विद्यापति के काव्य सौंदर्य का वर्णन कीजिए | -

विद्यापति के काव्य सौंदर्य का वर्णन कीजिए |

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विद्यापति के काव्य सौंदर्य :– आदिकाल में विद्यापति जैसे श्रृंगारी कवि हुए हैं जिन्होंने मैथिली भाषा में ‘पदावली’ की रचना की है। कीतिलता, कीर्तिपताका उन्होंने अपभ्रंश भाषा में लिखी है। वे मिथिला के राजा शिवसिंह के दरबारी कवि थ। विद्यापति को मैथिल कोकिल, कविशेखर एवं अभिनव जयदेव के नामों से भी जाना जाता है। विद्यापति शैव थे तथा उनकी पदावली में भक्ति एवं श्रृंगार का समन्वय दिखाई पड़ता है।

विद्यापति के काव्य सौंदर्य

विद्यापति ने नायिका की वयः संधि का मनोरम चित्रण किया है। इसके साथ ही सद्यः स्नाता रमणी के उत्तेजक चित्र, अभिसार का मनोरम वर्णन भी उनकी पदावली में मिलता है। विद्यापति की मैथिली भाषा में रचित पदावली गेय पदों में रचित है तथा उसमें गीतकाव्य के सभी तत्व संगीतात्मकता, वैयक्तिकता, कोमलकांत मधुर पदावली, आलंकारिकता विद्यमान है। विद्यापति भक्त थे अथवा शृंगारी कवि एक विवाद का विषय है। अधिकांश विद्वान उन्हें शृंगारी कवि ही मानते हैं। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ” विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविन्द के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैस ही विद्यापति के इन पदों को भी ।”

जीवन वृत्त सूर, कबीर, तुलसी आदि की भांति आपके भी जीवन विषयक तथ्यों का अभाव झलकता है। किवदंतियों ने भी इनक जीवन वृत्त की प्रमाणिक तिथि को कल्पना जल से बांध रखा है, इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रसिद्ध कवियों के जीवन के बारे में उनकी जीवन भी उन भावनाओं के अनुकूल कल्पना लोक में विचरण करता है। वस्तुतः उनका जीवन वृत्त निर्जछरी कथाओं के अनुकूल कल्पना लोक कथाओं से आप्लावित है।

इस निर्जधारी का तात्पर्य ही जन -भावों से विभूषित ऐतिहासिक सामग्री है, यह अलंकरण जितना अधिक प्रभावी होता है ऐतिहासिक सामग्री का स्वरूप उतना ही धूमिल हो जाता है। इन निर्जधरी कथाओं से सार तत्व निकालना कठिन तो होता है किन्तु असंभव नहीं ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर प्रामाणिक प्रतीत उनके जीवन वृत्त को डॉ. विमान बिहारी मजूमदार के निम्न अभिमत से स्वीकारना ही यथोचित है

इनका जन्म सन् 1380 ई. में बिहार के दरभंगा जिले के अंतर्गत ग्राम विपसी में हुआ इनके पिता में गणपति ठाकुर संस्कृति के मूर्धन्य विद्वान थे एवं विख्यात संत जयदत्त के सुपुत्र थे पारिवारिक परम्परा के अनुरूप कविता का सृजन उन्होंने 1395-96 में ग्यासुद्दीन व नुसरत शाह को समर्पित पद रचना से किया। लगभग 1460 ई. को आप अपनी रचनाओं का अपार भण्डार छोड़कर देवलोक प्रस्थान कर गये।

उनके व्यक्तित्व को डॉ. सुमित्रा झा ने इस प्रकार रेखांकित किया विद्वानों के ऐसे यशस्वी परिवार में विद्यापति का जन्म हुआ जो अपने परम्परागत विद्या ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। कवि की रचनाओं में इस परम्परा का पूर्ण प्रतिफल दिखाई पड़ता है।

” विद्यापति ग्रामीण दण्ड नीति में भी पारंगत थे संस्कृत भाषा पर उनका कितना अधिकार था इस ग्रन्थ को देखने से ज्ञात होता है कि विद्या ज्ञान ब्राह्मण, परम्परा सब कुछ उन्हें दान –स्वरूप मिला था। किन्तु स प्रकाण्ड ज्ञान के उनके हृदय के भाव स्त्रोत को सुखाया नहीं उन्हें भाव -विमुख नहीं किया न ही उन्हें संसार अनित्य मिथ्या और बुद बुद की भांति प्रतीत हुआ।

