वक्रोक्ति सिद्धांत का स्वरूप बताइये

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वक्रोक्ति सिद्धांत का सामान्य अर्थ वक्र-उक्ति अर्थात् वक्र या वित्रित्र कथन या टेढ़ा कथन है। यह माना जाता है कि सामान्य बोलचाल में शब्दों का प्रयोग जिन अर्थों में होता है, उन्हीं अर्थों से सुंदर काव्य की रचना नहीं हो सकती। काव्य-रचना के लिए तो वैचित्र्ययुक्त कथन की आवश्यकता अपरिहार्य है। सामान्य कथन शैली से भिन्न चमत्कार प्रधान (वैचित्र्ययुक्त) कथन को वक्रोक्ति के रूप में माना जाता है।

वक्रोक्ति को वैदग्धाभंगीभणिति कहा है, जिसमें शब्द और अर्थ का सौंदर्य मिला रहता है। वस्तुतः शब्द और अर्थ को कुंतक अलंकार्य (वर्ण-वस्तु) मानते है और वक्रोक्ति उनको सौंदर्य प्रदान करने वाला तत्व अलंकार है।

उभावेतावलंका? तयोः पुन रत्नंकृतिः ।

– वक्रोक्ति वैदग्धाभंगीभणितिरुच्यते। (वक्रोक्ति जीवितम्) ‘वैदग्ध्य’ का तात्पर्य विदग्धता है अर्थात् कविकर्म-कौशल और भंगी अर्थात् भंगिमा तथा उसके आधार पर किया गया कथन वक्रोक्ति हैं। आचार्य कुंतक ने विचित्र अमिधा को ही वक्रोक्ति माना है – विचित्रैवामिधा वक्रोक्तिरित्युच्यते। ‘वैचित्र्य’ का आशय विशिष्ट चारुता से है। कुंतक यह भी मानते हैं कि वक्रोक्ति में सहृदयों को आहलादित करने की क्षमता होनी चाहिए। वक्रोक्ति में तीन विशेषताएँ होती हैं-
(i) लोक व्यवहार तथा शास्त्र में रुढ़ शब्द अर्थ प्रयोग से भिन्नता 
(ii) कवि प्रतिभाजन्य चमत्कार तथा 
(iii) सहृदय के मन को आनंदित करने की क्षमता।
अतः कहा जा सकता है कि शास्त्र तथा व्यवहार में प्रयुक्त होनेवाले सामान्य कथन से बिल्कुल भिन्न विचित्र उक्ति वक्रोक्ति हैं। इस प्रकार की उक्ति (वक्रोक्ति) कवि-व्यापार कौशल और प्रतिभा से संभव होती है। यह लोकोत्तर आह्लादकारिणी होती है अर्थात् इससे प्राप्त आनंद सामान्य नहीं होता है। वक्रोक्ति से असुंदर में सुंदर का समावेश होता है।
आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को बहुत महत्व प्रदान किया क्योंकि उनके पूर्ण इसे एक प्रमुख अलंकार माना जाता था। उन्होंने ‘वक्रोक्ति जीवित’ की रचना कर इसे सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित किया और काव्य का जीवित (प्राण) सिद्ध किया। इस प्रकार सम्पूर्ण काव्यव्यापार का मूल वक्रोक्ति है।

वक्रोक्ति सिद्धांत के प्रकार

आचार्य कंतुक के अनुसार वक्रोक्ति के छह प्रकार हैं
1) वर्ण विन्यास वक्रता
2) पद पूर्वार्द्ध वक्रता 
3) पद परार्द्ध वक्रता
4) वाक्य वक्रता
5) प्रकरण वक्रता
6) प्रबंध वक्रता

