सब सभा रही निस्तब्ध राम के स्तिमित नयन | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |

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सब सभा रही निस्तब्ध

राम के स्तिमित नयन

छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,

जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव

उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,

ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समानुरक्ति,

पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,

बोले रघुमणि “मित्रवर, विजय होगी न, समर

यह नहीं रहा नर वानर का राक्षस से रण,

उतरी पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,

अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।” कहते छल छल

हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,

रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड

धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड

स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,

व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,

निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम

मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।

सब सभा रही निस्तब्ध

प्रसंग – विभीषण द्वारा युद्ध के प्रति उत्तेजित किए जाने पर राम ने जो उत्तर दिया, प्रस्तुत पंक्तियों में उसी को काव्य निबद्ध किया गया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि विभीषण की बातों को सुनकर संपूर्ण सभा शांत दशा में बैठी रही। राम भी कुछ क्षणों तक अपने आधे झुके नेत्रों से शीतल प्रकाश बिखेरते हुए देखते रहे और उदास भाव से बैठे रहे। विभीषण के उद्गारों में जो ओजस्वी प्रभाव था उसके प्रति राम को न तो किसी प्रकार का लगाव था और न किसी प्रकार का दुःख ही था।

ऐसा प्रतीत होता था मानो वे शब्द मात्र थे अर्थात् उनमें किसी प्रकार की गूढ़ भावना नहीं थी और राम के लिए वे निरर्थक थे। विभीषण ने तो उत्तेजनामयी बातें कही थीं, उनमें मैत्री व्यवहार का पुट था, किंतु उस समय राम के हृदय में किसी गंभीर भाव को ग्रहण करने की शक्ति ही नहीं थी। वे कुछ क्षणों तक मौन रहे और तदनंतर रघुवंश में मणि के तुल्य राम अपने स्वाभाविक मृदुल स्वर में कहने लगे

हे मित्र! मुझे इस युद्ध में अपनी विजय संभव नहीं दिखाई देती । कारण यह है कि अब यह मनुष्यों और वानरों का राक्षसों से युद्ध नहीं रहा है बल्कि रावण के आमंत्रण पर स्वयं महाशक्ति ही उसके पक्ष से युद्ध करने के लिए उतर आई है। कितने आश्चर्य की बात है कि शक्ति ने अन्यायी पक्ष का साथ दिया है – शक्ति अन्यायी रावण के साथ है।

यह कहते हुए राम के नेत्रों में अश्रुबिंदु छलछला उठे और उनके नेत्रों से पुनः आंसुओं की कुछ बूंदें दुलक पड़ीं। उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। राम की ऐसी दशा देखकर लक्ष्मण का प्रचंड तेज भड़क उठा, हनुमान राम के दोनों चरणों को पकड़कर लज्जा के कारण पृथ्वी में धंस से गए और उनकी भुजाएं कसमसाने लगीं। जाम्बवान स्थिर थे।

इस प्रकरण के समस्त भावों को समझते हुए सुग्रीव व्याकुल हो उठे और विभीषण के हृदय में भयंकर घाव-सा हो उठा और वे अपना भावी कार्यक्रम निश्चित करने लगे। इस प्रकार वैसे तो वातावरण में मौन व्याप्त था किंतु फिर भी उसमें विभित्र प्रकार के स्पंदन (हलचल, धड़कन) परिव्याप्त थे ।

विशेष

1. अपने स्वामी राम को दुखी देखकर उनके सेनानायकों का दुखी हो उठना सर्वथा स्वाभाविक है।

2. राम की यह दुश्चिंता भी स्वाभाविक ही है कि ब्रह्मशक्ति को अन्यायी पक्ष का साथ नहीं देना चाहिए ।

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