संस्कृत की दरबारी काव्य परंपरा का रीतिवाद इस काल की स्थिति परिस्थिति का सहारा पाकर प्रबल हो गया। इस रीतिवादी प्रबलता में प्रधान रूप से अलंकार-निरूपण, शृंगार चित्रण, बारहमासा वर्णन तथा नायक-नायिका भेद की परंपरा को प्रश्रय दिया।
संस्कृत की रीतिवादी परंपरा का अनुकरण इस हद तक किया गया कि केशवदास, चिंतामणि, मतिराम एवं भूषण आदि ने कथ्य और कथन दोनों की भंगिमा में सामंत वर्ग की सौंदर्याभिरुचियों का पोषण किया।
यह सामंत वर्ग 17-18वीं शताब्दी में इतना पतित हुआ है कि दरबारी काव्य परंपरा पर उस पतन की सीधी छाप दिखाई देती है। इस दरबारी काव्य परंपरा का सीधा विरोध रीतिकाल की अंतिम सीमा रेखा पर आधुनिक काल के प्रवर्तक भारतेंदु बाबू ने किया और इसकी रूढ़ियों से साहित्य को मुक्त किया। इस काल में यह भी सिद्ध हुआ कि रीतिकाव्य का शृंगार रसवादी न होकर चमत्कारवादी, झूठा एवं कृत्रिम है। जीवन एवं काव्य के प्रति इनकी प्रवृत्तियों का दृष्टिकोण केशव के इस दोहे में देखा जा सकता है
जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त ।
भूषण बिनु न बिराजई, कविता, बनिता, मित्त ।।
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रीति ग्रंथों का निर्माण (रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों)
रीति ग्रंथों का निर्माण इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति है। रीतिग्रंथ का मतलब उस लक्षण ग्रंथ से है, जिसमें काव्यांगों का लक्षण-निरूपण करके उनके उदाहरण के रूप में स्वनिर्मित पद दिए जाते थे। इस काल के कवियों ने कविता लिखने की यह प्रणाली बना ली थी कि पहले दोहे में लक्षण लिखते थे और फिर उसके उदाहरण के रूप में स्वनिर्मित कविता उपस्थित करते थे।
इसलिए इस काल का रचनाकार आचार्य और कवि दोनों का काम एक साथ निबाहने का प्रयत्न करता था। लेकिन इससे सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण पर गहरा असर पड़ा। साथ ही इस काल के लक्षण-ग्रंथों में नए सिद्धांत, नए मत सामने नहीं आए, बल्कि पुराने मतों को ही दुहराया गया।
इन रीतिकालीन विद्वानों में उस प्रौढ़ एवं संतुलित विवेचन शक्ति का अभाव था, जो एक आचार्य के लिए जरूरी होता है। अतः ये कवि आचार्य कोटि में नहीं आ सकते।
इस प्रवृत्ति का मूल भी इस काल के सामंतों की मनोवृत्ति में ढूंढा जा सकता है। ये साहित्य के पारखी नहीं थे, बल्कि ऐसे विलासी रईस थे, जिनमें तर्क की सूक्ष्मता को समझने की न तो शक्ति थी, न ही उन्हें अवकाश था। फिर भी काव्य को समझने के लिए उसके विषय में थोड़ा बहुत जानना भी जरूरी था। इस काल के कवियों ने उनकी इसी आवश्यकता की पूर्ति की।
इन रीति ग्रंथों के रचयिता सहृदय और कुशल कवि थे। उनका मूल उद्देश्य काव्य की रचना करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय निरूपण करना। अतः उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से रस और अलंकार आदि के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
पर ध्यान रखना होगा कि इस काल में कवियों ने ‘शास्त्र’ पहले लिखा है- कविता बाद में। प्रेम-शृंगार के वर्णन में इन कवियों का भावनालोक उदात्त एवं परिपरिष्कृत से कोसों दूर है। फूहड़पन और कुरुचि का काव्य में साम्राज्य है।
शृंगार वर्णन
इस काल के साहित्य में शृंगार की प्रधानता है। इसका कारण भी उस काल के सामाजिक संदर्भो, साहित्यिक परंपराओं और राजाओं की मनोवृत्ति में ढूंढा जा सकता है। सामंत वर्ग काम देवता का उपासक था और नारी में काम रीति का स्वाद ही इन्हें प्रिय था। ये अपने जीवन में ही नहीं कविता में भी शृंगार देखना चाहते थे।
