साकेत में उर्मिला का विरह वर्णन | मैथिलीशरण गुप्त |
साकेत में उर्मिला का विरह वर्णन :— मानव जीवन में चाहे वियोग की अपेक्षा संयोग का अधिक महत्त्व स्वीकार किया जाए, किन्तु काव्य क्षेत्र में संयोग की अपेक्षा विरह की अधिक महत्ता रही है।
आधुनिक काल के कवियों ने भी विरह की महत्त्व स्वीकृति के विषय निम्नांकित उद्गार व्यक्त किए हैं
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साकेत में उर्मिला का विरह वर्णन
विरह प्रेम की जाग्रत गति है और सुषुप्ति मिलन है।
पंतजी ने एक ओर यदि यह भाव व्यक्त किया है कि-
वियोगी होगा पहला कवि,
आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों से चुपचाप,
वही होगी कविता अनजान |
तो दूसरी ओर वियोग की करालता के विषय में निम्न उद्गार व्यक्त किए हैं
विरह! अहह कराहते इस शब्द को,
निठुर विधि से अश्रुओं से हैं लिखा ।
साकेत की रचना का मूलोद्देश्य उर्मिला के चरित्र को प्रकाश में लाना रहा है। उर्मिला का जीवन लम्बी विरहावस्था की एक करुण गाथा रहा है। उसकी भगिनियों सीता, मांडवी और श्रुतिकीर्ति तीनों को ही स्व-पतियों का साहचर्य उपलब्ध रहता है। सीता वन के कष्ट अवश्य भोगती हैं, किन्तु पति- साहचर्य के कारण उन्हें अपना वन्य- कुटीर भी राजभवन – जैसा सुखद प्रतीत होता हैं- “मेरी कुटिया में राजभवन मनभाया । ”
इसके सर्वथा विपरीत उर्मिला की दशा बड़ी दयनीय है, वह न तो सीता की भांति स्व- पति के साथ वन में जा पाती है और न उसे मांडवी और श्रुतिकीर्ति के समान राजभवन में रहते हुए ही स्व-पति का सान्निध्य उपलब्ध है। उसकी माता उचित ही कहती है
मिला न वन ही न गेह ही तुझको ।
विरहिणी के रूप में उर्मिला की प्रवत्स्यत्पतिका तथा प्रोषित-पतिका दोनों ही दशाओं का चित्रण किया गया है। इनमें प्रथम रूप वियोग की संभावना या पूर्ण निश्चय से संबंधित होता है, तो द्वितीय दशा में नायिका की वास्तविक विरह-दशा का अंकन किया जाता है। मार्मिकता की दृष्टि से इनमें से नायिका की प्रथम दशा भी कम करुणार्द्र नहीं होती।
प्रवत्स्यत्पतिका के रूप में उर्मिला के समक्ष, जिसके हाथों की मेंहदी भी अभी भली-भाँति नहीं सूख पायी है, तब बड़ी ही विकट स्थिति समुत्पन्न हो जाती है, जब वह देखती है कि उसके ज्येष्ठ के साथ उसके प्राणेश्वर ने तो जाने का निश्चय कर ही लिया है, उसकी भगिनी सीता भी यह तर्क देकर स्व-पति के साथ वन जाने का जाने का संकल्प व्यक्त कर रही हैं
अथवा कुछ भी न हो वहाँ
तुम तो हो जो नहीं यहाँ।
मेरी यही महामति है,
पति ही पत्नी की गति है।
उर्मिला के समक्ष विकट समस्या है – क्या वह इस तथ्य में विश्वास नहीं करती कि “पति ही पत्नी की गति है?” यदि वह भी सीता की भाँति इस तथ्य में आस्था रखती है और इसमें सन्देह नहीं कि उर्मिला भी इसी तथ्य में आस्था रखती है किन्तु समस्या यह है कि उसके पति लक्ष्मण की स्थिति सीता के पति जैसी नहीं है, जो स्व-अग्रज के सेवा के लिए वन जा रहे हैं। वह स्व-पति की आँखों में झाँकती है और उनमें अंकित इस भाव को पढ़ लेती है
प्रभु-वर बाधा पावेंगे छोड़
मुझे भी जावेंगे।
भारतीय सन्नारियाँ निजी आशा-आकांक्षाओं की अपेक्षा सदैव ही स्वप्राणेश्वरों की आशा-आकांक्षाओं का सम्मान करती आयी हैं और उर्मिला भी इस दिशा में पीछे नहीं रहती। वह अपने उस अंतर्मन को जो पति के साथ वन-गमन के लिए तड़प रहा है, यह उद्बोधन देकर समाश्वासित कर लेती है
कहा उर्मिला ने हे मन !