 वर्ण विन्यास वक्रता

वक्रोक्ति की इस वक्रता का संबंध वर्ण विन्यास अर्थात् वर्णों को विशेष क्रम में रखने से है। जब एक, दो या कई वर्ण कुछ अंतराल के पश्चात उसी रूप में रखे जाएँ तो यह वक्रता होती है। इसमें वर्गों को सामान्य रूप से न रखकर ऐसे ढंग से, विचित्र रीति से विन्यस्त किया जाता है कि उनमें सौंदर्य उत्पन्न हों और वह सहृदयों के लिए आह्लादक हो।
इस वक्रता के अंतर्गत अनुप्रास, यमक आदि अलंकार आ जाते हैं। आचार्य कुंतक ने काव्य रीतियों – कोमला, परुषा और उपनागरिका को इस वक्रता में समाहित किया है। ‘वर्ण शब्दोऽत्र व्यंजन पर्यायः कहकर कुंतक ने स्पष्ट किया है कि वर्ण का अभिप्राय व्यंजन से है। इस वक्रता में वर्ण संबंधी सभी चमत्कार समाहित हो गए हैं।
कुंतक ने वर्ण विन्यास के संबंध में कुछ नियम भी निर्धारित किए हैं
(1) वर्ण विन्यास प्रस्तुत या वर्ण विषय के अनुरूप तथा वर्ण-विषय के सौंदर्य को बढ़ाने वाला होना चाहिए। वर्ण-विषय में अभिव्यक्त रस के अनुकूल वर्णों का प्रयोग आवश्यक है। जहाँ कोमल भावों की अभिव्यक्ति हो वहाँ परुष वर्णों – द वर्ग, आदि की योजना नहीं होनी चाहिए और इसी प्रकार कठोर भावों या रसों के योग में कोमल वर्णों- क वर्ग, च वर्ग आदि की योजना अनुपयुक्त है।

(ii) वर्ण विन्यास वक्रता में अनौचित्यपूर्ण वर्णों की हठपूर्वक योजना नहीं होनी चाहिए।
(iii) वर्ण विन्यास वैचित्रययुक्त हो अर्थात् सौंदर्यपूर्ण हो। उसमें नए-नए वर्णों की योजना हो और पूर्व प्रयुक्त वर्णों की अधिक पुनरावृत्ति न हो।
(iv) यमक प्रयोग में विशेष रूप से प्रसाद गुण की योजना होनी चाहिए।
 (v)  वर्ण विन्यास श्रुति माधुर्य से युक्त हो तथा अनौचित्य रहित हो। वर्ण विन्यास वक्रता का एक उदाहरण विजय माता का प्राविस कुंकन किं किन नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय मुनि ।
इन पंक्तियों में अनुप्रास का सुंदर प्रयोग है – (रामचरित मानस, बालकांड) क वर्ण की अनेक बार आवृत्ति से सौन्दर्य बढ़ गया है। यह संयोग श्रृंगार का प्रसंग है, इसीलिए इसमें कोमल वर्णों का प्रयोग उपयुक्त है। ‘लखनसन’ में समश्रुतिमूलक वर्गों की योजना से वैचित्रय लक्षित होता है।

पद पूर्वार्द्ध वक्रता

 वर्ण विन्यास वक्रता के अन्तर्गत कुंतक ने वर्ण समूह अर्थात् पद वक्रता का उल्लेख किया है। पहले पद पूर्वार्द्ध वक्रता का विवेचन किया गया है। इस वक्रता को प्रकृति वक्रता भी कहते हैं क्योंकि पद पूर्वार्द्ध में प्रतिपादित या धातु का प्रयोग होता है। अतः पद पूर्वार्द्ध वक्रता में प्रतिपादिक अथवा धातु के कारण निष्पन्न वैचित्र्य रहता है। इस वक्रता में व्याकरण से संबंधित प्रयोगों का चमत्कार घटित होता है।
इस वक्रता के दस भेद हैं (i) रूढ़ि वैचित्र्य वक्रता (ii) पर्याय वक्रता (iii) उपचार वक्रता (iv) विशेषण वक्रता (v) संवृत्ति वक्रता (vi) प्रत्यय वक्रता (vii) वृत्ति वक्रता (viii) भाववैचित्र्य वक्रता (ix) लिंग वैचित्र्य वक्रता (x) क्रिया वैचित्र्य वक्रता। –
i) रूढ़ी वैचित्र्य वक्रता : 
वर्णवस्तु (प्रस्तुत) की प्रशंसा या तिरस्कार के लिए रूढ अर्थ पर जब अतिशय रमणीय अर्थ का प्रयोग कवि द्वारा किया जाता है तो रूढ़ि वैचित्र्य वक्रता होती है। इस वक्रता में रूढ़ि के द्वारा किसी शब्द में वैचित्र्य का समावेश होता है उदाहरण
सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि । धरमिसुता धीरज जरेउ समउ सुधरमु बिचारी ।। (रामचरित मानस अयोध्याकांड, दो० 286)
इस उद्धरण में ‘धरनिसुता’ में यह भाव रूढ़िगत है कि पृथ्वी सबकुछ सहनकर लेती है तो उसकी पुत्री सीता अवश्य सहनकर सकती है।