अतः इस काल के कवियों ने शृंगार को केंद्र में रखकर कविता लिखी। पर इस काल के शृंगार (स्वच्छंद धारा को छोड़कर) में संतुलित दृष्टि का अभाव है। इसमें प्रेमिका का व्यक्तित्व नहीं उभर सका है। इस काल के शृंगार का आधार है- नारी का मांसल शरीर, सूक्ष्म आत्मा नहीं।
मादकता रीतिकालीन शृंगार की उल्लेखनीय विशेषता है। रीतिकालीन कवि अपनी कविता को मादकता के तत्वों से परिपूर्ण रखना चाहता था। इसीलिए कवि आडंबरपूर्ण वातावरण और भड़कीली वेश-भूषा का वर्णन करता है। उनकी नायिकाएँ विशाल महलों में रहती हैं, उनकी सेज की चादरें चाँदनी को लज्जित करती हैं। ऐसी नारी उन्हें पसंद नहीं जिसमें कटाक्ष निक्षेप की क्षमता न हो।
रीतिकालीन काव्य राधा और कृष्ण का नाम बार-बार लिया जाता है। पर नाम ले लेने भर से ये भक्त कवि नहीं हो सकते, क्योंकि इनकी मूल प्रेरणा भक्ति नहीं है। प्रधानता ऐहिकतापरक शृंगार की है। भक्ति भावना का इस्तेमाल कवियों ने ढाल के रूप में किया । है। रीतिकालीन के एक कवि ने इस संबंध में एक बड़ी स्पष्ट बात कही है :
आगे के सुकवि रीझि हैं, तो कविताई,
न तौ राधिका कानह सुमिरन कौ बहानौ है
अर्थात् आगे के कवि अगर हमारी इस कविता को अच्छा समझें, तो ठीक है। अगर यह अच्छी कविता नहीं बन पड़ी तो राधा और कृष्ण को याद करने का बहाना तो है ही।
वस्तुतः इस काल में आकर राधा कृष्ण सामान्य नायक-नायिका के रूप में परिणत हो गये। डॉ. नगेन्द्र ने इस ‘भक्ति’ को कवियों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता माना है। जब कवि अतिशय शृंगार वर्णन के कारण मन में अपराध भावना का अनुभव करते थे तो राधा कृष्ण का स्मरण उनके धर्मभीरु मन को था और उनके लिए सामाजिक कवच का काम भी करता था।
वीरकाव्य
रीतिकाल में सामान्य रूप से शृंगार रस की रचनाओं की ही प्रधानता थी, तदापि शृंगार के साथ-साथ वीर रस की धारा भी अपनी मंद-मंथर गति से बह रही थी। शाहजहाँ का शासनकाल तो पर्याप्त सुख-शांति का युग था परंतु औरंगजेब के गद्दी पर बैठते ही विपत्ति के बाद मंडराने लगे थे। उसकी धर्मांधता और कट्टर नीति ने संपूर्ण वातावरण को विक्षुब्ध कर दिया था। उसके नित नए अत्याचारों की प्रतिक्रिया स्वरूप देश के कुछ वीर शासक औरंगजेब के विरुद्ध खड़े हो गए थे।
दक्षिण में महाराज शिवाजी, पंजाब में गुरु गोविंद सिंह और राजस्थान में महाराज जसवंत सिंह तथा मध्य प्रदेश में छत्रसाल आदि ने अपनी तलवारें संभाल ली थीं। इनकी वीरता की भावना से प्रेरित होकर तथा इनके वीरत्व को सजग बनाये रखने के लिए वीर-रसात्मक काव्य रचना को पर्याप्त बल मिलने लगा था। मुख्य धारा शृंगारपरंक होने भी भूषण, सूदन, पद्माकर, गोरेलाल, गुरु गोबिंद सिंह आदि कवि वीर काव्यों के सृजन में गहरी रुचि लेने लगे थे।
इन कवियों की ओजपूर्ण रचनाएँ पढ़ कर वीर योद्धाओं की नसों में ऊष्ण रक्त प्रवाहित होने लगता है। भूषणं का काव्य वीर रस का सर्वोत्कृष्ट काव्य माना जाता है। वे तत्कालीन जन-जागरण के प्रहरी बन कर काव्यक्षेत्र में उतरे थे। यद्यपि रीतिकालीन वीर रस के कवियों की संख्या बहुत अधिक नहीं है फिर भी हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा में इनका योगदान निश्चय ही महत्वपूर्ण माना जाता है।
नीतिकाव्य
