हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना का उल्लेख कीजिए |

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हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना

हिंदी साहित्य पर मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव की पहली अभिव्यक्ति राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दौरान तब हुई जब किसानों, मजदूरों और विद्यार्थियों ने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करनी शुरू की । यह बीसवीं सदी का दूसरा दशक था ।

इसी दौरान रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति का प्रभाव सारी दुनिया पर दिखायी दिया और हिंदी भी इससे अछूती नहीं रही। प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ जो बोल्शेविक क्रांति के कुछ समय बाद ही लिखा गया था, उसमें किसानों के बीच बातचीत में इस क्रांति का उल्लेख होता है। 1930 के आसपास न केवल प्रेमचंद बल्कि अन्य लेखकों के साहित्य में भी प्रगतिशील रुझान दिखने लगे थे|

हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना

जिसने अंततः एक व्यापक साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन का रूप ले लिया था और जिसे प्रगतिशील आंदोलन के नाम से जाना गया । आज़ादी के बाद यह आंदोलन अंदरुनी और बाहरी कारणों से उतना मजबूत नहीं रहा और आधुनिकतावाद जैसी प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं जो शीतयुद्ध की विचारधारा से प्रेरित थी।

लेकिन मार्क्सवाद से प्रेरित प्रगतिवादी प्रवृत्ति साहित्य की एक प्रमुख धारा के रूप में बनी रही। 1970 के दशक में जब जन असंतोष बढ़ने लगा तो देश में एक बार फिर से जनवादी आंदोलन का उभार दिखायी देने लगा और जिसका प्रभाव साहित्य में भी दिखायी देने लगा।

वैचारिक आधार

प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन 1936 ई. में लखनऊ में संपन्न हुआ था और जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी। अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रेमचंद ने साहित्य की जिस नयी कसौटी की चर्चा की थी, उसने स्पष्ट कर दिया था कि साहित्य की मध्ययुगीन सोच को अब पूरी तरह तिलांजलि दी जा चुकी है।

प्रेमचंद ने कहा था, “हमारी कसौटी पर केवल वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है” ।

प्रेमचंद का यह कथन कई दृष्टियों से ऐतिहासिक है क्योंकि यहाँ साहित्य को जीवन की सच्चाइयों और संघर्षों से जोड़कर देखा गया है। यहाँ साहित्य को मनबहलाव का साधन नहीं बल्कि जीवन में संघर्ष की प्रेरणा देने वाला बताया गया है। यहाँ यह रेखांकित करने की जरूरत है कि हिंदी का मार्क्सवादी साहित्य चिंतन विश्व के मार्क्सवादी साहित्य चिंतन का ही हिस्सा है

लेकिन साथ ही हिंदी की अपनी विशिष्ट परंपरा के अनुरूप उसमें कुछ मौलिक उद्भावनाएँ भी हैं। हिंदी में भी यथार्थवाद पर बल दिया गया है और हिंदी के आलोचकों और लेखकों ने हिंदी साहित्य परंपरा पर यथार्थवादी दृष्टि को लागू भी किया है। शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, गजानन माधव मुक्तिबोध, नामवर सिंह आदि ने साहित्य को अपने युगीन संदर्भों में रखकर देखा और परखा है।

मसलन, भक्ति काव्य को एक धार्मिक काव्य के रूप में न देखकर उसे तत्कालीन सामाजिक जागरण के संदर्भ में रखकर देखा है और यही वजह है कि सगुण कवियों की तुलना में कबीर, रैदास आदि निर्गुण कवियों का महत्व और प्रासंगिकता उभर कर आई है। इसी तरह छायावाद को एक रोमांटिक काव्य परंपरा के रूप में न देखकर राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के संदर्भ में रखकर उसके महत्व को रेखांकित किया है।

मुक्तिबोध ने साहित्य के कई पक्षों पर मौलिक ढंग से विचार किया है। काव्य की रचना प्रक्रिया पर विचार करते हुए उन्होंने काव्य को आत्मिक प्रयास मानते हुए भी उसे केवल व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं वरन सांस्कृतिक प्रक्रिया माना है क्योंकि कविता में जो सांस्कृतिक मूल्य परिलक्षित होते हैं

वे व्यक्ति की अपनी देन नहीं, समाज की या वर्ग की देन है। मुक्तिबोध ने रचना-प्रक्रिया को तीन क्षण के सिद्धांत द्वारा व्याख्यायित किया है। उनके अनुसार, “कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते दुःखते हुए मूलों से पृथक् हो जाना, और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना, मानो वह फैंटेसी आँखों के सामने ही खड़ी हो ।