ii) पर्याय वक्रता
जो वक्रता पर्याय पर आधरित होती है, वह पर्याय वक्रता है। एक ही अर्थ को व्यक्त करने वाले शब्दों को पर्यायवाची कहा जाता है। कवि इन अनेक पर्यायों में से अपने वर्ण विषय को अधिक रमणीयता प्रदान करता है, तो वैचित्रय (सौंदर्य) में वृद्धि होती है। प्रतिभाशाली कवि अनेक समानार्थी शब्दों में किसी एक शब्द की मूल भावना को हृदयंगम कर उसका प्रयोग करता है जिससे उसकी रचना में एक विशिष्ट आकर्षण और सौंदर्य उत्पन्न हो जाता है। उदाहरण
(क) अबला जीवन हाय तुम्हारी यही
योग  समान अमाया गया। कहानी। पानी। रतज नगपगतल में। दोय । कामिनी पर्याय शब्द हैं। पहले उद्धरण और तीसरे उद्धरण में ‘वासना-प्रेरक’ के प्रयोग से अर्थगत रमणीयता आ गई है, । काव्यशास्त्रीय अर्थ ‘आरोप, साधर्म्य, आँचल में है दूध और आँखों में
(ख) नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास
(ग) एक कनक एक कामिनी दुर्गमघाटी
उपर्युक्त उद्धरणों में अबला, नारी और में ‘दुर्बलता दूसरे उद्धरण में ‘मानवी’ अर्थ में प्रयुक्त है इन पर्याय शब्दों के जो सहृदयों को आह्लादित करती है उपचार वक्रता : ‘उपचार’ शब्द का समानता या सादृश्य’ है। जहाँ भिन्न स्वाभावयुक्त वस्तु (प्रस्तुत) पर अप्रस्तुत वस्तु का स्वल्प सादृश्य के कारण आरोप किया जाता है, वहाँ यह वक्रता होती है।
इस वक्रता के अंतर्गत प्रस्तुत (उपमेय) और अप्रस्तुत (उपमान) में यदि एक चतन तो दूसरा अचेतन, एक मूर्त तो दूसरा अमूर्त होता है। इन दोनों में थोड़ी समानता होने पर भी अभेद आरोप कर वैचित्रय की सृष्टि की जाती है। इस वक्रता के अंतर्गत रूपक आदि अलंकार आते हैं। हिंदी में छायावादी कवियों की रचनाओं में इस वक्रता का अधिक प्रयोग दिखाई देता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
(क) हे लाज भरे सौंदर्य बता दो, मौन बने रहते हो क्यों? (प्रसाद)

यहाँ लाज का मानवीकरण करते हुए उसे सौंदर्य से भरा हुआ कहने पर उपचार वक्रता है।
ख) सिकता की सस्मित सीपी पर
मोती ज्योत्सना रही विचार। (सुमित्रानंदन पंत)
यहाँ चाँदनी के प्रभाव से सी पी पर सस्मित होने का आरोप है।
iv) विशेषण वक्रता : विशेषण के प्रभाव से यदि कारक या क्रिया में सौंदर्य (वैचित्रय) उत्पन्न हो।
विशेषण के प्रयोग के दो उद्देश्य माने गए हैं
पहला, विशेष्य (प्रस्तुत) के वैशिष्ट्य या सौंदर्य को अभिव्यक्त करना और दूसरा, अलंकर को अधिक रमणीय बनाना। विशेषण कारक अथवा क्रिया से मिलकर सौंदर्य में अभिवृद्धि करता है। अतः इसके दो भेद हो जाते हैं, कारक वक्रता और क्रिया विशेषण वक्रता। विशेषण वक्रता का उदाहरण इस प्रकार है
(क) तारक चिह्न दुकूलिनी, पी-पी कर मधुपात्र
उलट गई श्यामा यहाँ रिक्त सुधाधर पात्र ।। (साकेत)
इस उद्धरण में श्यामा (रात्रि) के लिए ‘तारकचिह्न दुकूलिनी’ विशेषण प्रयुक्त है, जो अतिशय रमणीय है।
 v) संवृति वक्रता
संवृति का अर्थ छिपाना, ढकना या संवरण करना है, आचार्य कुंतक के अनुसार जहाँ वैचित्र्य प्रतिपादन की इच्छा में सर्वनाम आदि के द्वारा वस्तु का संवरण किया (छिपाया) जाए, वहाँ यह वक्रता होती है। इस वक्रोक्ति में विचित्रता व्यक्त करने के लिए सर्वनाम द्वारा वस्तु के रूप को छिपाया जाता है। जब कवि अनुभूत वस्तु को वाणी द्वारा व्यक्त करने में समर्थ नहीं होता तो संवृति वक्रता के द्वारा उस वस्तु सौंदर्य को अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से व्यक्त करता है। उदाहरण

