घनानंद की प्रेम-साधना | घनानंद |
घनानंद की प्रेम-साधना :— घनानंद के काव्य का एक मात्र वर्ण्य विषय है। उनकी दो प्रकार की रचनाएँ प्राप्त हैंसुजान को आलम्बन बनाकर व्यक्त हुए प्रेम की और राधा एवं कृष्ण को समर्पित प्रेम अर्थात् भक्ति की। ये दोनों प्रकार मूलतः प्रेम से ही संबंधित हैं।
घनानंद की प्रेम-साधना
भौतिक प्रेम को कवि दिव्यप्रेम का ही लघुरूप मानता है। जिस प्रेम समुद्र में राधा और कृष्ण विवश होकर स्नान केलि करते हैं उसकी तरल तरंग से छिटक कर कोई बिन्दु भू लोक में आ गयी है। वही प्रेम है। सुजान के वर्णनों को देखकर पाठक को यही अनुमान होता है कि घनानंद पहले भौतिक, वासना जन्य प्रेम में मग्न थे उन्होंने सुजान के छलकते यौवन का आसक्ति और अभिलाष के साथ पान किया था।
बाद में वह प्रेम भक्ति में परिणत होकर विशेषतः अनुभूति प्रधान रहस्यात्मक और ईश्वर समर्पित हो गया। अनुभूति की सघनता और सूक्ष्मता दोनों स्थितियों में बनी रही है। प्रेम भाव मध्यकाल की हिन्दी कविता के लिए लोक प्रसिद्ध भी रहा है।
घनानंद ने प्रेम शृंगार के दोनों पक्षों का वर्णन किया है संयोग और वियोग का। पर दोनों में उनकी अपनी विशेषताएँ हैं। मात्रा में संयोग के पद्य कम हैं और मार्मिकता जितनी वियोग के वर्णन में व्यक्त हुई है उतनी संयोग में नहीं। घनानंद वियोग के कोकिल कहे जाते हैं।
संयोग में उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वह अभिलाष प्रधान बना रहता है। प्रेमी अपनी प्रेयसी को प्राप्त करके भी अतृप्त एवं साभिलाष बना रहता है। इसलिए प्रेम की ऊष्मा कभी शान्त नहीं होती।
बिहारी संयोग काल में प्रिय और प्रेमी की चेष्टाओं का वर्णन करते हैं। घनानंद उसके विपरीत आलंबन के प्रभाव को व्यक्त करते हैं। प्रेमी इस प्रभाव में आत्म विभोर हो जाता है। न पूर्णतः प्रिय को देख पाता है और न अपनी मनोगत बात कह पाता है। हर्ष के आँसू दर्शन में बाधा डालते हैं। वियोग पीड़ित तो प्रेमी है पर संयोग में सबसे आगे आँसू आ जाते हैं मानों ये भी वियोगी हैं। अतृप्तिजन्य अभिलाष चेतना को अधीर बनाये रहती है। इस प्रकार संयोग में वियोग बना रहता है।
महारस भीर पर लोचन अधीर तरै
ओछी ओक धरै प्यास पीर सरसई है।
कैसे घन आनंद सुजान प्यारी छवि कहीं,
दीठि तौ चकित औ थकित मति भई है।
संयोग के महारस की भीड़ लग जाती है। नेत्र उसमें तैरने लगते हैं इस रस का पान करने के लिए उनके पास छोटी सी ओक (हाथों का संपुट) है इसलिए प्यास और बढ़ जाती है, फलतः प्रेमी जैसा वियोग काल में अशान्त रहता है वैसा ही संयोग काल में भी बना रहता है।
बिछुड़े मिलें प्रीतम सान्ति न मानें”
कवि को अपनी अनुभूति पर स्वयम आश्चर्य है”
यह कैसौ संजोग न बूझि परै जो,
वियोग न क्यों हू विछोहत है।
रीति परंपरा के कवियों का संयोग बाह्य अतएव स्थूल रहता है। घनानंद इसके विपरीत वहाँ भी आन्तरिक और अनुभूति प्रधान रहते हैं। इसीलिए उन्हें जोग-‘वियोग की रीति में कोविद’ कहा गया है।
प्रेम का दूसरा पक्ष वियोग है। घनानंद के काव्य में इसी की प्रधानता है। जितना विस्तृत और मार्मिक वर्णन वियोग पक्ष का हुआ है उतना संयोग का नहीं। इसी के लिए घनानंद की प्रसिद्धि है। कवि की धारणा है कि जब तक मर्म आहत नहीं होता तब तक व्यक्ति वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं पहचान पाता।