तू प्रिय पथ का विघ्न न बन।
आज स्वार्थ है त्याग-भरा !
तू विकार से पूर्ण न हो,
शाक-भार से चूर्ण न हो।
गुप्तजी द्वारा चित्रित उर्मिला के प्रवत्स्यरपतिका रूप की गरिमा यह है कि कि वह परम्परागत नायिकाओं की भाँति रुदन – चीत्कार आदि में निमग्न नहीं होती, अपितु अपनी भावनाओं के ज्वार के संयमन में अद्भुत धैर्य का परिचय देती है। हाँ जब वह अपनी अग्रजा को राम के साथ वन जाने का यह तर्क देकर संकल्प व्यक्त करते देखती है
सतियो को पति-संग कहीं
अगम गहन क्या दहन नहीं।
तो उर्मिला अपनी दैन्य निरीहता को संयमित नहीं रख पाती, और न चाहते हुए भी मूर्च्छित होकर गिर पड़ती है
इधर उर्मिला मुग्ध निरी,
कहकर ‘हाय !’ धड़ाम गिरी।
गुप्तजी का कौशय इस बात में है कि उन्होंने उर्मिला के मुख से आसन्न विरह – विछोह के विषय में कुछ भी न कहलवाकर अन्य पात्रों की उक्तियों के माध्यम से उसकी दयनीय दशा मूर्तिमती कर दी है। सभी की आँखें छलछला आती हैं और लक्ष्मण तो इस दृश्य को सहन न कर पाने के कारण अपने नेत्र ही बन्द कर लेते हैं –
लक्ष्मण ने दृग मूँद लिये,
सबने दो-दो बूँद दिये !
सीता के मुख से निकल पड़ता है कि अरी बहिन ! तुझे तो आज मेरे जैसा भी सौभाग्य उपलब्ध नहीं है –
आज भाग्य है जो मेरा;
वह भी हुआ न हा तेरा!
राम को स्वीकार करना पड़ता है कि मैं तो वन में भी पत्नी- साहचर्य के कारण गृहस्थ-जैसा ही जीवन व्यतीत करूँगा, जबकि यदि किन्हीं को वास्तव में वनवासी कहा जा सकता है, तो वे लक्ष्मण और उर्मिला हैं
वनवासी हे निर्मोही,
हुए वस्तुतः तुम दो ही।
गुप्तजी ने उर्मिला के प्रवत्स्यत्पतिका रूप के चित्रांकन में जहाँ परम्परा और नूतनता का समावेश किया है, वहाँ उसके प्रोषित भर्तृका के रूप – चित्रांकन में भी परम्परा और नूतनता का समन्वय किया है। एक ओर तो उसमें विरहिणी नायिकाओं की शास्त्रोक्त दश दशाओं का चित्रण मिलता है तो दूसरी ओर उसमें प्रोषित-पतिकाओं से सम्वेदना व्यक्त करने, वियोग में रोते-कलपते- तड़पते रहने के स्थान पर पुरबालाओं के लिए पाठशाला खोलने, प्राकृतिक रम्य दृश्यावली को
“मधुवन तुम कत रहत हरे !
विरह-वियोग श्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे ?
आदि कहकर न कोसने की पृवत्ति प्रदर्शित की है। राम और सीता के साथ उर्मिला के हृदयेश्वर के चले जाने पर षष्ठ सर्ग के आरंभ में उसका नव-वय में ही पति से विश्लेष हो जाने के विषय में कवि के ये उद्गार सर्वथा उचित हैं कि उर्मिला द्वारा सीता से भी अधिक त्याग – भाव दिखाने के कारण पृथ्वी का गौरव बढ़ा है
सीता ने अपना भाग लिया
पर इसने वह भी त्याग दिया।
गौरव का भी भार यही,
उर्वी भी गुर्वी हुई मही।
नव वय में ही विश्लेष हुआ,
यौवन में ही यति वेश हुआ।
यद्यपि उनकी सखियों की यह आशा थी कि महाराज दशरथ की इच्छानुसार सुमंत्र राम-लक्ष्मण-सीता को शीघ्र ही वन से लौटा लायेंगे, किन्तु उर्मिला की धारणा यह है कि-
लौटेगे क्या प्रभु और वहन ?
