाषा के रूप में व्यक्त किया। ‘रीझ पचाय के डौलते भूखे’।

उर्दू के साहित्य में दैनिक बोलचाल की भाषा में हृदय की अनुभूतियों को चमत्कार पूर्ण शैली में व्यक्त किया जाता है। उक्ति में बारीकी और मुहावरों का प्रयोग उसकी अभिव्यक्ति को जीवन्त बनाये रहता है। घनानंद की अभिव्यक्ति और अनुभूति में भी यह प्रेरणा झलकती है। लेकिन यह प्रेरणा ही है अनुकरण नहीं। रीति काल के अन्य सभी कवियों ने उर्दू फारसी के शब्दों का प्रयोग किया है पर घनानंद की भाषा विशुद्ध ब्रजी है।

लक्षणा और मुहावरों के कारण उसकी अभिव्यंजना शक्ति बढ़ा ली गई है। इस दिशा में घनानंद ब्रज भाषा के अकेले ही कृती कवि हैं। उन जैसा सूक्ष्म अनुभविता और अपनी ही भाषा का अनोखा खिलाड़ी रीतिकाल क्या समस्त ब्रजभाषा के इतिहास में दूसरा कवि नहीं है। रहस्यवादी व्यंजना से युक्त सरल ब्रजभाषा की प्रेमाभिव्यक्ति नीचे लिखे सवैया में ध्यान देने योग्य है।

मंतर में उर अन्तर मैं सुलहै नहिं क्यों सुखरासि निरन्तर,

 दन्तर हैं गहे आँगुरी ते जो वियोग के तेह तचे पर तंतर, 

जो दुख देखति हौं घन आनंद रैनि-दिना बिना जान सुतंतर

जानैं बेई दिनराति बखाने ते जाय परै दिनराति को अंतर।

 

पद्य की पहली पंक्ति की अभिव्यक्ति रहस्यवादी है। ‘दंतर है गहे आँगुरी’, ‘जाय परै दिनराति कौ अंतर’ में लोकोक्ति और मुहावरे हैं, ‘जानै वेई दिनराति’ में लक्षणा है। यह सब कवि के प्रयोग विधान की क्षमता का फल है। घनानंद अपनी अनुभूति को व्यक्त करने के लिए किसी का ऋणी होना नहीं चाहता। वह अपनी ही दौलत का सुप्रयोग करना जानता है। इस विशेषता की दृष्टि से रीतिकाल के इतिहास में घनानंद का स्थान बहुत ऊँचा है। वह ब्रजभाषा प्रवीन तो हैं ही “भाषा प्रवीन” भी हैं। भाषा के स्वानुरूप प्रयोग करने में समर्थ। ”

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