नीतिकाव्य का सृजन भी रीतिकाल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। संस्कृत साहित्य में नीतिकाव्य की एक विशाल एवं समृद्ध परपंरा थी, जिसका हिंदी कवियों पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। भक्तिकाल में भी नीति संबंधी प्रचुर सामग्री मिल जाती है।
कबीर, तुलसी, रहीम आदि कवियों की नीतिविषयक सूक्तियाँ विशेष प्रसिद्ध हैं। भक्तिकाल की नीतिकाव्य परंपरा ही रीतिकाल तक आते-आते अधिक समृद्ध एवं जनप्रिय हो गई थी। रीतिकाल में नीतिविषयक रचनाएँ करने वालों में वृन्द, गिरिधर कविराय, घाघ, वैताल, दीनदयाल गिरि आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
इन कवियों की रचनाओं में जीवन के अनेक प्रभावशाली अनुभव चुभती हुई शैली में कहे गए हैं। यद्यपि साहित्य में चमत्कार का पुट अवश्य मिल जाता है। परंतु इनसे रस की अनुभूति नहीं होती। इसीलिए आचार्य शुक्ल ने इसे कविता न कहकर सूक्ति साहित्य कहा है। विषय की विविधता और सूझ की विचित्रता के कारण यह जनता का कण्ठहार बन गया है। इसमें कण्ठस्थ हो जाने का गुण भी है, जिसने इसे सर्वप्रिय बना दिया है।
स्वच्छंद काव्य अथवा रीतिमुक्त धारा
रीतिकाल के अधिकांश कवि या तो लक्षण ग्रंथ लिखते थे या इन ग्रंथों को अपना आदर्श मानकर काव्य रचना करते थे। इस प्रवृत्ति के अलावा इस युग में एक और काव्यधारा भी चल रही थी, जिसे स्वच्छंदधारा अथवा रीतिमुक्त काव्यधारा कहते हैं। स्वच्छंदता का अर्थ यहाँ परंपराओं और रूढ़ियों का त्याग है।
स्वच्छंदतावादी कवियों ने न तो लक्षण गंथ लिखे और नही उनके आधार पर काव्य रचना की। किसी मिश्रित आधार या बंधे-बँधाये नियमों के अधीन रह कर काव्य रचना करना उनको स्वीकार नहीं था। इन कवियों के काव्य में नवीनता एवं मौलिकता की प्रधानता है क्योंकि ये पीछे की ओर न झाँककर समवर्ती जीवन से प्रेरणा लेते थे।
इनका काव्य अलंकारों के बोझ से दबा हुआ न होकर अनुभूति प्रधान है। भाषा के क्षेत्र में भी इन्होंने केशव आदि रीतिबद्ध कवियों की तरह शब्दों की लड़ियाँ सजाने के मोह में न पड़ कर अर्थ वैचित्र्य को ही महत्व दिया है।
इनका शृंगार चित्रण भी अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, संयत और स्वच्छ है। संक्षेप में इनके पास प्रेम की सच्ची अनुभूति है, जिसका उन्होंने उदात्त रूप में वर्णन किया है। स्वच्छंदता एवं स्वच्छंद काव्यधारा के विकास में योग देने वाले कवियों में घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा और द्विजदेव आदि नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
शिल्प पक्ष
भाषा
रीतिकाल की प्रमुख साहित्यिक भाषा ब्रज थी। मध्य देश की भाषा होने तथा प्रकृति से मधुर होने के कारण उस युग के कवियों की अभिव्यक्ति का यह सर्वोत्तम माध्यम बन गई थी। रीतिकाल भाषा की सजावट का युग था और ब्रजभाषा में कोमल भावों की अभिव्यक्ति की अपार क्षमता थी। अतः रीतिकवि न केवल इनके प्रति आकृष्ट ही हुआ बल्कि उसने इसको सजाने, सँवारने और निखारने में कोई कसर उठा नहीं रखी थी।
रीतिकाल ब्रजभाषा के एकाधिपत्य का काल है। ब्रजमंडल के अतिरिक्त दूसरे प्रांतों के कवियों ने भी इसी भाषा को अभिव्यंजना का माध्यम बनाया। परिणामतः इसके शब्द भंडार में अवधी, राजस्थानी, बुंदेलखंडी आदि भाषाओं के अतिरिक्त अरबी, फारसी तथा तुर्की भाषाओं के अनेक शब्द समाविष्ट हो गए।
इस प्रवृत्ति के जोर पकड़ लेने का दुष्परिणाम यह निकला कि शब्दों के मनमाने प्रयोग होने लगे। कवि व्याकारण की परवाह न करके शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने में रुचि लेने लगे। रीतिबद्ध कवियों में तो कारक चिह्नों की गड़बड़ी तथा लिंग संबंधी दोषों की भी भरमार हो गई।