उनके पीछे-हा! दुःख-दहन |
जिस व्रत पर छोड़ गये सब वे !
लौटेंगे उसे छोड़ अब वे,
उसे उनके प्रत्यागमन की आशा बहुत कम है। विरह का प्रथम प्रभाव उसके स्वास्थ्य – सौंदर्य पर पड़ता है।
उर्मिला के शरीरांग तो उसके वशीभूत नहीं है यदि चाहने पर भी नींद नहीं आती, उसे खाना-पीना, पहनना, ओढ़ना नहीं भाता तो वह क्या करे ! हाँ स्व-अंतर्मन को वह शीघ्र ही संयमित कर लेती है। यह सोचकर उसकी आत्म-ग्लानि की सीमा नहीं रहती कि स्व-प्राणेश्वर की विदा – बेला में, मैं उनसे यह क्यों न कह सकी कि वे मेरी चिन्ता करके – “भ्रातृ-स्नेह न ऊना हो, लोगों के लिए नमूना हो। “
वह स्व- हृदयेश्वर तक जो संदेश पहुँचाने के लिए छटपटाती है उससे उसका चरित्र औदात्य – शिखर पर चढ़ने लगता है –
सुनकर जीजी की मर्म-कथा,
गिर पड़ी मैं, न सह सकी व्यथा ।
वह नारि सुलभ दुर्बलता थी,
आकस्मिक-वेग-विकलता थी।
करना न सोच मेरा इससे,
व्रत में कुछ विघ्न पड़े जिससे ।
कहना न होगा कि उर्मिला का सन्तोष-भाव अत्यधिक अभिनंदनीय होने के साथ-साथ दैन्य तथा कातरता से परिपूर्ण है।
उर्मिला का चित्रकूट में सीता के कौशल द्वारा स्व-पति से क्षणिक मिलन होता है। उर्मिला का यह एक प्रकार से दुर्भाग्य ही है कि उसका यती पति उससे जान-बूझकर मिलने की चेष्टा नहीं करता। सीता द्वारा ताल- सम्पुटक लाने के बहाने से कुटी में भेजे गए लक्ष्मण उसमें बैठी क्षीण – काय उर्मिला को देखकर स्तंभित रह जाते हैं
यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया !
स्व-पति को, अपने हृदय-रूपी उपवन के मृग को इस प्रकार झिझकते देखकर उर्मिला जो उद्गार व्यक्त करती है, उनमें उसकी अंतर्व्यथा तो पूंजीभूत है ही, लक्ष्मण के प्रति यह समाश्वासन भी है कि जब मैंने स्वेच्छा से ही तुम्हें कानन-चारी बनने दिया है, तो यह भय मत करो कि अब मैं तुम्हें बन्दी बना लूँगी
मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी,
मैं बाँध न लूँगी तुम्हें, तजो भय भारी ।
लक्ष्मण, जिनके हृदय में स्व-पत्नी के त्याग – भाव के प्रति पहले से ही अत्यधिक श्रद्धा-भाव था, इसके अतिरिक्त और क्या कर सकते थे कि वे दौड़कर उसके चरणों में गिर जाते, और तब उर्मिला भ उनके चरणारविन्दों को अपने आँसुओं से पखारने लगती है
गिर पड़े दौड़ सौमित्र प्रिया-पद- तल में,
वह भीग उठी प्रिय-चरण धारे दृग-जल में ।
डॉ० नगेन्द्र ने उर्मिला और लक्ष्मण के इस क्षणिक सम्मिलन के विषय में उचित ही कहा है – “यह आवेश का आवेश से मिलन था। दो हृदयों के अथाह सागर आपस में मिल गये – संसार लय हो गया ! लक्ष्मण का हृदय अपराधी है, वह जानता है कि उर्मिला के साथ अन्याय हुआ है। उधर उर्मिला की उदारता देखकर वह और लज्जित हो जाता है। लक्ष्मण अपने आपको उर्मिला से कहीं नीचा मानते हैं और कह उठते हैं
वन में तनिक तपस्या करके,
बनने दो मुझको निज योग्य,
भाभी की भगिनी,
तुम मेरे अर्थ नहीं केवल उपभोग्य |
उर्मिला को स्व-पति से बहुत कुछ कहना था, विशेषतया वे बातें जिनके लिए वह छटपटाती रही थी कि मैं उन्हें स्व-पति की विदा बेला में नहीं कह सकी थी; किन्तु वह कुछ कह तो तभी सकती थी जब इस भावावेशमयी अवस्था में उसका कंठ उसका साथ देता! उर्मिला का गला भर आता है और वह इतना ही कहकर संतोष कर लेती है
