हित भूलि न आवसि है सुधि क्यौं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
हित भूलि न आवसि है सुधि क्यौं सु यों हूँ हमैं सुधि कीजत है।
चित भूल तौ भूलत नाहिं सुजान जु चंचल ज्यौं कछु धीजत है।
दृढ़ आस की पासनि कस तें फेरि के घेरि उसासनि लीजत है।
अब देखिए कौ लौं घिरै घनआनन्द आव को दाव सो दीजत है।।
हित भूलि न आवसि है
प्रसंग :— यह पद्य कविवर घनानन्द विरचित ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। प्रेमीजन आजीवन मिलन की आशा पालते रहते हैं। प्रिय के निष्ठुर होने पर भी सच्चे प्रेमी उसे कभी भुला नहीं पाते। प्रेमी मन की इन्हीं स्थितियों का व्याख्येय पद्य में चित्रण करते हुए कवि घनानन्द कह रहे हैं…………
व्याख्या :— हे प्रिय! तुम्हें कभी भूलकर भी हमारी याद क्यों नहीं आती? क्यों नहीं तुम भी उसी तरह हमारी याद करते कि जैसे हम हर पल तुम्हारी याद करते रहते हैं, बल्कि उस याद के सहारे ही जीवित हैं। हे सुजान, मेरा चित्त चाह और प्रयत्न करके भी तुम्हें कभी भूल नहीं पाता। हाँ, ऐसा अवश्य लगता है जैसे यह चंचल मन अब तुम्हारी याद में कुछ-कुछ स्थिर होता जा रहा है।
तेरे मिलन की आशा रूपी पाशों ( फन्दों) को अधिकण्ठ से लगाकर यह मन हमेशा आहें भरता रहता है। जो भी हो, हमने तो अपनी आयु को दाव पर लगा दिया है। अब देखना यह है कि हमारे जीवन में आनन्द रूपी बादल कब तक फिर कर आते और प्रेम की वर्षा करते हैं। अर्थात् जब तक प्राण हैं, तुम्हारे मिलन सुख की आशा तब तक कभी भी छूट नहीं सकती। अब तो तुम्हारी याद में ही यह स्थिर होकर रह गया है- बस !
विशेष
1. विरह – विदग्ध प्रेमी-मन की आशा-अभिलाषा का वर्णन बड़ा ही मार्मिक एवं स्वाभाविक बन पड़ा है।
2. तीसरी पंक्ति में कवि की कल्पना विशेष प्रभावी एवं उल्लेख्य है।
3. पद्य में रूपक, दीपक, अनुप्रास, प्रश्न एवं अनन्वय अलंकार है ।
4. भाषा माधुर्यगुण- प्रधान, संगीतात्मक एवं प्रवाहमयी है।
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