ब्रम्हाणतत्व कभी कभी जोश पर भी आता था खास तौर से मुसलमानों के आक्रमण के समय विजेताओं की साकारहीन प्रवृतियां और कुरूचिपूर्ण रीति रिवाज उन्हें क्षुब्ध कर देते थे कपूर के समान शुद्ध भोजन को तिरस्कृत करके प्याज, लहसुन लाने वाले इन तुर्की के कार्यों से विद्यापति को नफरत थी

क्योंकि वे जबरदस्ती ब्राह्मण को पकड़ लेते थे और उसके सिर पर गाय का शोरबा रख देते थे। कसाईयों और कब्रों से धरती पट गयी थी, कहीं पैर रखने को जगह न बची थी उनके अनुसार

“धरि आने बामन बटुआ ।

माथ चढावए गाय चुड़आ ।

छोट चाट जनेऊ तोर |

ऊपर चढ़वाये चाह छोर ।। (2) 

काव्य प्रतिभा का विकास

विद्यापति की काव्य प्रतिभा अप्रतिम है। वह आत्मविश्वास की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं, स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास उनके काव्य में सहज रूप से विद्यमान है। प्रस्तुत काव्यांश इन नैसर्गिक गुणों को सहज ही उजागर करता है –

“बालचन्द बिज्जावइ भाषा।

दुहु नहि लग्गह दुज्जन हासा ।

ओ परमेश्वर हर सिर सोहई ।

ईणिच्चइ नागर मन मोहइ ।।” (3)

परिवेश तथा चर्चित घटनाओं की अनुभूत भूमि ने कवि के उपरोक्त आत्मविश्वास को उत्तरेत्तर पुष्ट किया है। राजनैतिक झंझावातों से जूझते इस कवि ने अपनी रचना धर्मिता को मन्द नहीं होने दिया। विभिन्न संघर्षों से उनकी कविता और पैनी तथा धारदार हुई। विद्यापति ने अपने जीवन काल में न जाने कितने राज बनते बिगड़ते देखे थे।

उन्होंने देखा था कि विपत्ति की आंधी में बड़े -बड़े पेड़ कैसे उखड़ते हैं। विद्यापति दो दर्जन के करीब राजाओं, नवाबों आदि के आश्रय में रहे थे सम्पूर्ण जीवन राजदरबारों में बिता देने वाले विद्यापति ने अपने कृतित्व को कभी दरबारी छाया से कलंकित नहीं किया उनके गीतों में दरबारी संस्कृति की नहीं जनता के मानस की आवाज है उन्होंने राधा –कृष्णा के प्रेम में सामान्य जनता के सुख-दुःख मिलन विरह को अंकित किया है।

वे एकाधिक रानियों राजकुमारियों के सम्पर्क में भी आये। दरबार के क्रिया कलाप को नजदीक से देखा असली सौन्दर्य वहां उपेक्षित था बाहृय रूप दरबारों में एकत्र किया जाता था उन्होंने अंत में सौन्दर्य को असली पृष्ठभूमि प्रदान की उसे धरती पर उतारकर रखा तथा चहारदीवारी के घेरे से निकालकर नदी तट अमराइयों और खेतों में प्रतिष्ठित किया।

उनकी प्रतिभा से आकर्षित होकर अनेक धर्मों ने उन्हें अपने में समेटने का प्रयास किया अनेक भाषा व प्रान्तों ने उनसे निकट संबंध बनाने का सतत प्रयास किया किन्तु प्रतिभा कब धर्म, सम्प्रदाय, भाषा-विभाषा व देश –काल के बंधकों को स्वीकार करती है।

युग परिवर्तन कबीर ने भी भाषाओं की श्रृंखलाओं को तोड़कर जन भावना को उनके मानस के अनुकूल भाषा दी विद्यापति जैसे मूर्धन्य कवि व पाण्डित्यपूर्ण व्यक्तित्व से यह अपेक्षा की जा सकती थी कि उनका रचना जगत गंभीरता की लहरों से आप्लावित रहेगा।

लेकिन उन्होंने इस पूर्व अपेक्षा को ध्वस्त कर हास्य -व्यंग्य के क्षेत्र में भी आशातीत प्रतिभा का परिचय दिया । उनके हास्य-व्यंग्य में लौकिक व अलौकिक सभी प्रकार के प्रसंग समाहित हैं। उनके हास्य व्यंग्य के केन्द्र बिन्दु सामान्य जनों के साथ देवता व परम आराध्य भी थे। जो उनकी रंगीन फुहारों से बना भीगे न रह सके।

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