तीसरा और अंतिम क्षण है, इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता’। रचना प्रक्रिया की मुक्तिबोध की यह परिभाषा जहाँ एक ओर मार्क्सवाद की द्वंद्वात्मकता से अनुप्रेरित है, वहीं वह स्वयं मार्क्सवादी परंपरा में काफी मौलिक है।

प्रगतिवादी और जनवादी समीक्षा

प्रगतिशील आंदोलन के दौरान रचनात्मक साहित्य ही नहीं मार्क्सवादी आलोचना का भी विकास हुआ। इनमें डॉ रामविलास शर्मा, शिवदानसिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त, रांगेय राघव, अमृत राय, मुक्तिबोध, चंद्रबली सिंह, नामवर सिंह, शिवकुमार मिश्र आदि प्रमुख आलोचक हैं जिन्होंने मार्क्सवादी दृष्टि के अनुसार हिंदी आलोचना का विकास किया और समृद्ध भी किया।

हालांकि मार्क्सवाद को लागू करने के मामले में इनमें मतभेद भी दिखायी देते हैं। रामविलास शर्मा सहित प्रगतिशील आलोचकों का एक समूह रामचंद्र शुक्ल की परंपरा में तुलसीदास को लोक परंपरा का प्रगतिशील कवि मानते हैं जबकि मुक्तिबोध सहित अन्य आलोचक उन्हें वर्ण व्यवस्था का समर्थक ब्राह्मणवादी कवि मानते हैं

कबीर, रैदास आदि निर्गुण कवियों को अधिक प्रगतिशील और प्रासंगिक मानते हैं। प्रगतिशील आलोचकों ने मुख्य रूप से आधुनिक साहित्य के विभिन्न युगों और प्रवृत्तियों का विशद मूल्यांकन किया साथ ही कई लेखकों का समग्रता से मूल्यांकन किया। साथ ही कुछ ऐसी कृतियों का भी विशद विवेचन किया जिनका ऐतिहासिक महत्व है।

इस दृष्टि से रामविलास जी ने भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि का गहन विवेचन किया है, तो डॉ. नामवर सिंह ने छायावाद, नयी कविता, नयी कहानी आदि पर विस्तृत विचार किया है। रचनात्मक साहित्य के अलावा हिंदी की आलोचना परंपरा का मूल्यांकन भी हिंदी के मार्क्सवादी आलोचकों ने किया है। मुक्तिबोध ने जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ पर एक स्वतंत्र पुस्तक लिखी है।

डॉ. रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध और नामवर सिंह ने साहित्य के कई सैद्धांतिक पहलुओं पर भी विचार किया है। रामविलास जी की ‘आस्था और सौंदर्य’ नामक पुस्तक में कई ऐसे महत्वपूर्ण लेख हैं जिनमें साहित्यिक परंपरा और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया गया है।

इसी परंपरा में नामवर सिंह ने ‘इतिहास और आलोचना’ पुस्तक में व्यापकता बनाम गहराई, इतिहास की नयी दृष्टि आदि पर विचार किया है। मुक्तिबोध ने रचना-प्रक्रिया, वस्तु और रूप आदि पर गहन चिंतन किया है। इस दृष्टि से उनकी पुस्तक ‘एक साहित्यिक की डायरी’ उल्लेखनीय है ।

प्रगतिशील आलोचना की यह परंपरा आगे भी जारी रही। सातवें दशक में जब एकबार फिर साहित्य में प्रगतिशीलता और जनवादी प्रवृत्तियों का उभार आया तो उसका प्रभाव आलोचना पर भी दिखायी देना स्वाभाविक था । खास बात यह थी कि इस दौर में आलोचना के केंद्र में रामविलास शर्मा की बजाय मुक्तिबोध आ गये थे।

रचनात्मक लेखन में भी सातवें दशक में उभरी नयी पीढ़ी ने अपनी परंपरा अज्ञेय से जोड़ने की बजाए मुक्तिबोध से जोड़ी। इस दौर में 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था और संविधान प्रदत्त जनता के जनवादी अधिकारों पर रोक लगा दी थी।

इसलिए उस समय जनवाद की रक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया था। यही वजह है कि इस दौर के साहित्यिक आंदोलन को जनवादी आंदोलन के नाम से जाना गया और तत्कालीन आलोचना को जनवादी आलोचना के नाम से। इसने अपनी परंपरा प्रगतिवाद से जोड़ी और इस आंदोलन का भी सैद्धांतिक आधार मार्क्सवाद ही था ।

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