हा स्वामी, कहना था क्या-क्या कह न सकी कर्मो का दोष।
पर जिसमें सन्तोष तुम्हें हो, मुझे उसी में है सन्तोष ।
कहना न होगा इस प्रसंग में भी गुप्तजी ने उर्मिला की अंतर्व्यथा को अभिव्यक्त कराने के स्थान पर अनुभाव – चित्रण के माध्यम से व्यंजित किया है, जो कहीं अधिक मार्मिक एक स्वाभाविक है।
अष्टम सर्ग के अंत तक यह निश्चित हो जाता है कि राम अयोध्या नहीं लौटेंगे अतः उसके प्राणेश्वर का भी चौदह वर्ष से पूर्व लौटना असंभव है। उसकी हृदय-शिला पर विरह-व्यथा की अवधि रूपी गुरुशिला ढह पड़ती है, जिसे वह अपने अश्रु – जल से तिल-तिल कर काटने लगती है :—
अवधि-शिला का उर पर था गुरु भार,
तिल-तिल काट रही थी दृग-जल-धार।
यहाँ से उर्मिला वस्तुतः प्रोषित-पतिका बन जाती है; उसका वह आशातन्तु टूट जाता है कि कदाचित् उसके ज्येष्ठ, अग्रजा और पति, अयोध्यावासियों और भरत का आग्रह स्वीकार करके अयोध्या लौट आएँ। विरहिणी उर्मिला की दशा के चित्रण में यद्यपि कवि ने उसके विरह-ताप का परम्परागत प्रणाली के अनुरूप ऊहात्मक वर्णन भी किया है
ठहर अरी, इस हृदय में लगी विरह की आग,
तालवृन्त से और भी धधक उठेगी जाग।
किन्तु उसके विरह-तार के अधिकांश चित्र मर्यादित और संवेदनात्मक हैं। उदाहरण के लिए बिहारी के इस दोहे की तुलना में जिसमें माघ के महीने में विरहिणी के ताप के कारण रात में भी लूएँ चलती प्रदर्शित की गई हैं।
सुनत पथिक मुँह माह निसि लूएँ चलन उहि गाँव ।
बिन बूझे बिन ही कहे, जियत बिचारी बाम ॥
गुप्तजी की निम्नांकित उक्ति अवलोकनीय है, जिसमें अवधि के शाप को कल्पना करके विरह-ताप का ऊहात्मक वर्णन किया गया है
जा, मलयानिल, लौट जा, यहाँ अवधि का शाप।
लगे न लू होकर कहीं, तू अपने को आप ॥
उनकी निम्नांकित उक्ति तो विरहिणी उर्मिला की कातर दशा का बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत करती है
मानस मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप।
जलती-सी उस विरह में बनी आरती आप।
स्व- हृदय मन्दिर में पति की प्रतिमा प्रतिस्थापित कर के विरह-विधुर उर्मिला के आरती – सी बन जाने पर भी यह समस्या है कि विरह की दीर्घावधि कैसे कटे ? उसे खान-पान कुछ भी नहीं सुहाता, फिर भी पति- मिलन की घड़ी तक वह अपनी जीवन यात्रा को चलाने के लिए मन मसोसकर सभी कुछ करने को विवश है-
पिऊँ ला, खाऊँ ला, सखि पहन लूँ ला, सब करूँ,
जिऊँ मैं जैसे हो, यह अवधि का अर्णव तरूँ।
कहे जो मानूँ सो, किस विधि बता, धीरज धरूँ?
अरी कैसे भी तो पकड़ प्रिय के वे पद मरूँ ।
कभी वह सखी को यह आदेश देती है कि जितनी भी प्रोषित-पतिकाएँ हो उन्हें बुला ला, जिससे समदुःखिनियों के पारस्परिक वार्तालाप से उसकी व्यथा कुछ कम हो सके
प्रोषित-पतिकाएँ हों, जितनी भी
सखि, उन्हें निमंत्रण दे आ।
समदु:खिनी मिलें, तो दुःख बँटे,
जा प्रणय- पुरस्सर ले आ।
वह उद्विग्न होकर पूछ उठती है
इतनी बड़ी पुरी में क्या ऐसी दुःखिनी नहीं कोई?