स्वच्छंदतावादी कवियों की भाषा प्रायः इसका अपवाद ही रही। इन लोगों ने भाषा के साथ खिलवाड़ नहीं किया। घनानन्द, बोधा, ठाकुर आदि ने भाषा शुद्धि एवं भाषा की अर्थक्षमता की ओर विशेष ध्यान दिया। इसीलिए इस वर्ग के कवियों की ब्रज परिनिष्ठित ब्रज का सुंदर नमूना मानी जाती है।
छंद
रीतिकाव्य दरबारी मनोवृत्ति का काव्य था। इसलिए इस युग में मुक्तक काव्य रचना का ही प्राधान्य रहा। मुक्तक काव्य रचना के लिए कवि को कुछ चुने हुए छंदों पर ही आश्रित रहना पड़ता है, इसलिए इस युग में कवित्त, सवैया, छप्पय, दोहा, सोरठा, बरवै और रोला जैसे छंद ही प्रचलित हुए जो रीतिकालीन काव्यधारा की प्रकृति के अनुकूल थे।
जहाँ शृंगार के लिए कविगण सवैया छंद की ओर आकृष्ट हुए वहाँ वीर रस के लिए अधिकतर कवित्त को ही चुना गया। दोहा इस युग का सबसे अधिक लोकप्रिय छंद था। भक्ति और नीति का सम्पूर्ण साहित्य दोहा छंद में ही रचा गया। माधुर्य एवं चारुता की दृष्टि से सवैया इस युग का सर्वश्रेष्ठ छंद माना गया।
यद्यपि इस युग में छंदशास्त्र के निर्माता कवियों की संख्या अधिक नहीं रही, परंतु उन्होंने अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार हिंदी छंदशास्त्र के विकास में पर्याप्त रुचि दिखाई है। संस्कृत ग्रंथों से प्रभावित होने पर भी उनकी रचनाओं में मौलिकता का कुछ न कुछ अंश अवश्य है। उन्होंने पाठकों की सीमाओं का ध्यान रखते हुए सरल एवं सुबोध शैली का अनुसरण किया है।
प्रायः सभी ने दोहादि छंदों में लक्षण-उदाहरण पद्धति को ही अपनाया है। गति और लय आदि की व्यवस्था की दृष्टि से भी इनका योगदान महत्वपूर्ण है। चिंतामणि का छंदविचार, मतिराम की वृत कौमुदी, भिखारीदास का छंदोर्ण व पिंगल, रामसहाय की वृत्ततरंगिणी, अमीरदास का वृत्तचंद्रोदय सुखदेव का वृत्तविचार आदि ग्रंथ आदि प्रसिद्ध हैं।
अलंकार
रीतिकाल अलंकारों के विवेचन तथा काव्य में इनके प्रयोग के लिए विशेष प्रसिद्ध है। संभवतः इसीलिए मिश्रबंधुओं ने इस युग का नाम अलंकृतिकाल रखा था। यद्यपि यह नाम बहुमत से स्वीकृत नहीं हुआ परंतु इस युग में रचे गये लक्षण और लक्ष्य दोनों प्रकार के ग्रंथों में अलंकारों को ही प्रधानता मिलती रही। वैसे भी उन दिनों अलंकार शास्त्र के समुचित ज्ञान के बिना किसी भी कवि के लिए राजदरबार में प्रवेश प्राप्त करना सुलभ नहीं था।
इसलिए इस युग में अलंकारों की खूब धूम मची रही। यहाँ तक कि अलंकारों को साधन की अपेक्षा साध्य होने का दर्जा मिल गया। परिणामस्वरूप अलंकारों के बोझ के कारण कविता का आंतरिक सौंदर्य विलुप्त हो गया। इस काल के कवियों ने शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग किया है। पर इनका एक ही उद्देश्य है- चमत्कार उत्पन्न करना।
चमत्कार उत्पन्न करने की इस प्रवृत्ति के पीछे भी राजाओं की रुचि का हाथ है। उस समय का शासक वर्ग इस प्रकार की चमत्कारिक उक्तियों को पसंद करता था।
केशवदास की प्रसिद्ध उक्ति, ‘भूषन बिनु न विराजई कविता, वनिता, मित्त’ इस युग के कवियों की अलंकारप्रियता को पुष्ट करती है। यद्यपि कुछ एक कवियों ने अलंकारविवेचन पर्याप्त विस्तार एवं मनोयोग से किया परन्तु वे किसी मौलिक सूझबूझ का परिचय नहीं दे पाए। वास्तव में वे सभी आचार्य न हो कर कवि ही थे। उनका काव्यशास्त्रीय ज्ञान अधूरा था।
