विवेकानंद का दर्शन : philosophy of swami vivekananda - Rajasthan Result

विवेकानंद का दर्शन : philosophy of swami vivekananda

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विवेकानंद का जन्म कोलकाता की एक सुविख्यात परिवार में हुआ था उनका प्रारंभिक जीवन बहुत रोचक नहीं था। 1881 में उनकी स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात हुई जिन्हें विवेकानंद ने अपना दार्शनिक और गुरु माना। 1886 में राम कृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने लगभग संपूर्ण भारत की यात्रा की सन 1893 में उन्होंने शिकागो में हुए धर्मों के बीच संसद को संबोधित किया वहां से लौटकर कोलकाता के समीप उन्होंने रामकृष्ण आश्रम की स्थापना की 4 जुलाई 1902 में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु हो गई।

स्वामी विवेकानंद का दर्शन

विवेकानंद आध्यात्मवादी हैं क्योंकि वह अंतिम सत्ता को आध्यात्मिक मानते हैं वास्तविक एकमात्र निरपेक्ष बह्म है सत पूर्ण है जो यह सूचित करता है कि इसके यहां विभिन्न अंश भी होंगे। परंतु निरपेक्ष पूर्ण एकता है इसलिए अंशो व संपूर्ण के बीच का भेद पूर्ण समाप्त हो जाता है |

निरपेक्ष ब्रह्म देशकाल और कारणता से परे भी परे हैं अतः इसलिए परिवर्तन रहित है परिवर्तन रहित निरपेक्ष सभी गुणों से रहित निर्धारित तथापि निरपेक्ष की सत चित आनंद के रूप में व्याख्या की जा सकती है। प्रेम आनंद व का मौलिक सार है तत्वमीमांसीय रूप से सत्ता निरपेक्ष ब्रह्म है वही सत्ता धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर है जो कि सर्व व्याप्त है सब जगह और सभी चीजों में व्याप्त है |

विवेकानंद

विवेकानंद

ईश्वर

ईश्वर वैयक्तिक है विवेकानंद के दर्शन में दो धाराएं बहती हैं एक जो अद्वैत वेदांत के समरूप और दूसरी भक्ति मार्ग के ईश्वरवाद की याद दिलाती है| वह जो प्रधान रूप से वास्तविक है वही भक्ति व पूजा का विषय है ईश्वर की पूर्ण ए स्वीकृति असंभव है क्योंकि ईश्वर को विश्व और आत्मा के आधार को वह सहायक के रूप में पूर्ण कल्पित किया गया है विवेकानंद की शिक्षाओं में ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने के निम्नलिखित है

1. प्रारूप संबंधी तर्क :- विश्व की व्यापकता संगति और महत्ता हमें यह मानने को विवश करती है कि इस ब्रह्मांड का एक शिल्पकार एक बुद्धिमान चित्रकार अवश्य होगा।

2. कारणमूलक तर्क :- इस ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु कारण एवं कार्य के रूप में है यह कारणात्मक श्रंखला एक अंतिम कारण की ओर ले जाती है जो कारण हीन कारण निरपेक्ष सत ईश्वर है।

3. एकता संबंधी तर्क :- इस ब्रह्मांड में सभी वस्तुओं में एक अनिवार्य एकता दिखाई पड़ती है जो वस्तुएं एक दूसरे से अत्यंत भिन्न दिखाई पड़ती हैं वह भी वास्तविक में मूल्य तय है एक वह समान है एकता संबंधी यह तथ्य सभी वस्तुओं में निहित सर्वश्रेष्ठ एकरूपता के सिद्धांत को प्रकट करता है जो कि ईश्वर है।

4. प्रेम संबंधी तर्क :-

प्रेम की वस्तु में स्वयं को खोजने से ही प्रेम सन्निहित है प्रेम की क्रिया में मैं और तू का भेद मिट जाता है निष्कर्ष यह है कि सभी वस्तुओं के पीछे एक ही वास्तविकता है प्रेम का सर्वोच्च सिद्धांत ईश्वर है।

5. वेदों की प्रामाणिकता से संबंधित तर्क :- क्योंकि हम ईश्वर को जानने और समझने में समर्थ नहीं हुए हैं हम स्वयं को वेदों की प्रामाणिकता पर आधारित कर सकते हैं सत्ता एवं वास्तविकता की दृष्टि से केवल ईश्वर ही प्रथम है परंतु हमारे समिति ज्ञान की दृष्टि से वेद पूर्वर्ती प्रतीत होते हैं और ईश्वर की शिक्षा देने में हम केवल उन्हीं की प्रमाणिकता पर निर्भर हो सकते हैं।

6. सादृश्यमूलक तर्क :- वह एक सुंदर चित्र का समानुपात करते हैं जो व्यक्ति चित्र को उसे खरीदने और बेचने की दृष्टि से ही , वही उसका आनंद उठा सकता है उसी प्रकार यह संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर का चित्र है जिसका आनंद मनुष्य तभी उठा सकता है जब उसकी सारी इच्छाएं नष्ट हो जाएं।

