विद्यापति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए |

विद्यापति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए |

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

विद्यापति के व्यक्तित्व

विद्यापति का जीवन परिचय (विद्यापति के व्यक्तित्व)

कवि कोकिल विद्यापति का पूरा नाम विद्यापति ठाकुर था। वे बिसइवार वंश के विष्णु ठाकुर की आठवीं पीढ़ी की संतान थे। उनकी माता गंगा देवी और पिता गणपति ठाकुर थे। वैसे रामवृक्ष बेनीपुरी उनकी माँ का नाम हाँसिनी देवी बताते हैं, पर विद्यापति के पद की भनिता पाउन में वैसे स्पष्ट होता है कि सिनी देवी महान (हासिन देवी पति गरुड़नरायन देवसिंह नरपति) से स्पष्ट होता है कि हाँसिनी देवी महारा देवसिंह की पत्नी का नाम था। कहते हैं कि गणपति ठाकुर ने कपिलेश्वर महादेव (वर्तमान मधुबनी जिला में अवस्थित) की घनघोर आराधना की थी, तब जाकर ऐसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।

 

उनके जन्म-स्थान को लेकर देर तक विवाद चलता रहा। लोग उन्हें बंगला के कवि प्रमाणित करने का कठोर श्रम करते रहे। दरअसल शृंगार-रस से ओत-प्रोत उनकी राधा-कृष्ण विषयक “पदावली’ मिथिला के कंठ-कंठ में व्याप गई थी। उन दिनों विद्याध्ययन करने बंगाल के शिक्षार्थी मिथिला आया करते थे।

काव्य संचरण की प्रक्रिया जो भी रही हो, पर उन्हीं दिनों प्रबल कृष्णभक्त चैतन्य महाप्रभु के कानों में विद्यापति के पदों की मोहक ध्वनि पड़ी। वे मंत्रमुग्ध हो उठे और ढूँढ-ढूँढकर विद्यापति के पद कीर्तन की तरह गाने लगे।

यह परंपरा चैतन्यदेव की शिष्य-परंपरा में भली भाँति फलित हुई। कई भक्तों ने तो उस प्रभाव में कीर्तनों की रचना भी की। फलस्वरूप बंगीय पदों में विद्यापति के काव्य-कौशल का वर्चस्व स्थापित हो गया।

जब स्थान-निर्धारण की बात चली तो आनन-फानन बंगदेशीय बिस्फी राजा शिवसिंह और रानी लखिमा तलाश ली गईं और विद्यापति को बंगला का कवि प्रमाणित किया जाने लगा। अनुमान किया जा सकता है कि बंगला और मैथिली की लिपियों में कुछ हद तक साम्य होना भी इसमें सहायक हुआ होगा।

महोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, जस्टिस शारदाचरन मित्र, नगेंद्र नाथ गुप्त जैसे बंगीय विद्वानों ने अपनी भागीदारी से यह विवाद समाप्त कर दिया तथा इन्होंने स्पष्ट कहा कि विद्यापति मिथिला-निवासी थे। इस विषय पर सर्वप्रथम डॉ. ग्रियर्सन ने चर्चा शुरू की, और व्यवस्थित तर्क के साथ विद्यापति का बिहारवासी होना प्रमाणित किया।

विद्यापति का जन्म-स्थान बिस्फी (जिला- मधुबनी, मंडल- दरभंगा, बिहार) है। राज्याभिषेक के लगभग तीन माह बाद राजा शिवसिंह ने श्रावण सुदि सप्तमी, वृहस्पतिवार, लं.सं. 293 (1403 ई.) को ताम्रपत्र लिखकर गजरथपुर का यह गाँव बिस्फी विद्यापति को दिया था।

महापुरुषों के जीवन-मृत्यु का काल निर्धारित करते समय अक्सर हमारे यहाँ दुविधा रहती है, विद्यापति उसके अपवाद नहीं हैं। विद्वानों ने इस पर पर्याप्त तर्क-वितर्क किया है। किंतु अवहट्ठ में लिखी उन्हीं की एक कविता की कुछ प्रारंभिक पंक्तियों के आधार पर उनका जन्म 1350 (लक्ष्मण संवत 241, शक संवत 1272) तय होता है। इससे अधिक प्रमाणिक कोई गणना नहीं हो सकती।

विद्यापति बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि और रचनाधर्मी स्वभाव के थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र से हासिल की। उनके भतीजे महामहोपाध्याय पक्षधर मिश्र विद्यापति के सहपाठी थे। दस-बारह वर्ष की बाल्यावस्था ही वे अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ महाराज गणेश्वर के दरबार में जाने लगे थे।