अनियारे दीरघ नयन किती न तरुनि समान ।
वह चितवनि और कछू जिहि बस होत सुजान ।। (बिहारी सतसई)
इस उद्धरण में कवि नायिका की सुंदर दृष्टि भंगिमा का वर्णन न कर पाने पर । एमिठारी पतासी  ‘वह’ सर्वनाम के प्रयोग द्वारा दिया (संवृत कर दिया)।  होती है तो यह वक्रता मानी जाती है। संस्कृत के काव्यों में इस वक्रता का प्रयोग अधिक हुआ है क्योंकि संस्कृत में प्रत्यय – प्रयोग बहुत स्पष्ट हैं। हिंदी-काव्यों में भी कुछ सुन्दर उदाहरण मिल जाते हैं। उदाहरण
(क) पिय सों कहेउ सँदेसड़ा हे भौरा हे काग ।
सो धनि बिरहै जरि मुई तेहिक धुवाँ हम लाग ।। (जायसी)
(ख) गई बहोरि गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।
उपर्युक्त उद्धरण ‘क’ में ‘सँदेसड़ा’ में ‘ड़ा’ प्रत्यय के कारण तथा उद्धरण ‘ख’ में ‘बहोरि’ के कारण प्रत्यय वक्रता का चमत्कार व्यक्त है। एक अन्य उदाहरण
आग लाग घर जरिगा, विधि भल कीन्ह।
पिय के हाथ घइलवां, भरि-भरि दीन्ह ।।
(रामचरितमानस)
इसमें ‘घइलवा’ (घड़ा) में ‘वा’ प्रत्यय बहुत चमत्कारपूर्ण है।
vii) वृत्ति वक्रता : “वृत्ति’ का तात्पर्य संस्कृत व्याकरण के अंतर्गत आनेवाले समास, तद्धित (प्रत्यय), सुबन्त (शब्द रूप) आदिवृत्तियों से है। इन वृत्तियों के प्रयोग से वैचित्र्य या रमणीयता होने पर वृत्ति वक्रता मानी जाती है। उदाहरण

(क) तुमने यह कुसुम-विहण। लिवास क्या अपने मुख से स्वयं बुना? यहाँ ‘कुसुम-विहग’ में समास के कारण वैचित्र्य हैं।
(ख) तुम कौमुदी-सी पराग पथ पर
संचार करती चलो मधुरिका। यहाँ ‘मधुरिमा’ मधुर का प्रत्यय समन्वित प्रयोग रमणीय है। वक्रोक्ति सिद्धांत वक्रोक्ति सिद्धांत 
viii) भाव वैचित्र्य वक्रता : क्रिया की वक्रता ही भाव वैचित्र्य वैचित्र्य है। वस्तुतः क्रिया किसी कार्य का निष्पादन होने के कारण साध्य रूप है। जहाँ क्रिया के साधक रूप का तिरस्कार करके उसे सिद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाए, वहाँ यह वक्रता होती है। उदाहरण
क्षलित शत तरंग तनुपालित
अवगाहित प्रगरित अतिनिर्मल ।
ix) लिंग वैचित्र्य वक्रता : जहाँ लिंग संबंधी प्रयोग में वैचित्र्य लक्षित हो, वहाँ यह वक्रता होती है किंतु प्रयोग में औचित्य अवश्य होना चाहिए। उदाहरण
तुम रूपराशि हो, दीपशिखा, तुम शशि सुंदर, तुम कमलकली, तुम हो गुलाब का फूल, हमारे उर-उपवन में रहो खिली।