जिसकी सखी बनूँ मैं, जो मुझ सी हो हँसी-रोई?
गुप्तजी ने परम्परागत शैली में षट्-ऋतु – वर्णन के रूप में विरहिणी उर्मिला पर पड़ने वाले प्रभाव का तो अंकन किया है, किन्तु उसमें यह नवीनता है कि उर्मिला में रहित-चिंतन की बलवती इच्छा प्रदर्शित की गई है, तथा उर्मिला परम्परागत नायिकाओं के समान विभिन्न प्राकृतिक पदार्थो को उपालम्भ नहीं देती। डॉ० नगेन्द्र ने उचित ही कहा है
“उर्मिला तपोयोगी ग्रीष्म का स्वागत करती है इसलिए कि वह खेतों का सार है। उसमें परहित-चिन्तन की भावना सर्वत्र मिलेगी। वियोग उसे आत्मार्थी न बनाकर परमार्थी बना देता है। पट्-ऋतु की परम्परा प्राचीन है, परन्तु साकेत में उसका प्रयोग नवीन ढंग से हुआ है। कवि ने उसका उपयोग उद्दीपन की दृष्टि से तो अवश्य किया है, परन्तु यह उद्दीपन शारीरिक ताप का पता लगाने के लिए, अथवा उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति का चमत्कार दिखाने को नहीं है। उर्मिला को तो अपना समय काटना था, अतः कवि ने परिवर्तित ऋतुओं की प्रतिक्रिया स्वरूप जो भावनाएँ विरहिणी के हृदय में जाग्रत हुई अथवा ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित दिनचर्या का उसके मन पर जो प्रभाव पड़ा, वह ही सर्वत्र व्यक्त किया है। “
ग्रीष्म, वर्षा आदि ऋतुओं के वर्णन में कहीं कवि ने हेतुत्प्रेक्षा का व्यंग्य रूप में प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए उर्मिला सोचती है कि ग्रीष्म का ताप इन्द्रियजयी लक्ष्मण की तपस्या के कारण है, अतः वह कातर स्वर में निवेदन कर उठती है
मन को यों मत जीतो।
बैठी है यह यहाँ मानिनी सुध लो इसकी भी तो।
वर्षा ऋतु में छाए बादलों को देखकर उसकी संयोगकालीन सुखद दाम्पत्य जीवन की स्मृतियाँ संजीव हो उठती हैं
है है कर लिपट गये थे यहीं प्राणेश्वर,
बाहर से संकुचित भीतर से फूले से।
इन स्मृतियों से उर्मिला की अंतर्व्यथा तीव्र तो हो उठती है, किन्तु वह वर्षा ऋतु या मेघ घटाओं की निन्दा न करके, परहित कामना से अनुप्राणित यह भाव व्यक्त करती है
बरस घटा, बरसूं मैं संग,
सरसें अवनी के सब अंग।
मिले मुझे भी कभी उमंग
सब के साथ सयानी ।
उर्मिला द्वारा मकड़ी को भी अपने समान ही जालगत मानते हुए यह कल्पना करना कि वह मुझसे प्रेमवेदना व्यक्त करने आयी है, विरहिणी उर्मिला के हृदय के व्यापक प्रसार की अभिद्योतक होने के साथ-साथ एक सर्वथा-नूतन काव्य-प्रयोग है
सखि, न हटा मकड़ी को, आई है वह सहानुभूति-वशा,
जालगता मैं भी तो, हम दोनों की यहाँ समान दशा ।
उर्मिला के विरह-वर्णन में साकेतकार ने शास्त्रोक्त दश काम- दशाओं का तो अंकन किया है, किन्तु उसमें भी नूतनता का पर्याप्त अभिनिवेश किया है। दस काम-दशाओं के नाम है-अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, जड़ता, व्याधि और मरण या मूर्च्छा। ये विरह-दशाएँ पूर्वानुराग की बताई गई हैं, जबकि इनका प्रयास विप्रलंभ के संदर्भ में भी वर्णन कर दिया जाता है।
अर्थात् विप्रलंभ शृंगार की असौष्ठव, संताप, पांडुता, कृशता, अरुचि, अधृति अनालम्ब, तन्मयता तथा मूर्च्छा ये दश मरण दशाएँ होती है। इनमें अंतिम उन्माद दो विरह-दशाओं का पूर्वानुराग और विप्रलंभ दोनों में ही उल्लेख मिलता है, जिससे शास्त्रोक्त अठारह विरह-दशाएँ सिद्ध होती हैं। साकेत विरह-वर्णन करते हुए गुप्तजी ने उसकी प्रायः इन सभी विरह-दशाओं का अंकन किया है, जैसाकि आगे के विवेचन से स्पष्ट है
1. अभिलाषा –
प्रियतम से मिलन की उत्कट कामना अभिलाषा कहलाती है। उर्मिला की निम्नांकित अभिलाषा में कितना भोलापन और निरीहता है
यही आता है इस मन में,
छोड़ धाम – धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में !
