श्रृंगार रस के दोहे बिहारी
श्रृंगार रीतिकाल की मुख्य प्रवृत्ति है। बिहारी सतसई को श्रंगार का श्रेष्ठ काव्य माना जाता है आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी बिहारी की कविता के प्रधान प्रवृत्ति श्रृंगारी माना है |
किंतु उनकी कविता में वह प्रेम दृष्टि का भाव देखते हैं उन्हीं के शब्दों में कविता उनकी श्रृंगारी है। पर प्रेम की उस भूमि पर नहीं पहुंचती नीचे रह जाती है। पर बिहारी सतसई सूक्ष्म शृंगारिक काव्य नहीं है उसमें सौंदर्य और प्रेम की छवियां हैं वैसे भी श्रंगार का प्रेम और सौंदर्य से गहरा रिश्ता है।
श्रृंगार और संयोग
श्रृंगार रस का स्थाई भाव ‘ रति’ है संयोग और वियोग श्रृंगार इसके दो भेद हैं बिहारी का श्रृंगार वर्णन रीतिकाल में विराल है संयोग श्रृंगार में बिहारी ने श्रंगार की शास्त्रीय अभिव्यक्ति के साथ उससे अलग श्रंगार के मौलिक छवियों का चित्रण भी किया है। नायक नायिका के प्रेम प्रसंग उनके हाव-भाव मान मनुहार और विविध आंगिक चेष्टाओ और मनोवृति का सुंदर चित्रण बिहारी के दोहों में है नायिका द्वारा नायक से संवाद और प्रेम भाव का यह शृंगारिक चित्रण इस संयोग श्रृंगार के दोहे में देखा जा सकता है।
बतरस लालच लाल की, मुरली घरी लुकाय ।
सौंह करै, भौहन हंसे, दैन कहै, नटि जाय ॥
नायक से बात करने की लालसा से मुरली को नायिका द्वारा छुपाया जाना नायक द्वारा मांगने पर बाहों में हंसना हास परिहास सौगंध खाना और फिर मुरली देने से इनकार करना। नायक नायिका की आंगिक चेष्टाओ और श्रंगार के संयोग पक्ष का सुंदर चित्रण है। संयुक्त चित्रण में बिहारी ने बाहरी व्यापार चमत्कारिक वर्णन के साथ आंतरिक हाव-भाव का भी सुंदर वर्णन किया है। नायक नायिका द्वारा भरे भवन में नैनो के द्वारा आपसी संवाद का यह संयोग चित्रण ब्रल है।
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात |
भरे भौन मे करत है, नैनन हीं सो बात ॥
संयोग श्रंगार में बिहारी ने बाहरी हाव-भाव और व्यापार के साथ नायक नायिका के अंतर्मन में होने वाली आसक्ति और संवेदना का सुंदर चित्रण किया है।
विरह चित्रण श्रंगार काव्य की कसौटी है रिद्धि सिद्धि कवि होने से बिहारी की कविताओं में विरह की दशा का शास्त्रीय चित्रण भी है और विरह की स्वाभाविक और शहद अनुभूतियां भी हालांकि विरह का स्वच्छंद भाव कमतर है।
बिहारी के काव्य में शास्त्रीय दृष्टि से किया गया वह चित्रण कृति मोहन चमत्कारिक लगता है। स्वाभाविक विरह का वर्णन करते समय उनकी कविता में गहन भाव संवेदना होती है। विरह में अतिशयोक्ति और चमत्कारिक चित्रण का कुछ उदाहरण निम्नलिखित है :-
झ्त आवत चलि जात उत, चली छ सातक हाथ |
चढ़ी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनि साथ ॥
धात ग्रह में नायिका इतनी कृषकाय हो गई है कि वह कदम कहीं और रखती है और पड़ते कहीं और है | सांस लेने और छोड़ने के क्रम में अपनी जगह से 7 हाथ पीछे और आगे चली जाती है। एक अन्य कविता में भी रहता आप के संदर्भ में लिखते हैं कि विरह में नायिका का शरीर इतना दग्ध है कि उसे शीतल करने के लिए गुलाब जल की शीशी जो उसके ऊपर डाली जाती है वह बीच में ही सूख जाती है शरीर पर उसकी एक बूंद भी नहीं पड़ती |
औध्याई सीसी, सुलखि विरह बरति बिललाल ।
बिच ही सूखि गुलाब गौ, छींटो हुयी न गात ॥
प्रिय के विदेश चले जाने पर उसके प्रवास के दौरान उपजे विरह के चित्रण की बिहारी सतसई में अधिकता है प्रवास संबंधी विरह वर्णन में स्वाभाविक था और मार्मिकता भी अधिक है ।
विरह की संवेदना का एकरंग यह है की नायिका अपने प्रिय से यह शिकायत करती है कि आपने अपना मन तो मुझे दे दिया वह मेरा हो गया है अब कहीं और जाने को तैयार नहीं है लेकिन आप है कि उसे सौतन के हाथ देना चाहते हैं ऐसा जुल्म तो न कीजिए
मोहि दियों मेरे भयो, रहत जुमिल जिय साथ |
सो मन बाँधि न दीजिए, पिय सौतिन के हाथ ॥
विरह मैं नायिका नहीं नायक के ‘अरगजे’ को ‘अबीर’ बना के लिया; विरह सताप की यह उदात्तता बिहारी को रीतिकालीन कवियों में विरह के श्रेष्ठ कवि का दर्जा प्रदान करती है।
मैं लै दयौ लयौ सुकर, हुवत छनकि गौ नीर ।
लाल तिहारों अरगजा उर ह्वै लग्यो अबीर ॥
बिहारी ने श्रृंगार चित्रण में विशेषकर विरह चित्रण में कुछ ऐसी मौलिक उद भावनाएं की हैं जो उनकी कविता को उत्कृष्ट बनाती है विरहणी की दशा को देखने के लिए बिहारी का यह आग्रह तो खूब है जिसमें वह विरहणी के तन की तारुण दशा दिखाना चाहते है। विरह का यह विरल उदहारण :
जौ वाके तनकी दशा, देख्यो चाहत आप ।
तौ बलि नैकु बिलोकिए चाहि औचक चुपचाप ॥
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