विद्यापति पदावली में भक्ति और शृंगार का द्वंद्व किस रूप में प्रकट हुआ है?
विद्यापति पदावली में भक्ति प्रधान गीत और शृंगार प्रधान गीतों की पड़ताल थोड़ी सावधानी से करने की जरूरत है। कारण, इनके यहाँ और भक्ति कालीन कवियों की तरह न तो एकेश्वरवाद है और न ही अन्य शृंगारिक कवियों की तरह लोलुप भोगवाद। एक डूबे हुए काव्य रसिक के इस समर्पण में ऐसी जीवनानुभूति है किं भक्ति, शृंगार पर और ज्यादातर जगहों पर शृंगार, भक्ति पर हावी नजर आता है। इनके यहाँ भक्ति और शृंगार की धाराएँ कई-कई दिशाओं में फूटकर इनके जीवनानुभव को फैलाती हैं और कवि के वैराट्य को दर्शाती हैं।
विद्यापति पदावली में भक्ति
भक्ति और शृंगार के जो मानदंड आज के प्रवक्ताओं की राय में व्याप्त हैं, उस आधार पर महाकवि विद्यापति के काव्य संसार को बाँटें, तो राधा कृष्ण विषयक ज्यादातर गीत शृंगारिक हैं और जो भक्ति गीत हैं, उनमें प्रमुख हैं – शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वंदना, कृष्ण प्रार्थना आदि।
उल्लेख्य है कि स्त्री-पुरुष प्रेम विषयक जो भी शृंगारिक पद विद्यापति ने लिखे वे अपने जीवन के अंतिम तीस-बत्तीस वर्षों से पूर्व ही। अर्थात शिव सिंह जैसे प्रिय मित्र की मृत्यु के बाद इन्होंने शृंगारिक रचनाएँ नहीं की। शृंगार और भक्ति को परस्पर विरोधी मानने वाली धारणा से मुक्त होने के लिए डॉ० शिव प्रसाद सिंह का मत गौरतलब है, “विद्यापति के काव्य के विषय में प्रायः ये शंकाएँ की जाती हैं कि यह रहस्यवादी भक्ति काव्य है, या केवल शृंगार प्रधान प्रेम काव्य।
भक्ति और शृंगार के विषय में भी हमारे मन कुछ धारणाएँ बद्धमूल हो गई हैं। बहुत से लोग विद्यापति आदि के नख-शिख वर्णनों को देखकर इतने घबरा जाते हैं कि उन्हें इन कवियों की भक्ति-भावना पर ही अविश्वास होने लगता है। प्रत्येक महाकवि अपनी परम्परा का परिणाम होता है। यह सच है कि जीवंत कवि पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर नई भावधारा की सृष्टि करता है और पुराने प्रथा-प्रथिक वर्णनों की शृंखला का विच्छेद करके नए उपमान-मुहावरे प्रतीकों का निर्माण करता है किन्तु कोई अपनी परम्परा से एकदम विच्छिन्न कभी हो ही नहीं सकता। विद्यापति के काव्य को समझने के लिए तत्कालीन काव्य की मर्यादाओं को, नियमावलियों को तथा कविजनोचित उस परम्परा को समझना होगा जो उन्हें विरासत के रूप में मिली थी।” (विद्यापति, पृ० 96)
भक्ति और शृंगार – दोनों प्रवृत्तियाँ मध्यकाल के साहित्य में पाई जाती हैं। यह दीगर बात है कि भक्तिकाल का समय निर्धारण साहित्येतिहास में जब से होता है, उसके चार-पाँच वर्ष बाद विद्यापति ने शृंगारिक गीतों की रचना छोड़ दी। कहा जा सकता है कि इनकी शृंगारिक रचनाओं का प्रायः सर्वांश भक्तिकाल के पूर्व ही लिखा गया।
लेकिन भक्तिकाल की जो भी रचनाएँ हैं उनका संबंध किसी न किसी तरह अपभ्रंश साहित्य की भक्तिपरक रचनाओं से कमोबेश होगा। डॉ० शिव प्रसाद सिंह की राय में अपभ्रंश साहित्य की भक्तिपरक रचनाओं की मुख्य विशेषताएँ राधाकृष्ण संबंधी पदों में भक्ति और शृंगार का समन्वय, शृंगार का अत्यन्त मुखर रूप, संगीत-प्रेम-भक्ति का समन्वय आदि हैं। (विद्यापति, पृ० 96)
हो न हो विद्यापति के पदों में संगीतमयता, प्रेम और भक्ति के इतने उत्कृष्ट रूप का कारण उस विरासत का प्रभाव भी हो। पर आचार्य शुक्ल की राय में भक्तिपरक रचनाओं में शृंगारिक पुट होना कुछ ठीक सा नहीं हुआ। सूर के पदों के हवाले से आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस बात की शिकायत की है कि भक्ति रचना में शृंगारमय आलोत्सर्ग की अभिव्यंजना का समाज पर कल्याणकारी असर नहीं हुआ।