बीच-बीच में उन्हें देख लूँ मैं झुरमट की ओट,
जब वे निकल जायें तब लौटूं उसी धूल में लोट।
2. चिन्ता –
नायक के मंगल-अमंगल से सम्बन्धित नायिका की दुश्चिन्ताएँ संदर्भगत विरह-दशा के अंतर्गत परिगणित की जाती है। गुप्तजी की उर्मिला के प्रियतम लक्ष्मण उन राम के संरक्षण में हैं, जिनके साकेत में उर्मिला साकेत में उर्मिला
भृकुटि – विलास सृष्टि लय होई ।
अतः वह उनके अमंगल के विषय में विशेष चिन्तित तो नहीं है। लक्ष्मण के शक्ति लगने का दुःसंवाद सुनकर भी उसकी प्रतिक्रिया यही है – साकेत में उर्मिला साकेत में उर्मिला
जीते हैं वह वहाँ, यहाँ यदि मैं जीती हूँ।
किन्तु उर्मिला इस दृष्टि से अवश्य चिन्तित है कि मेरी स्मृति के कारण, मेरे प्राणेश्वर की साधना भंग न होने पाए
मुझे भूलकर विभु-वन में विचरे मेरे नाथ ! मुझे न भूले उनका ध्यान । साकेत में उर्मिला साकेत में उर्मिला
3. स्मृति –
विगत मिलन सम्बन्धी सरस – सुखद घटनाओं की स्मृति के कारण विरहिणी का उद्विग्न हो उठना विरह की स्मरण-दशा कहलाती है। वर्षा की फुहारों से उर्मिला को अति सरस दाम्पत्य जीवन की निम्नांकित घटना स्मृत हो उठती है
मैं निज अलिन्द मे खड़ी थी सखि एक रात,
रिमझिम बूँदें पड़ती थीं घटा छाई थी।
गमक रहा था केतकी का गंध चारों ओर,
किल्ली झनकार यही मेरे मन भाई थी।
करने लगी मैं अनुकरण स्व:नूपुरों से,
चंचला थी चमकी, घनाली घहराई थी।
चौंक देखा मैंने, चुप कोने में खड़े थे प्रिय,
माई! मुख लज्जा, उसी छाती में छिपाई थी।
4. गुणकथन –
वियोग-काल में प्रियतम के गुणों का स्मरण करके अनुतापित होना विरह की गुण कथन-दशा कहलाती है
निरख सखी, ये खंजन आए !
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये।
घर के ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुस्काए,
फूल उठे हैं, कमल, अधर से ये बंधूक सुहाए। ”
5. उद्वेग –
उर्मिला शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार के उद्वेगों से प्रताड़ित है। उद्वेग में सुनकर वस्तुएँ दुःखमयी प्रतीत होने लगती हैं। कामोद्दीपक बसंत ऋतु, और अनंग-शर पति- सान्निध्य में तो सुखद-काम्य थे, किन्तु विछोह में वह अनंग से कातर निवेदन कर उठती है साकेत में उर्मिला साकेत में उर्मिला
मुझे फूल मत मारो !
अबला, बाला, वियोगिनी कुछ तो दया विचारो
6. प्रलाप –
वियोग-व्यथा के अत्यधिक बढ़ जाने पर नायिका का अर्धविस्मृति की दशा में अट-शंट अर्थात् असम्बद्ध निरर्थक बातें कहने लगना विरह की प्रलाप-दशा कहलाती है। उर्मिला द्वारा मधुमक्खी को समझाना उसका इसी प्रकार का कथन है-
अरी गूँजती मधुमक्खी !