इनका वियोग वर्णन काव्य शास्त्र की प्राचीन रूढ़ियों का अनुसरण नहीं करता। यहाँ पूर्व राग, मान प्रवास आदि के भेद-अभेद स्पष्टतः वर्णित नहीं हैं। प्रेमी की मार्मिक व्यथा एवं उपालंभ, का सविशेष वर्णन हुआ है, प्रिय कठोर एवं स्नेहहीन है। वह प्रेमी की पीड़ा को नहीं पहचानता प्रेम की यह विषमता वियोग को विशेष रूप से उग्र एवं स्थायी बना देती है।
लै ही रहे हो सदा मन और को दैबो न जानत जान दुलारे।
देख्यौं न है सपनेहू कहूँ दुख त्यागो संकोच औ सोच सुखारे।
कैसो संजोग वियोग धौ आहि फिरौ घन आनंद है मतवारे। मो गति बूझि परै तब ही जब होहु घरीक लौ आपु ते न्यारे।।
वियोग के कुछ पद्य तो ऐसी अनुमति की अभिव्यक्ति देते हैं कि कवि के समसामयिक समाज की विषम स्थिति की व्यंजना स्पष्ट है उर्दू फारसी के काव्य में इस प्रकार के विचार प्रायशः व्यक्त हुए हैं। प्रेमी और प्रिय के बीच परिस्थितिजन्य विषमता विद्यमान है। प्रिय महफिल की भीड़ में रहता है।
वह क्या जाने कि अकेलेपन (तनहाई) की वेदना क्या होती है। वह दूसरों को मोहित करता है फिर स्वयम् मोहित होने में क्या व्यथा सहनी पड़ती है इसे वह नहीं जानता। प्रिय तो चतुर सुजान है, वियोग बावले हैं। यह आनन्द का घन पीड़ित पपीहों को नहीं जान सकता।
कान्ह परे बहुतायत में अकलैनि की वेदनि जानौं कहा तुम,
हौ मन मोहन मोहे कहूँन, बिथा विमनैवि की मानौं कहा तुम।
बौरे वियोगिन आपु सुजान हैं हाय कछू डर आनौं कहा तुम।
आरतिवंत पपीहन कौं धन आनंद जू पहचानौं कहा तुम।।
वियोग का दूसरा पक्ष व्यथा वर्णन का है। संस्कृत के नाटककार भवभूति (उत्तररामचरित) और छायावादी कवि प्रसाद (आंसू) की भाँति घनानंद ने वियोग व्यथा का वर्णन बड़ा मार्मिक किया है। ऐसे स्थलों पर कवि की वाणी अलंकारादि की बाह्य सज्जा से अनपेक्ष होकर सीधे भाव उड़ेलती है। अनुभूति शब्दों में लिपटी चली आती है।
हिय में जु आरति सुजारति उजारति है
मारति मरोरै जिय डारति कहा कहाँ।
रसना पुकारिक विचारी पचि हारि रहै,
कहै कैसे अकह उदेग रूधि कै मरों।
हाय कौन वेदनि विरचि मेरे बांट कीनी
विघटित परौ न क्यों हूँ, ऐसी विधि हौँ भरौं।
आनंद के घन ही सजीवन सुजान देखाँ
सीरी परि सोचनि अचमें सौं जरौं मरौं।
वियोग दशा में परस्पर विरोधी भाव मन में उठते रहते हैं अतः वियोगी का जीवन विलक्षण बन जाता है। कवि ने इस वियोगी की रहनि, पर अनेक पद्य लिखे हैं, सबमें परस्पर विरोधी संचारी भावों का कथन हुआ है। कवि को विरोधकारी अभिव्यंजना का स्वरूप ऐसे ही स्थलों पर देखने को मिलता है।
अंतर उदेग दाह, आखिन प्रवाह आंसू।
देखी अट पटी चाह भी जनि दहनि है।
खोय खोय आपुही में चेटक लहनि है।
जान प्यारे प्राननिबसत पै अनंद घन,
बिरह बिसमदसा मूक लौं कहनि है।
जीवन-मरन, जीवन-मीच बिना बन्यौं आय,
हाय कौंन विधि रची नेही की रहनि है।
पद्य में पद पद पर विरोध की विषमता व्यक्त हुई है। उल्लेखनीय यह है कि कहीं भी अतिरंजना नहीं है। वियोग व्यथा की यथार्थ स्थिति व्यक्त हुई लगती है। कथन की मार्मिकता का रहस्य यही है।