(अ) क्रिया वैचित्र्य वैचित्र्य वक्रता : क्रिया के प्रयोग मे जहाँ रमणीयता हो वहाँ यह वक्रता होती है। उदाहरण
इस उद्धरण में ‘दीपशिखा’ के लिए स्त्रीलिंग और पुल्लिंग – दोनों का प्रयोग करने से रमणीयता आ गई है।
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुबाय । 
सौंह करै भौहनि हँसै, दैन कहै नटि जाय ।।
इस उदाहरण की दूसरी पंक्ति में क्रियाओं का बहुत रमणीय प्रयोग है।

 पद परार्द्ध वक्रता 

पद परार्द्ध वक्रता में पदों के उत्तरार्द्ध के वैचित्र्य का विवचेन होता है। पद परार्द्ध में प्रत्ययों का योग होता है, अतः यह वक्रता का प्रत्यय रूपा होती है। आचार्य कुंतक ने इस वक्रता के छह उपभेद किए हैं, जिनका विवेचन इस प्रकार है
(क) काल वैचित्र्य वक्रता : जब काल विशेष के कारण रचना में वैचित्र्य (सौंदर्य) की सृष्टि होती है तो यह वक्रता मानी जाती है। वर्तमान काल में यदि भूतकाल या भविष्यत् काल का अनुमान किया जाए तो काल वैचित्र्य हो जाएगा। कुंतक ने कालवैचित्र्य प्रयोग में औचित्य पर विशेष बल दिया है उदाहरण –
जा थल कीन्हे बिहार अनेन्दन
ता थल काँकरि बैठि चुन्यो करै।
जा रसना से करी बहु बातन
ता रसना सों चरित्र गुन्यों करें। 
केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करै ।
आलम जौन से कुंजन में करि
नैनन में जो सदा रहते
तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करै। (आलम कवि)
इस उद्धरण में नायक के संयोग (भूतकाल) को क्रियाकलापों का वर्णन वर्तमानकाल में होने के कारण काल वैचित्र्य है।
दूसरा उदाहरण
नासा मोरि नचाय दृग करी कका की सौंह ।
काँटे-सी कसकति हिये गड़ी कटीली भौंह ।। (बिहारी)
नायक के हृदय में नायिका की भौंह जब गड़ी हो, तब गड़ी से हो किंतु अब भी कसक रही है।।

(ख) कारक वक्रता : जब वैचित्र्य या सौंदर्य के अभिप्राय से कारकों में परिवर्तन (विपर्यय) किया जाता हो तो कारक वक्रता होती है। इसमें गौंण (सामान्य) कारक को प्रधान रूप में अथवा प्रधान कारक को गौण रूप में प्रस्तुत कर उसका विपर्यय कर दिया जाता है। अचेतन में चेतन का आरोप करके सौंदर्य में अभिवृद्धि की जाती है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
कोमल आँचल ने पोछा मेरी गीली आँखों को। आरोप करही सौंदर्य  इस उद्धरण में आँचल (अचेतन) में चेतन का आरोप कर उसका कर्ता कारक में प्रयोग किया गया, जो अतिशय रमणीय है।
हर धनुर्मंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त (राम की शक्ति पूजा)
इस काव्य पंक्ति में हस्त (हाथ) का प्रयोगकर्ता कारक में हुआ है, जो वस्तुतः करण कारक का होता है। यहाँ करण कारक का विपर्यय कर्त्ता कारक में होने से चमत्कार सिद्धि हुई है।
(ग) वचन वक्रता : जब चारुत्व (सौंदर्य) सिद्धि के लिए वचन में विपर्यय कर दिया जाता है अर्थात् एकवचन के स्थान पर बहुवचन तथा बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग किया जाता है तो वचनवक्रता होती है।
उदाहरण वक्रोक्ति सिद्धांत वक्रोक्ति सिद्धांत 
अगनित वसंत की रंग, गंध उठ धाईं।
ऐसी मुस्कान की जैसे चाँदनियाँ छिटकीं।
सरस द्रुमों की धूती मादक पुरवाई ।।
इस उद्धरण में चाँद का ‘चाँदनियाँ’ बहुवचन प्रयोग चमत्कारपूर्ण है।