7. अवधारणा की आवश्यकता संबंधी तर्क :- ईश्वर की अवधारणा अनेक धारणा धाराओं पर आवश्यक है यह आवश्यकता है कि क्योंकि ईश्वर सत्य है और सत्य आवश्यक है इसी प्रकार ईश्वर आवश्यक है क्योंकि ईश्वर स्वतंत्रता है मानव स्वतंत्रता का तथ्य निरपेक्ष स्वतंत्रता के आदर्श को जो कि दैवीय स्वतंत्रता है पूर्वकल्पित करता है पुण ईश्वर आवश्यक है क्योंकि अस्तित्व के भाव में ही ईश्वर सम्मिलित है।

8. अंतर्ज्ञान संबंधी तर्क :- यदि मानव कठोर धार्मिक अनुशासन और ज्ञान के मार्ग पर चलने को तैयार हो तो प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर को प्रत्यक्ष अंतर्ज्ञान द्वारा अनुभव करने की क्षमता है वैदिक तर्कों की आवश्यकता तभी होती है जब तक कि प्रत्यक्ष दृष्टि की क्षमता विकसित ने कर ली जाए।

 

जगत

जगत ईश्वर की रचना है,जोकि रचयिता की सीमित रूप में अभिव्यक्ति है। काल दिक् और कारणता में ढलने से निरपेक्ष ब्रह्मांड में अभिव्यक्त हो गया है। निश्चित रूप से यह व्याख्या दर्शाती है कि निरपेक्ष में कभी काल दिख वह कारणता का अस्तित्व नहीं था क्योंकि निरपेक्ष सभी परिवर्तनों से परे है। देश काल और कारणता का तत्वमीमांसीय वास्तविकता नहीं है बल्कि आकार है जिनके द्वारा ईश्वर अपनी रचना को संभव बना पाता है। यद्यपि आकार एक तत्वमीमांसीय वास्तविकता नहीं है यह ने तो वास्तविक है न असत्य।

यह आकार समुंदर की लहरों के समान है लहरें समुद्र के समान हैं फिर भी भिन्न हैं उसी प्रकार जगत लहरों के समान ही सत्य है विवेकानंद के अनुसार शंकर के जगत् मिथ्या का अर्थ मात्र भ्रम नहीं है बल्कि वह है जिसकी स्वयं में कोई वास्तविकता नहीं है और नहीं कोई नित्य मूल्य है इसका अर्थ है वह जो नित्य परिवर्तनशील है रचनाकाल रहित है ईश्वर नित्य रूप से रचना कर रहा है रचना और विकास साथ साथ होते हैं।

 

माया

माया रचिता की शक्ति है यह परिवर्तन का सिद्धांत है जिसके द्वारा रचना संभव होती है परंतु अद्वैत वेदांत के अनुसार माया भ्रम उत्पन्न करने की शक्ति है यह वह दिव्य शक्ति है जिसमें मनुष्य को इस प्रकार भ्रमित करने की क्षमता है कि वह विश्व को सत्य मानता है। विवेकानंद इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं उनके अनुसार माया ब्रह्मांड में स्पष्ट रूप में दिखने वाले विरोधात्मक तथ्यों को प्रदर्शित करती है। उदाहरण के लिए जहां शुभ है वहा अशुभ है।

जहां जीवन है वहां मृत्यु है आदि आदि। अंतः सभी विरोध समाप्त हो जाएंगे और इसीलिए माया को भी हटाना होगा परंतु हटाने की यह क्रिया जिसे हटाया जा रहा है उसे पूरी तरह समाप्त करती या नकारती नहीं है | यहां तक कि जब माया पीछे हटती है या प्रवृत्ति होती है तो यही दर्शाती है कि पूरे समय वह स्वयं ब्रह्म के ही संपर्क में थी उसके द्वारा हटने पर भी इसके द्वारा अभी तक निभाई गई विभिन्न भूमिकाएं इससे अलग नहीं होती। माया ने तो सत् न ही असत्, बल्कि निरपेक्ष सत् और असत् के बीच कुछ है |

 

मानव

विवेकानंद के दर्शन में मनुष्य का जो चित्र बढ़ता है वह शारीरिक और आध्यात्मिक का व्यवस्थित तंत्र है। मनुष्य अन्य जानवरों से शारीरिक रूप से श्रेष्ठ है क्योंकि उसका शारीरिक स्वरूप अधिक व्यवस्थित है और एक श्रेष्ठ तर एकता को दिखाता है। मनुष्य के शारीरिक स्वरूप की यह अनन्यता उसके व्यक्ति में विद्वान आध्यात्मिकता के ही कारण है। आत्मन का वास्तविक स्वरूप ब्राह्मण से तादात्म्य में है। यह दोनों मूल रूप में एक ही हैं और उनमें भेद केवल आभासी है सामान्यतः हमें इस भेद का ज्ञान नहीं होता परंतु कुछ विशेष अनुभव और अनुभूति या इसे इंगित करती हैं इसका सबसे साधारण उदाहरण यह अनुभव है कि एक व्यक्ति में इस प्रकार के तादात्म्यकरण की क्षमता विद्वान है।

 

