वैष्णव की फिसलन व्यंग्य निबंध का प्रतिपाद्य | हरिशंकर परसाई |
वैष्णव की फिसलन व्यंग्य निबंध :— आपने इस निबंध को पढ़ने तथा इसकी बहुत सारी विशेषताओं की जानकारी प्राप्त करने के बाद इसकी रचना-पद्धति और प्रकृति में एक नयापन देखा होगा। यहाँ निबंध के, विशेषकर व्यंग्यात्मक निबंध के रचना-शिल्प पर विचार करते हुए हम उपर्युक्त नयेपन की ओर भी संकेत करते चलेंगे।
जहाँ तक निबंध के शाब्दिक अर्थ का संबंध है, वह एक बंधी हुई और अत्यंत सुगठित रचना का संकेतक है। (निः= विशेष, बंध बँधा या बँधी हुई) अर्थात् विशेष रूप से बंधी हुई या सुगठित रचना। लेकिन निबंध-रचना की निर्धारित सीमा का त्याग कर परसाई कहानी के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। अतः वैष्णव की फिसलन’ में चरित्र-विधान और संवाद योजना के कारण कहानी का गुण भी आ जाता है।
वैष्णव की फिसलन व्यंग्य निबंध का प्रतिपाद्य
निबंध की अंतर्वस्तु और उसके शीर्षक की सार्थकता के परिचय माध्यम से आपने निबंध के प्रतिपाद्य के संबंध में अब तक पर्याप्त संकेत प्राप्त कर लिए हैं। प्रतिपाद्य से अभिप्राय यह है कि परसाई जी ने इसमें क्या प्रतिपादित करना या बताना चाहा है और क्यों बताना चाहा है। अतः प्रतिपाद्य के अंतर्गत एक आग्रह या अनुरोध भी आ जाता है।
जो लेखक द्वारा पाठकों के लिए प्रेरक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रस्तुत निबंध में हरिशंकर परसाई का लक्ष्य केवल सूदखोरी, काला बाजारी और होटल व्यवसाय में बढ़ रहे भ्रष्टाचार से परिचित कराना मात्र नहीं है। वे लोभ-लाभ पर आधारित सम्पूर्ण व्यवसायिकता की विकृतियों और उसके समाजविरोधी स्वरूप को व्यंग्य के माध्यम से उद्घाटित करते हुए पाठक को जागरूक बनाकर सावधान भी करते हैं।
इस प्रक्रिया में वे पाठक के अंदर इन सामाजिक बुराइयों के प्रतिकार या प्रतिरोध की भावना भी पैदा करते हैं। परसाई ने अपने सम्पूर्ण साहित्य के माध्यम से समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त विकृतियों की बखिया उघाड़ते हुए उसके प्रतिकार की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। इसे उनकी प्रमुख विशेषता माना जा सकता है।
इस निबंध में उनका लक्ष्य विभिन्न व्यवसायों में पनपने वाले भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान है। धर्म की आड़ में होने वाले भ्रष्टाचार समाज के लिए और अधिक घातक हो जाते हैं, इस वास्तविकता का उद्घाटन समस्या के समाधान की एक महत्वपूर्ण मंजिल है।
क्योंकि धार्मिक भावना से संचालित पाठक धर्म के दुरुपयोग के प्रति सावधान रह कर ही अपने सामाजिक दायित्व को सही ढंग से पूरा कर सकता है। धर्म या भक्ति भावना अपने आप में कोई अच्छी या बुरी चीज़ नहीं है। उसकी अच्छाई-बुराई उसके सामाजिक व्यवहार पर निर्भर करती है। अतः धर्म जब सामाजिक भ्रष्टाचार के लिए ओट बन जाए, उसे बढ़ावा देने लगे तो वह निश्चय ही त्याज्य बन जाता है। व्यावसायिक भ्रष्टता के साथ ही धर्म विषयक उपर्युक्त संदेश भी लेखक ने इस निबंध के माध्यम से पाठक के सामने प्रस्तुत किया है।
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