किसके लिए बता तूने वह रस की मटकी रक्खी?
किसका संचय दैत्र सहेगा?
काल घात में लगा रहेगा।
व्याध बात भी नहीं कहेगा, लूटेगा घर लक्खी।
7. उन्माद –
इन दशा में नायिका की अर्ध- विक्षिप्त-सी उस दशा का चित्रण किया जाता है जिसमें वह जड़-चेतन का भेद भूल जाती है-कभी हँसने तो कभी रोने लगती है। स्वः पति को राम और सीता के बिना अकेला ही लौटा जानकर उर्मिला जो इन्हें धिक्कारने लगती है, वह उसकी उन्मादावस्था से ही सम्बन्धित है साकेत में उर्मिला साकेत में उर्मिला
वह नहीं फिरे ? क्या तुम्ही फिरे ?
हम गिरे अहो ! तो गिरे गिरे ।
समय है अभी, हा ! फिरो, फिरो।
तुम न यों यश: स्वर्ग में गिरो।
तुम मिली मुझे धर्म छोड़के,
फिर मरूँ न क्यों मुंड फोड़के।
8. जड़ता-
जड़ता की दशा में विरहिणी को अपने जीवित रहने का संघना उसकी विरह बया से ही ज्ञात होती है। वह अपने प्रियतम के वियोग में बार-बार चौंककर अपने जीवित रहने का अहसास कराती है। उसे खुद पता नहीं है कि वह किस अवस्था में जी रही है।
क्या क्षण क्षण में चौंक रही मै,
सुनती तुझसे आज वही मैं।
तो सखि क्या जीवन न जनाऊँ,
इस क्षणदा को विफल बनाऊँ।
9. व्याधि –
निम्नांकित पंक्तियाँ उर्मिला की व्याधि-दशा से सम्बन्धित हैं
स्वजनि, पागल भी यदि हो सकूँ,
कुशल तो अपनापन खो सकूँ।
शपथ है उपचार न कीजियो,
अवधि की सुध ही तुम लीजियो।
सखि, न मृत्यु न आधि न व्याधि ही,
समझियो तुम स्वप्न-समाधि ही।
10. मरण या मूर्च्छा-
विरहिणी नायिका को मूर्च्छित होते तथा मरण की इच्छा व्यक्त करते चित्रित करना संदर्भगत विरह-दशा के अंतर्गत परिगणित किया जाता है। गुप्तजी ने इन दोनों ही तथ्यों की योजना की है
इधर उर्मिला मुग्ध निरी,
कहकर ‘हाय’ धड़ाम गिरी।
मुँह दिखायगी क्या उन्हें अरी !
मर ससंशया, क्यों न तू मरी?
आर्य, शक्तिमयी, संभाल तू।
रख थाती, यह अश्रु पाल तू।
यदि मैं न रहूँ, नहीं सही,
प्रिय की भेंट बने यहाँ यही
हाँ उर्मिला की भूल मनोभावना मरण सम्बन्धी न होकर यह ही है
डूब बची लक्ष्मी पानी में, सती आग में पैठ।
जिये उर्मिला करे प्रतीक्षा, सहे सभी पर बैठ ||
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यहीं कहा जा सकता है कि उर्मिला के विरह-वर्णन में जहाँ परम्परागत प्रणाली का आश्रय लेते हुए, षट्ऋतु वर्णन, दश कामदशाओं के अंकन आदि तथ्यों की नियोजना की गई है, वहाँ उसके विरह में ईर्ष्या का अणुमात्र भी स्पर्श नहीं है, वह दूसरों को सुखी देखकर (प्रकृति को आह्लादमयी देखकर) दु:ख नहीं मानती।
सूर आदि कवियों की विरहणी गोपियों की भाँति वह उपलब्ध और ईर्ष्या मिश्रित उक्तियाँ नहीं कहती, अपितु उसके पास तो सभी के लिए सहानुभूति का अक्षय भंडार है। डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में—“उर्मिला की विरह में मानवता की पुकार है-वह अधिक स्वाभाविक है साथ ही गरिमा (sublinity) की न्यूनता नहीं है, वह विश्वव्यापी हैं
लेकर मानों विश्व – विरह उस अंतःपुर में,
समा रहे थे एक दूसरे के वे उर में।
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