उनकी प्रसिद्ध कृति ‘कीर्तिलता’ में चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के मिथिला के क्षेत्रीय जनजीवन की अराजक स्थिति का दारुण विवरण दर्ज है। ‘बालचंद विज्जावड़ भासा, दुहु नहि लग्गड़ दुज्जन हासा’ जैसी गर्वोक्ति से विद्यापति के आत्मविश्वास के साथ-साथ यह अर्थ भी लगाया जा सकता है कि इससे पूर्व उनकी कोई महत्वपूर्ण रचना प्रकाश में नहीं आई थी।

इन पंक्तियों का एक निहितार्थ यह भी लगाया जा सकता है कि विद्वत्समाज में ईर्ष्या वश विद्यापति के लिए कुछ अवांछित टिप्पणियाँ भी हुई होंगी, जिस कारण उन्हें सज्जन-दुर्जन की घोषणा करनी पड़ी होगी। ‘कीर्तिपताका’ टिप्पणियों पुलिया विपरित का का रचनाकाल भी यही माना जाता है, जबकि इस कृति की अंतिम पुष्पिका में शिवसिंह का यशोगान हुआ है।

उनके पद ‘भनइ विद्यापति सुनु मंदाकिनि’ तथा ‘दुल्लहि तोहर कतए छथि माए’ से ज्ञात होता है कि उनकी पत्नी का नाम मंदाकिनि और पुत्री का नाम दुल्लहि था। उनके पुत्र का नाम हरपति और पुत्रवधू का नाम चंद्रकला था। 1439 ई. (लक्ष्मण संवत् 329) के कार्तिक धवल त्रयोदशी के दिन महाकवि विद्यापति का अवसान हुआ।

किंवदंतियों में सुना जाता है कि उनकी चिता पर अकस्मात शिवलिंग प्रकट हो गया। वहाँ आज भी शिवमंदिर है। फागुन महीने में वहाँ मेला लगता है। पहले वहाँ छोटा-सा मंदिर हुआ करता था, बहुत बाद के दिनों में बालेश्वर चौधरी नामक किसी जमींदार ने वहाँ बड़ा-सा मंदिर बनवाकर, महाकवि विद्यापति का नामोनिशान मिटाकर उस मंदिर का नाम बालेश्वरनाथ रख दिया।

सुना यह भी जाता है कि बी.एन.डब्ल्यू. रेल पटरी का प्रारंभिक नक्शा विद्यापति की चिता से गुजर रहा था। रेलपथ निर्माण हेतु जब वहाँ के पेड़ों की डालें काटी जानी लगी, तो टहनियों से खून निकलने लगे, और रेल-निर्माण के इंजीनियर घनघोर रूप से बीमार पड़ गए। फिर वहाँ रेलपथ को टेढ़ा किया गया ।

विद्यापति का समय और रचना संसार

विद्यापति का युग न केवल मिथिला के लिए, बल्कि पूरे भारतवर्ष के लिए सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक- हर दृष्टि से उथल-पुथल से भरा था।

सिलसिलेवार आक्रमण के कारण पूरा जनजीवन हर समय दहशत में पड़ा रहता था। दिल्ली से लेकर बंगाल तक की यात्रा में आक्रमणकारियों और आक्रांताओं के जय-पराजय की तो अपनी स्थिति थी

पर उस दहशत स्थिति थी, पर उस दहशत  का  में सामान्य नागरिक भी मन से व्यवस्थिति नहीं रह पाते थे। आक्रमण को जाते हुए उत्साह में और लौटते समय पराजय की हताशा में सैनिक कहाँ – कितना किसको आहत करते थे, उन्हें पता नहीं होता। पीढ़ी-दर-पीढ़ी अहंकार-तुष्टि और वर्चस्व-स्थापना के लिए तरहतरह के गठबंधन बन रहे थे।

सामंतों को भी तो अपनी अस्मिता कायम रखनी होती थी। पर इन सबके बीच साहित्य एवं कला के लिए जगह भी बनती रहती थी। जाति-व्यवस्था और कठोर हो रही थी, पर राजनीतिक दृष्टिकोण से उसमें परिवर्तन की अपेक्षा देखी जा रही थी।

हिंदू-मुसलमान के बीच एक-दूसरे को समझने की नई दृष्टि विकसित हो रही थी। आर्थिकसामाजिक जरूरतों के चलते दोनों एक-दूसरे के करीब आ रहे थे। कला, साहित्य, संस्कृति, धर्म तथा दर्शन संबंधी मान्यताओं को लेकर दोनों के बीच संवाद की बड़ी जरूरत आन पड़ी थी; जिसमें साहित्य की महती भूमिका अनिवार्य थी।

ऐसे समय में विद्यापति की अन्य रचनाओं  का जो योगदान है, वह तो है ही, उनकी ‘पदावली’ ने प्रेम, भक्ति और नीति के सहारे बड़ा काम किया। पदलालित्य, माधुर्य, भाषा की सहजता, मोहक गेयधर्मिता से मुग्ध होकर समकालीन और अनुवर्ती साहित्य-कला प्रेमी एवं भक्तजन भाषा, भूगोल, संप्रदाय, मान्यता, जाति-धर्म के बंधन तोड़कर विद्यापति के पद गाने लगे थे।

