वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आयी | की संदर्भ सहित व्याख्या | हरिशंकर परसाई |

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आयी | की संदर्भ सहित व्याख्या | हरिशंकर परसाई |

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वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आयी, ‘मूर्ख, गांधी जी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ? गांधी जी का भजन है, “वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीर परायी जाणे रे। तू इस होटल में रहने वालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।”

वैष्णव की शुद्ध आत्मा की व्याख्या 

संदर्भः यह गद्यांश हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबंध वैष्णव की फिसलन’ से लिया गया है। वैष्णव के आलीशान होटल में मांसाहार की व्यवस्था न होने के कारण उसमें ठहरने वाले उच्च अधिकारी और बड़े लोग असंतुष्ट हैं। एक उच्च अधिकारी तैश में आकर वष्णव को फटकारने लगता है कि इतने बड़े होटल में मांसाहार का इंतजाम क्यों नहीं है?

वैष्णव अपने धर्म-संकट की बात कहकर इस पाप-कर्म से छुटकारा पाना चाहता है। लेकिन उच्च अधिकारी के दबाव से वह विष्णु भगवान के चरणों में लेटकर प्रार्थना करता है कि होटल मे ठहरने वालों की तकलीफ के विषय में वह क्या करे? उसकी शुद्ध आत्मा के रूप में भगवान विष्णु जो समाधानपूर्ण आदेश देते हैं, उसे अत्यंत व्यंग्यात्मक ढंग से इस उद्धरण में प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्याः अपनी प्रार्थना के उत्तर में वैष्णव की शुद्ध आत्मा (जो व्यंग्य में निहित विपरीत लक्षण से अत्यंत मलिन और स्वार्थलिप्त है) से आवाज आती है कि तुम मूर्ख हो। गांधी जी से महान वैष्णव इस युग में पैदा ही नहीं हुआ। उनके प्रसिद्ध भजन वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीर पराई जाणे रे का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उसकी तथाकथित शुद्ध आत्मा का आदेश होता है कि ‘तू होटल मे ठहरने वालों की पीड़ा को क्यों नहीं समझता?’

उन्हें इच्छानुसार भोजन नहीं मिल पा रहा है। उनकी इस पीड़ा को तू समझ और उसे तुरंत दूर कर। इस तरह अपनी शुद्ध आत्मा अर्थात् स्वार्थ के वशीभूत मलिन आत्मा की आवाज को विष्णु भगवान का आदेश मानकर वह होटल में मांसाहार के लिए मांस, मुर्गा, मछली आदि की तुरंत व्यवस्था कर देता है। अतः धर्म की झूठी आड़ में उसका होटल अच्छी तरह चलने लगता है।

विशेषः

1) यहाँ ‘वैष्णव की शुद्ध आत्मा’ पद मलिन और स्वार्थ लिप्त आत्मा का अर्थ देता है।

2) इस उद्धरण में नरसी मेहता द्वारा रचित और लोग मंगल के महान साधक महात्मा गांधी के प्रिय भक्तिगीत का वैष्णव द्वारा अपने हित में दुरुपयोग किया गया है। इसके माध्यम से लेखक ने सिद्ध किया है कि मानवता की महान-से-महान उपलब्धियों की भी व्यावसायिक वर्ग आड़ लेकर अपने कुकृत्य को सफलतापूर्वक छिपा सकता है।

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