उनके लक्षणों और उदाहरणों में भी कहीं-कहीं पर्याप्त त्रुटियाँ हैं। ये कवि सामान्य रूप से संस्कृत ग्रंथों को आधार मानकर ही चले हैं, जिनमें अधिकांश ने चंद्रालोक और कुवलयानंद की पद्धति को अपनाया है अर्थात् एक ही दोहे में लक्षण उदाहरण का समावेश कर लिया गया। चिंतामणि, मतिराम, जसवंतसिंह, देव, भूषण, पद्माकर, भट्ट, भिखारीदास आदि के अलंकारविषयक ग्रंथ विशेष प्रसिद्ध हुए।
काव्यरूप
रीतिकाल में काव्यरूपों की पर्याप्त विविधता पाई जाती है। प्रबंध, मुक्तक, सतसई साहित्य तथा शतक आदि सभी शैलियों में काव्य रचना होती रही। इस युग का प्रधान काव्य रूप मुक्तक ही रहा। राजदरबारों में अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाने के लिए अधिकांश कवि मुक्तक रचना को ही प्रश्रय देते रहे।
रीतिकाल में प्रबंधकाव्यों की अपेक्षा मुक्तक रचनाओं का प्रचार विपुल मात्रा में था। मुक्तक में प्रत्येक पद्य अपने में एक स्वतंत्र इकाई होता है। अर्थ की दृष्टि से उसमें पूर्वापर संबंध नहीं होता था पर इसमें पाठक को स्वतंत्र रूप से रस लीन करने की क्षमता होती है। रीतिकालीन कवि दरबारी वातावरण घिरा हुआ था। दरबार में अपनी कला का चमत्कार दिखाने के लिए मुक्तक शैली अधिक अनुकूल थी। उन दिनों राजदरबारों में कवियों की परस्पर होड़ चलती थी।
श्रोताओं की ‘वाहवाही’ लूटने के लिए और एक दूसरे को परास्त करने के उद्देश्य से मुक्तक शैली का प्रभाव गहरा पड़ता था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुक्तक को चुना हुआ गुलदस्ता कहा है। यद्यपि इसमें प्रबंध के समान रस का निरंतर प्रवाह नहीं हुआ, परंतु यह श्रोता एवं पाठक के मन पर इसके छीटें डाल देता है, जिससे वह कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। कुछ आचार्यों ने तो मुक्तक रचना को प्रबंध से भी अधिक प्रभावपूर्ण माना है। संस्कृत कवि अमरूक के एक-एक मुक्तक पद्य को शत-शत प्रबंध काव्यों के समान हृदयग्राही कहा गया है।
यद्यपि इस युग के काव्य का एक बहुत बड़ा भाग मुक्तक शैली में ही लिखा गया, तथापि प्रबंध काव्यों के सृजन में भी कविगण अपनी कला का प्रदर्शन करते रहे। यह अलग बात है कि इस युग में रची गई प्रबंध रचनाएँ कवित्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध नहीं हुई। वैसे इस युग में पूर्व प्रचलित सभी प्रकार की प्रबंध काव्यधाराओं का प्रतिनिधित्व होता रहा। कथात्मक प्रबंध, सूफी प्रबंध, राम-काव्यधारा, कृष्णकाव्यधारा तथा वीर रसात्मक प्रबंध काव्य आदि सभी मिल जाते हैं।
सबल सिंह का ‘महाभारत’ (कथात्मक प्रबंध काव्य), कासिम शाह का हंसजवाहिर, नूरमुहम्मद की इंद्रावती, शेख निसार का यूसुफ जुलेखा (सूफी प्रबंध), गुरु गोविंद सिंह की गोविंद रामायण (रामकाव्य), ब्रजवासी दास का ब्रजविलास (कृष्णकाव्य), सूदन का सुजानचरित, जोधराज का हम्मीर रासो, गोरे लाल का छत्रसाल प्रकाश (वीरकाव्य) आदि प्रबंध रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। सतसई भी वास्तव में मुक्तक का ही एक भेद है। सतसई अर्थात् सात सौ तथा शतक अर्थात् एक सौ पद्यों के संग्रह तैयार करने की परिपाटी संस्कृत से हिंदी में आई।
रीतिकाल में इस प्रवृत्ति ने विशेष जोर पकड़ा। शतकों और सतसइयों के अतिरिक्त ‘हजारे’ भी लिखे गए। इस परंपरा में मतिराम सतसई, भूपति सतसई, राम सतसई, विक्रम सतसई, अलक शतक, तिल शतक, रसनिधि का रतन हजारा आदि संख्याबद्ध काव्य विशेष प्रसिद्ध हुए।।
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