विषय वासना में रत रहने वाले स्थूल दृष्टि के लोगों पर इसका प्रभाव ठीक नहीं पड़ा। आगे के साहित्य में उन्मादकारिणी उक्तियों भरी शृंगारिक रचनाओं को उन्होंने इसके परिणाम के रूप मे देखा है।
विद्यापति के यहाँ भक्ति और शृंगार का यह रूप कुछ भिन्न है। यहाँ लोग चाहें तो आज की परिपाटी के अनुसार शृंगार और भक्ति की रचनाओं को अलग-अलग करके देख सकते हैं। ऐसे सच यह भी है कि विद्यापति के मैथिली में लिखे राधा-कृष्ण प्रेम विषयक गीतों को कई कृष्ण भक्त भक्तिगीत के रूप मे गाते हैं।
गीत गोविन्दम् में एक श्लोक है जिसमें जयदेव को कहना पड़ा कि यदि आपका मन सरस हो, हरि स्मरण करना चाहें और विलास के कुतूहल में रमना चाहें तो आप जयदेव की मधुर कोमलकान्त पदावली सुनें। भागवत में तो श्रद्धा और रति को भक्ति की सीढ़ी माना गया है। तंत्र साधना वाले साहित्य युग में “पंचमकार सेवन” भी गौरतलब है। ·
विद्यापति के पदों के संदर्भ में प्रो० मैनेजर पाण्डेय के कथन के सहारे ही बातें खुलती है कि लौकिक प्रेम ही ईश्वरोन्मुख होकर भक्ति में परिणत हो जाता है। लौकिक प्रेम भी जोड़ने का काम करता है और ईश्वरीय प्रेम भी । एकात्म्य की जो स्थिति भक्ति में दिखाई देती है और विद्यापति जिसे आत्मा परमात्मा के मिलन रूप में कहते हैं- “तोहे जनमि पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना”।
यह स्थिति लौकिक प्रेम मे कैसे फलित होती है यह देखने के लिए कृष्ण के विरह में नायिका द्वारा गाया गया वह गीत है – ”अनुखन माधव सुमरइत राधा भेल मधाई” । अर्थात सुध-बुध खोकर प्रेम दिवानी होने वाली राधा की जो व्याकुलता यहाँ है, भक्ति में यही व्याकुलता और विह्वलता भक्तों की होती है।
संगीत के अलावा भक्ति और शृंगार की यह तात्विकता जहाँ एकमेक होती है, वहाँ विद्यापति के कुछ भक्तिपरक पदों में शृंगार और भक्ति का संघर्ष भी परिलक्षित होता है। जो विद्यापति शृंगारिक गीतों में समर्पण और सौन्दर्य की हद तक लीन हैं। रमण, विलास, विरह, मिलन के इतने पक्षों को इतनी तल्लीनता से चित्रित करते हैं
और “यौवन बिनु तन, तन बिनु यौवन, की यौवन पिय दूरे” कहते हुए पिया के बिना तन और यौवन की सार्थकता ही नहीं समझते, वही विद्यापति अपने भक्तिपरक गीतों में विनीत हो जाते हैं और पूर्व में किए गए रमण और आराम को निरर्थक बता देते हैं : ‘आध जनम हम निन्दे गमाओल, जरा शिशु कत दिन गेला; निधुवन रमणी रसरंगे मातल, तोहे भजब कोन बेला”।
ये वही विद्यापति हैं, इतने मनोग्राही शृंगारिक गीतों की रचना करने के बाद अंत समय में “तातल सैकत बारि विन्दु सम सुत मित रमणि समाजे” कह देते हैं। जिन्होंने शृंगारिक गीतों में नायिका के मनोवेग को जीवन दिया है, उसे प्राणवान किया है, वे विद्यापति उस “रमणि” को तप्त बालू पर पानी की बूंद के समान कहकर भगवान शरणागत होते हैं।
“जावत जनम हम तुअ न, सेवल पद, युवति मनि मअ मेलि, अमृत तेजि किए हलाहल पीउल, सम्पदे विषदहि भेलि” कहकर महाकवि स्वयं शृंगार और भक्ति के सारे द्वैध को खत्म कर देते हैं, ऐसा मानना शायद पूरी तरह ठीक न हो। पूरा जीवन युवतियों के साथ बिताया, अमृत (ईष्ट भक्ति) छोड़कर विषपान किया- यह भावना कवि की शालीनता ही दिखाती है।
दो कालखंडों और दो मनःस्थितियों में एक ही रचनाकार द्वारा रचनाधर्म का यह फर्क कवि का पश्चाताप नहीं, उसकी तल्लीनता प्रदर्शित करता है कि वह जहाँ कहीं भी है, मुकम्मल है। हम शृंगारिक कवि विद्यापति और भक्त कवि विद्यापति को तौलने और समझने का प्रयास तो अवश्य ही करें, इन्हें लड़ाने का प्रयास नहीं कर सकते ।
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