(घ) पुरुष वक्रता : जब पुरुष (अन्य, मध्यम तथा उत्तम) में विपर्यय करके चमत्कार (सौंदर्य) उत्पन्न किया जाता है तो पुरुष वक्रता होती है इसमें उत्तम पुरुष या मध्यम पुरुष के लिए अन्य पुरुष का प्रयोग कर वैचित्र्य (रमणीयता) की सिद्धि की जाती है। उदाहरण
वक्रोक्ति सिद्धांत वक्रोक्ति सिद्धांत 
करके आज ध्यान इस जन का निश्चय वे मुस्काये ।
फूल उठे हैं कमल अधर से ये बंधूक सुहाये।। (साकेत)
इस उद्धरण में साकेत की उर्मिला ने अपने लिए उत्तम पुरुष का प्रयोग न करके अन्य पुरुष (इस जन) का प्रयोग किया है।
ङ) उपग्रह वक्रता : व्याकरण में ‘उपग्रह’ का अर्थ धातु (क्रिया) होता है। संस्कृत भाषा में धातुओं के दो पद होते हैं – परस्मैपद और आत्मनेपद | कवि इनका प्रसंगानुसार प्रयोग कर वैचित्र्य उत्पन्न करता है। हिंदी में इस वक्रता का प्रयोग कम हुआ है उदाहरण
वक्रोक्ति सिद्धांत वक्रोक्ति सिद्धांत 
मैं जभी तोलने का करती उपचार, स्वयं तुल जाती हूँ (कामायनी) इस उद्धरण में ‘तोलने’ और ‘तुल जाने का प्रयोग चमत्कारपूर्ण है। (कामायनी )
च) प्रत्यय वक्रता : जब छोटे-छोटे प्रत्ययों के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न होता है तो प्रत्यय वक्रता होती है। उदाहरण

अब जीवन के है कपि, आस न कोय ।
कनगुरिया के मुंदरी, कंगन होय ।। (बरवै रामायण तुलसी)
 (प्रसंग, सीताजी का हनुमान से कथन) यहाँ ‘कनगुरिया’ (कनिष्ठिका) में ‘या’ प्रत्यय के प्रयोग से नियोग जन्य दौर्बल्य की अतिशयता व्यक्त हुई है, जो चमत्कारपूर्ण है।
वक्रोक्ति सिद्धांत वक्रोक्ति सिद्धांत 

 वाक्य वक्रता 

किसी वर्णवस्तु के चमत्कारपूर्ण वर्णन को वाक्य वक्रता कहते हैं। इसे वाक्य वक्रता ही कहा जाता है। इस वक्रता में आचार्य कुंतक ने अलंकारों का समावेश किया है। वाक्य या वाक्य वक्रता के दो भेद हैं- सहजा और आहार्या । ‘सहजा’ से कुंतक ने स्वभावोक्ति का अर्थ ग्रहण किया है और उसे अलंकार न मानकर अलंकार्य स्वीकार किया है क्योंकि इससे वस्तु का वर्णन किया जाता है। ‘आहार्या’ के अंतर्गत उपमा आदि अलंकारों का समावेश है। उदाहरण
घिर रहे थे घुघराले बाल अंश अवलंबित भुख के पास ।
नील घन शावक से सुकुमार सुधा भरने को विधु के पास ।। (कामायनी, श्रद्धाकर्म)
श्रद्धा के कांतिमय मुख के निकट कंधों तक बिखरे घुघराले बालों का श्याम घन शावक है। चंद्र के पास सुधा भरने के लिए उपस्थित होना, अलंकृत वर्णन है किंतु इसमें अत्यधिक सहजता है।

 प्रकरण वक्रता

प्रबंध के एक अंश या एक प्रसंग को प्रकरण कहते हैं। अनेक प्रकरणों के समुच्चय से प्रबंध निर्मित होता है। प्रकरणों के रसमय, भव्य और मौलिक होने पर प्रबंध की महत्ता बढ़ती है। कुंतक ने इस वक्रता के निम्नलिखित उपभेद किए हैं।
(क) भावपूर्ण स्थिति की उद्भावना : जहाँ कवि प्रबंध के प्रमुख पात्र या अन्य पात्रों के चरित्र को औदात्यपूर्ण तथा उत्कर्षमय बनाने के लिए भावपूर्ण घटना या स्थिति की उद्भावना करता है, वहाँ प्रकरण वक्रता का यह भेद होता है। इस वक्रता में मौलिकता और भावुकता की स्थिति होती है।
(ख) उत्पाद्य लावण्य : इस प्रकार की वक्रता में कवि प्रबंध में वर्णित इतिहास-प्रसिद्ध इतिवृत्त में अपनी कल्पना से नवीन प्रसंग जोड़कर वैचित्र्य उत्पन्न करता है या अनौचित्यपूर्ण प्रसंगों में संशोधन करता है।
(ग) प्रधानकार्य से संबंद्ध प्रकरणों को उपकार्य : उपकारक भाव से संबंद्ध करना आवश्यक है। कवि की योजना होती है कि प्रत्येक प्रकरण में मुख्य प्रकरण से संबद्ध होकर उसके उत्कर्ष एवं लक्ष्य-सिद्धि में सहायक हो।