संयोग और वियोग दोनों दशाओं के अन्तर्गत भावों की छोटी-छोटी अन्तर्दशाओं का बड़ा सजीव चित्र घनानंद ने खींचा है। पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में घनानंद की इस विशेषता का सराहना के साथ उल्लेख किया है। इनमें अभिलाष, उलझन, रीझ, बुद्धि व्यामोह आदि अन्तर्दशाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं।
अभिलाष हृदय की वह मृदु विकलता है जो पाकर भी और अधिक पाने की अशान्ति बनाये रहती है “प्रिय के रूप सौन्दर्य को देखकर हृदय में हर्ष की उमंगें इस प्रकार उठती हैं जैसे समुद्र में तरंगें और राग में ध्वनियाँ उठती हैं। नेत्र रूपराशि का पान करते हैं फिर भी वे तृषित ही बने रहते हैं। उधर प्रिय के मुख पर अधिकाधिक ओज बढ़ता है इधर प्रेमी के हृदय में अभिलाषाओं की वर्षा होने लगती है।
“ज्यों-ज्यों उत आनन पै आनंद सुओप औरे,
त्यौं त्यों इत चाहनि मैं चाह बरसति है”।
रस सागर नागर स्याम लखें अभिलाख निधार मझार बहौं,
प्रेमानुभूति एक ऐसी बेबसी है कि उसे न छोड़ते बनता न अपनाते, वह गले की ऐसी फांसी है जो मरने पर भी नहीं छूटेगी, इस प्रकार बिना प्रिय के एक उलझन पैदा हो जाती है कहीं सुलझाव नहीं सूझता।
हाय अटपटी दसा निपट चटपटी सौं,
क्यौं हू घनआनंद न सूझै सुरझनि है।
प्रिय का दर्शन पाकर बुध्दि व्यामुग्ध हो जाती है, प्रेमी जो कहना चाहता है वह सब उस समय भूल जाता है। प्रिय का संयोग हुआ या इसका केवल भ्रम ही था- यह भी उसे ज्ञात नहीं रहता।
चेटक रूप रसीले सुजान,
दई बहुतै दिन नैकु दिखाई।
कौंध मैं चौधमई चख हाय,
कहा कहाँ हेरनि ऐसे हिराई।
बातें बिलाय रई रसना पै,
हियौं उमग्यौं कहि एकीन आई।
साँच कि संभ्रम हों घन आनंद।
सोचनि ही मति जाति हिराई।।
पद्य में रहस्य का पुट भी है। परमतत्त्व की झलक ही मिलती है, पूर्ण दर्शन नहीं होता, बिजली की सी कौंध उसकी मिलती है। इससे जीव चकित अधिक होता है, तृप्त कम।
रीझ की अनुभूति संयोग काल में होती है। यह सुख की आकुलता पैदा कर देती है। अतृप्ति बनी रहती है। मन लालसाओं में डूब जाता है। प्रिय का रूप देख लेने पर भी नया नया लगता है। इधर आँखें हैं कि वे अघाती ही नहीं। इस प्रकार प्रेमी तो अपनी ही रीझ के हाथों हार जाता है।
रावरे रूप की रीति अनूप,
नयौ नयौ लागत जैतौ निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनौखी,
अधानि कहूँ नहिं आन तिहारिौं।
एक ही जीव हुतौ सुतौ बार्यो,
सुजान संकोच औ सोच सहारियै।
रोकी रहै न, दहै घन आनंद
बाबरी रीझ के हाथनि हारियै।
प्रेमानुभूति की इन्हीं सब विशेषताओं के कारण घनानंद के समीक्षक ब्रजनाथ ने उन्हें ‘नेहीं महा’ कहा है। इस प्रकार घनानंद की प्रेमानुभूति शास्त्रीय परंपरा से मुक्त होकर व्यक्त हुई है। वह बहुत गंभीर आन्तरिक और विषमताओं से पूर्ण हैं।
कवि को प्रेरणा का स्रोत भी काव्यशास्त्र न होकर अपना और समाज का जीवन है। ये सब विशेषताएँ घनानंद को अपने समय का अन्यातिरिक्त कृती सिद्ध करती हैं। उनकी प्रेमानुभूति गंभीर, मार्मिक, विषम, वेदनापूर्ण और कहीं-कहीं रहस्यात्मक है। घनानंद की प्रेम-साधना घनानंद की प्रेम-साधना
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