हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनआनंद |
हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समानै।
नीर सनेही को लाय कलंक निरास है कायर त्यागत डानै ।
प्रीति की रीति सुक्यौं समझे जड़, मीत के पानि परै को प्रमाने ।
या मन की जु दसा घनआनन्द जीव की जीवनि जान ही जानै॥
हीन भएँ जल मीन
प्रसंग :— यह पद्य कवि घनानन्द के काव्य ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। निष्ठुर प्रियतम की कठोरता से पीड़ित नायिका अपनी मनोस्थिति का, व्यथा की कथा का चित्रण अपनी सखी से कर रही हैं। उस व्यथा को स्वर, स्वरूप और आकार देते हुए इस पद्य में प्रेमी कवि घनानन्द कह रहे हैं
व्याख्या :— हे सखि जिस प्रकार पानी के कम होते जाने पर मछली की व्याकुलता निरंतर बढ़ती ही जाती है, उसी तरह प्रिय के दूर होने पर मेरी ये आँखें भी अत्यधिक व्याकुल होकर तड़पने लगती हैं। प्रेमी पानी से प्रेम लगाने के कारण निराशा के कलंक से कलंकित होकर जैसे बेचारी मछलियाँ प्राण त्याग देती हैं, उसी प्रकार प्रियतम की निष्ठुरता से पीड़ित और कलंकित होकर मेरे यह प्राण मेरा भी साथ छोड़ देना चाहते है।
किसी जड़ स्वभाव वाले प्रिय के हाथ चढ़ने का ही यह प्रमाण होता है कि वह प्रीत की रीति को नहीं समझता। अर्थात जड़ या निष्ठुर स्वभाव वाला प्रिय प्रेम की रीति का निर्वाह न कर निष्ठुरता दिखाया करता हैं। उस निष्ठुरता का प्रभाव कितना भयावह हो सकता है, वह इस बात को कतई नहीं समझता ! कविवर घनानन्द कहते हैं कि मेरे इस विरही मन की जो दशा है, उसे तो मेरे प्राणों का प्राण सुजान ही जानता है, अन्य कोई नहीं। भाव यह है कि सच्चा प्रेमी ही वास्तविक प्रेमी की दशा को समझ पाता है।
विशेष
1. प्रेम विरह की मार्मिकता को उजागर करने के लिए कवि ने पानी मछली का परम्परागत उदाहरण प्रस्तुत किया है।
2. ‘मीत के पानि परै’ मुहावरे का प्रयोग अत्यन्त सजीव बन पड़ा हैं
3. पद्य में उपमा, अनुप्रास, यमक और विशेषोक्ति अलंकार हैं।
4. पद्य की भाषा सहज स्वाभाविक आदि व्यक्ति में रूझान और माधुर्यगुण प्रधान, मुहावरेदार एवं चित्रात्मक है।
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