  इस प्रकार की वक्रता में कवि अपनी प्रतिभा से एक ही प्रसंग को नए-नए रूपों में नियोजित कर वैचित्र्य की सिद्धि करता है और इस कार्य में पुनरूक्ति दोष भी नहीं आने पाता और न एकरसता रहती है। संयोग और वियोग की स्थितियों के समावेश से इतिवृत्ति में सरसता आ जाती है।
(ङ) रोचक प्रसंगों का विस्तृत वर्णन : कवि अपने प्रबंध में रोचकता और सरसता लाने के लिए इतिवृत्त में यथाचार जल-विहार, उद्यान-भ्रमण, नगर शोभा वर्णन, प्रभात-संध्या-सौंदर्य-वर्णन आदि प्रसंगों को विस्तृत रूप प्रदान करता है।
(च) प्रधान उद्देश्य की सिद्धि के लिए रोचक गौण प्रसंग की उद्भावना : जब कवि अपने प्रबंध के प्रधान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए रमणीय एवं सरस गौण या अप्रधान प्रसंगों की योजना करता है तो- इस प्रकार की वक्रता होती है।
(छ) गर्भाक-वक्रता : यह उपभेद मुख्यतः दृश्य काव्य (नाटक) पर विशेष रूप से घटित होता है। सामाजिकों (दर्शकों) को आकृष्ट करने के लिए एक नाटक में अन्य नाटक का प्रयोग करना ग क कहलाता है।
(ज) प्रकरणों का पूर्वापर उन्नित क्रम : प्रबंध की सफलता लिए प्रकरणों का उत्तरोत्तर एक-दूसरे से संबंद्ध होना आवश्यक है। अतः प्रकरणों की सम्यक् योजना करना इस वक्रता का विषय है।

प्रबंध वक्रता

वक्रोक्ति के सभी प्रकारों में प्रबंध वक्रता सर्वाधिक विशिष्ट है। इस वक्रता का संबंध सम्पूर्ण प्रबंध के सौंदर्य एवं प्रभाव से होता है। आचार्य कुंतक ने प्रबंध वक्रता के छह उपभेद किए हैं, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं
(क) मूल रस परिवर्तन : जब कवि इतिहास-प्रसिद्ध मूल कथानक की उपेक्षाकर उसमें नवीनता, रमणीयता लाने के लिए उसका रस में परिवर्तन करता है तथा अन्य रस का विधान करता है तो इस प्रकार की वक्रता होती है।
नए रस की योजना के लिए उसे मूल रस परिवर्तन के साथ मूलक या विधान में भी परिवर्तन करना पड़ता है। इस प्रकार के रस परिवर्तन द्वारा कवि अपनी प्रबंध कृति में रमणीयता उत्पन्न करता है। ‘साकेत’ महाकाव्य में इस प्रकार की वक्रता दृष्टिगत होती है।
(ख) नायक के चरित्र का उत्कर्ष करने वाली चरम घटना पर कथा का सत्यापन : इस प्रकार की वक्रता में कवि चरित्र प्रधान प्रबंधों में पूरे इतिवृत्त का वर्णन न कर नायक को उत्कर्ष प्रदान करने वाले किसी एक अंश पर कथानक का समापन कर देता है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ रचित ‘प्रिय प्रवास’ ओर ‘वैदेहीबनवास’ इसी प्रकार के प्रबंध काव्य हैं।

(ग) नामकरण वक्रता : प्रतिभाशाली कवि प्रबंध के नामकरण में वैचित्र्यविधान करते हैं और अपने प्रबंध काव्य का नामकरण इस प्रकार करते हैं कि उसमें संपूर्ण प्रबंध का रहस्य निहित हो। संस्कृत के ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम (कालिदास)’ मुद्राराक्षस (विशाखदत्त) आदि तथा हिंदी में ‘पंचवटी’, जयद्रथवध (मैथिलीशरण गुप्त), ‘रश्मिरथी’ ‘कुरुक्षेत्र’ (दिनकर) आदि नामकरण वक्रता के उदाहरण हैं।

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