स्वतंत्रता और कर्म

मानव का वास्तविक स्वभाव स्वतंत्रता है यही आत्मा के सार का निर्माण करती है यह कहना कि स्वतंत्रता का संबंध आत्मा से है उचित नहीं है क्योंकि आत्मा स्वयं स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का अर्थ सभी प्रकार के नियंत्रण कार्य तत्वों का अभाव नहीं है यह अर्थ पूरी तरह निर्धारण नहीं है बल्कि इसका अर्थ आत्म नियंत्रण है जिसमें स्वतंत्र करता किसी अन्य चीज से नहीं बल्कि स्वयं से ही नियंत्रित होता है।

इस प्रकार स्वतंत्रता और कर एक दूसरे से असंगत नहीं हैं कर मनुष्य के स्वभाव को निर्धारित करता है परंतु यह मनुष्य का कर्म है व्यक्ति के अपने कर्म भी भविष्य के फल की भूमिका तैयार करते हैं दूसरी और कर्म मानव स्वतंत्रता का विरोधी नहीं है ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यक्ति के अपने कर्म ही अंततः फलित होते हैं अपने अच्छे कर्मों से व्यक्ति अपने अज्ञान और दुःख पर विजय पा सकता है यह दर्शाता है कि मनुष्य मूलतः स्वतंत्र है।

 

अमरता

विवेकानंद यह मानते हैं कि आत्मा की अमरता का यथार्थ और वैज्ञानिक विवरण दे पाना संभव नहीं है। तथापि इस अवधारणा को एक ब्राह्मण कर इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि कोई भी अवधारणा पीढ़ी दर पीढ़ी भ्रमित नहीं कर सकती। वास्तव में आत्मा मृत्यु की अवस्थिति है यह अवस्थी पुनर्जन्म और अंत है अमरता की अनुभूति का रूप धारण करती है वास्तविक अमरता तभी प्राप्त हो सकती है जबकि जन्म और पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाए अमरता के लिए कुछ तर्क इस प्रकार हैं :-

1. आत्मा की सरलता :- आत्मा अमर है क्योंकि वह सरल है सरलता जटिलता का अभाव है जो नाशवान है वह निश्चित ही कुछ जटिल होता है।

2. अनंत शक्ति :- मानव में अनंत क्षमता है मनुष्य में सामने आने वाली प्रत्येक घटना के परे जाने की क्षमता विद्यमान है |

3. मोक्ष की उत्कंठा :- हमारी मृत्यु से मोक्ष की इच्छा अमरता का एक प्रतीक है क्योंकि हमारी वास्तविक इच्छाओं का एक वास्तविक विषय होता है यह दर्शाता है कि अमरता के लिए हमारी इच्छा ही अमरता का प्रमाण है।

 

मोक्ष और उसके साधन

हिंदुत्व की महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से एक मुक्ति यानी मोक्ष की अवधारणा है योगाभ्यास से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अनेक लोगों में से विवेकानंद ने यह चार योग बताए हैं कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग, और राजयोग

1. कर्म योग :- कर्म किसी के दबाव में आकर नहीं किया जाता बल्कि कर्तव्य की भावना से किया जाता है एक कर्म योगी एक स्वतंत्र कर्ता के रूप में सभी स्वार्थों से रहित होकर काम करता है। ऐसा कार्य ज्ञान की ओर ले जाता है जिससे मोक्ष प्राप्त होता है।

2. भक्ति योग :- प्रेम मैं ईश्वर के लिए की गई एक वास्तविक खोज है इसमें ईश्वर प्रेम बढ़ता है और परा भक्ति या सर्वोच्च व्यक्ति का रूप ग्रहण करता है जिसमें सभी स्वरूप और धार्मिक क्रियाकलाप समाप्त हो जाते हैं भक्ति योग में व्यक्ति अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण करता है। और आत्मा को ईश्वर की ओर ले जाने वाले मार्ग पर निरंतर आगे की ओर लेकर जाता है।

3. ज्ञान योग

ज्ञान योग तत्व मीमांसा के अर्थ को व्याख्यायित करता है और मनुष्य को यह बताता है कि वह वस्तुतः देवीय है ज्ञान योग में शरीर की सारी शक्ति ज्ञान की दिशा में लगाई जा सकती हैं। धीरे-धीरे यह ध्यान और प्रगाढ़ बन जाता है और व्यक्ति पूर्ण ध्यान अथवा समाधि की दशा को प्राप्त कर सकता है। इस अवस्था में आत्मा और ब्रह्म के बीच का भेद समाप्त हो जाता है यही पूर्ण एकता की अवस्था है।

4. राज योग :- राजयोग निम्न आत्मन की उच्च आत्मन से होने वाले रहस्य आत्मक एकता को अनुभव करने की एक विधि है। यह मन की गतिविधियों को रोकता है और मन की गतिविधियों के रुकने से ही लगा और बंधन समाप्त हो जाते हैं यह क्वेश्चन निश्चित परा सामान्य शक्तियों को उत्पन्न करता है जिसकी मोक्ष प्राप्त करने के लिए इच्छुक से उपेक्षा करनी चाहिए।

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