उनका एक घोर शृंगारिक पद है- ‘कि कहब हे सखि आनंद ओर, चिर दिने माधव मंदिर मोर…’ (हे सखि, बहुत दिनों बाद माधव मुझे अपने कक्ष में मिले, मैं अपने उस आनंद की कथा तुम्हें क्या सुनाऊँ!)। किंतु चैतन्य महाप्रभु इस पद को गाते-गाते इस तरह विभोर हो जाते थे कि उन्हें मूर्छा आ जाती थी।

विद्यापति एक तरफ ओयनबार वंश के कई राजाओं की शासकीय नीति देखकर अनुभवसंपन्न हुए थे, तो दूसरी तरफ समकालीन आर्थिक, राजनीतिक, शासकीय परिस्थितियों के अकर अनुमय- सा देख रहा था। प्रत्यार स्थापित बीच लोक-वृत्त के सूक्ष्म मनोभावों को अनुरागमय दृष्टि से देख रहे थे।

दरबार संपोषित रचनाकार होने के बावजूद चारणवृत्ति उनका स्वभाव न था। सिलसिलेवार आक्रमण के बर्बर समय में दहशतपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे जनमानस की जैसी दशा वे देख रहे थे, उसमें बड़े कौशलपूर्ण ढंग सामाजिक दायित्व निभाने की जरूरत थी।

इतिहास साक्षी है कि हर काल के बुद्धिजीवी समकालीन समाज और शासन के दिग्दर्शक होते आए हैं। प्रत्यक्ष परिस्थितियों में स्पष्टतः उपस्थिति शासकीय उन्माद और लोक जीवन की हताशा को अनदेखा कर नए संबंधों की सुस्थापना हेतु सौंदर्य और प्रेम से बेहतर कुछ भी नहीं होता; फलस्वरूप विद्यापति ने प्रेम को ही अपने रचना-संधान का मुख्य विषय बनाया। विद्यापति के व्यक्तित्व विद्यापति के व्यक्तित्व

संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली- तीन भाषाओं में रचित उनकी रचनाएँ गवाह हैं कि वे कर्मकांड, धर्मशास्त्र, दर्शन, न्याय, सौंदर्यशास्त्र, संगीतशास्त्र आदि के प्रकांड पंडित थे। भक्ति रचना, शृंगारिक रचनाओं में मिलन-विरह के सूक्ष्म मनोभाव, रति-अभिसार के विशद चित्रण, कृतित्व-वर्णन से राजपुरुषों का उत्साह वर्द्धन और नीति शास्त्रों द्वारा उन्हें कर्त्तव्यबोध देना। विद्यापति के व्यक्तित्व

सामान्य जनजीवन के आहार-व्यवहार की पद्धतियाँ बताना आदि हर क्षेत्र की समीचीन जानकारियाँ उनकी कालजयी रचनाओं में दर्ज हैं। शास्त्र और लोक के संपूर्ण विस्तार पर उनका असाधारण अधिकार था।

उनकी प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ हैं- ‘कीर्तिलता’, ‘कीर्तिपताका’, ‘भूपरिक्रमा’, ‘पुरुष परीक्षा’, ‘लिखनावली’, ‘गोरक्ष विजय’, ‘मणिमंजरी नाटिका’, ‘पदावली’ | धर्मशास्त्रीय प्रमुख कृतियाँ हैं1 ! ‘शैवसर्वस्वसार’, ‘शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत संग्रह’, ‘गंगावाक्यावली’, ‘विभागसार’, ‘दानवाक्यावली’, ‘दुर्गाभक्तितरंगिणी’, ‘वर्षकृत्य’, ‘गयापत्तालक’ | इन सब में सर्वाधिक लोकप्रिय रचना उनकी ‘पदावली’ मानी गई। 

यह भी पढ़े 👇 :–

  1. विद्यापति के काव्य सौंदर्य का वर्णन कीजिए |
  2. विद्यापति के काव्यगत विशेषताएं का मूल्यांकन करें |
  3. विद्यापति की कविता में प्रेम और शृंगार के स्वरूप पर सोदाहरण प्रकाश डालिए |

विद्यापति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए – अगर आपको यह पोस्ट पसंद आई हो तो आप कृपया करके इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें। और हमारे “FaceBook Page”  को फॉलो करें || अगर आपका कोई सवाल या सुझाव है तो आप नीचे दिए गए Comment Box में जरुर लिखे || धन्यवाद ||

विद्यापति के व्यक्तित्व विद्यापति के व्यक्तित्व

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!