सूबेदारनी का चरित्र चित्रण | उसने कहा था | Chandradhar Sharma Guleri |
सूबेदारनी का चरित्र चित्रण :— सूबेदारनी कहानी में सिर्फ दो बार आती हैं। एक बार कहानी के आरंभ में, दूसरी बार कहानी के अंतिम भाग में, वह भी लहनासिंह की स्मृतियों में। लेकिन कहानी में सूबेदारनी का चरित्र !
” लहनासिंह के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण चरित्र है। उस से पहली मुलाकात आठ वर्ष की बालिका के रूप में होती है जो अपने ही हम उम्र लड़के के मज़ाक से लज्जाती है। लेकिन उसके व्यक्तित्व में पहला परिवर्तन ही हमें तब नजर आ जाता है। लहनासिंह के इस प्रश्न के जवाब में कि ” तेरी कुड़माई हो गई।”
जब वह यह कहती है कि “हाँ हो गई, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू’ तो उसका इतने विश्वास के साथ जवाब देना यह बताता है कि जैसे सगाई के साथ वह एकाएक बहुत बड़ी हो गई है इतनी बड़ी कि उसमें इतना विश्वास आ गया है कि वह दृढ़तापूर्वक जवाब दे सके कि “हाँ, हो गई। जाहिर है विश्वास की यह अभिव्यक्ति सूबेदारनी के व्यक्तित्व का नया पहलू है।
सूबेदारनी का चरित्र चित्रण
फिर भी, अभी वह यह समझने में असमर्थ है कि सगाई का अर्थ क्या है। इसीलिए, शायद वह अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाती/या शायद लड़की होने के कारण । इसलिए ऐसा नहीं लगता कि “सगाई” का उस पर भी वैसा “आघात” लगा है जैसा लहनासिंह पर लगा था। फिर आठ साल की उम्र होती ही क्या है?
किंतु लहनासिंह के साथ उसके संबंध कितने गहरे थे, इसका अहसास भी हमें कहानी में सूबेदारनी के माध्यम से ही होता है। आठ साल की नादान सी उम्र में जिस लड़के से उसका मज़ाक का संबंध बना था, उसे वह पच्चीस साल बाद भी अपने मन-मस्तिष्क से नहीं निकाल पाई। जबकि इस दौरान वह किसी और की पत्नी बन चुकी थी, उसका अपना घर परिवार था। जवान बेटा था। और जैसा कि कहानी से स्पष्ट होता है, वह अपने घर-परिवार में सुखी और प्रसन्न थी।
लेकिन पच्चीस साल बाद भी जब लहनासिंह उसके सामने आता है तो वह उसे तत्काल पहचान जाती है। न केवल पहचान जाती है, अपने बचपन के उन संबंधों के बल पर उसे विश्वास है कि अगर वह लहनासिंह को कुछ करने को कहेगी, तो वह कभी इनकार नहीं करेगा। निश्चय ही यह विश्वास उसके अंदर लहनासिंह के व्यक्तित्व से नहीं पैदा हुआ था, बल्कि स्वयं उसके मन में लहनासिंह के प्रति जो भावना थी, उससे पैदा हुआ था।
लहनासिंह के प्रति उसके अंतर्मन में बसी लगाव की भावना का इस तरह पच्चीस साल बाद भी जिंदा रहना, सूबेदारनी के व्यक्तित्व को एक नया निखार देता है। और इस अर्थ में वह परंपरागत भारतीय नारी से भिन्न नजर आती है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि सूबेदारनी अपने घर-परिवार के दायित्व से विमुख है। बल्कि इसके ठीक विपरीत लहनासिंह से उसकी पच्चीस साल बाद हुई मुलाकात उसके अपने घर-परिवार के प्रति गहरे दायित्व बोध को भी व्यक्त करता है। वह लहनासिंह से प्रार्थना करती है कि जिस तरह बचपन में उसने तांगे से उसे बचाया था।
उसी तरह अब उसके पति और पुत्र के प्राणों की भी रक्षा करे। इस तरह उसमें अपने पति और पुत्र के प्रति प्रेम और कर्त्तव्य की भावना भी है। हम कह सकते हैं कि सूबेदारनी के लिए जितना सत्य अपने पति और पुत्र के प्रति प्यार और कर्तव्य है, उतना ही सत्य उसके लिए वे स्मृतियाँ भी हैं, जो लहनासिंह के प्रति उसके लगाव को व्यक्त करती है। उसके चरित्र के ये दो पहलू हैं और इनसे ही उसका चरित्र महत्त्वपूर्ण बनता है।
‘उसने कहा था’ कहानी के इन दो प्रमुख पात्रों का यह चारित्रिक विश्लेषण स्पष्ट कर देता है कि लहनासिंह ही कहानी का केंद्रीय चरित्र है जिसके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं सूबेदारनी। इस तरह सूबेदारनी भी कहानी में महत्त्वपूर्ण चरित्र बनकर उभरती है।
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