लोभ पाप को मूल है | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | भारतेन्दु हरिश्चंद |
लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान ।
लोभ कभी नहीं कीजिए, या मैं नरक निदान ॥
लोभ पाप को मूल है
प्रसंग – प्रस्तुत अंश भारतेंदु जी कृत ‘अंधेर नगरी’ प्रहसन में प्रथम अंक से लिया गया है। यहां शिष्य को दिशा बोध कराने के लिए गुरुजी उपदेश देकर कह रहे हैं । लोभ पाप को मूल है लोभ पाप को मूल है
व्याख्या – जब गोवर्धनदास भिक्षा के लिए नगर में जाने को उद्धत होता है तो गुरुजी ने उसके मनोभावों को पढ लिया तो गुरुजी उसे समझाते हुए कहते है कि बेटा भिक्षा उतनी ही लेना ताकि ठाकुर जी का भोग लग सके क्योंकि लोभ व्यक्ति के सम्मान को पूरी तरह विलुप्त कर देता है। लोभ ही मनुष्य को पाप की और ले जाता है और इसी कारण समाज से उसका मान दिन प्रतिदिन घटता जाता है अर्थात इसमें व्यक्ति के मन में हर्ष की जगह विषाद ले लेती है और जीवन कष्टदायी, यातना से परिपूर्ण और नरक बन जाता है।
विशेष –
- यहां भारतेंदु जी ने महन्त के द्वारा जीवन में आदर्श भाव प्रस्तुत किया है।
- प्रस्तुत पंक्ति में गुरु का उपदेश मनोहारी प्रेरणा है।
- भाषा सरल और बोधगम्य है।
- शैली लयात्मक और उपदेशात्मक है।
- सूक्ति, प्रधानता दर्शनीय है। a a a a a a a a a a a a a a a a
- उवत सूक्ति में ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है। ?
यह भी पढ़ें –
- नागमती चितउर पंथ हेरा। कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी
- पिउ बियोग अस बाउर जीऊ । कविता की संदर्भ सहित व्याख्या। मलिक मुहम्मद जायसी
- पाट महादेड़ हिएं न हारू समुझि जीउ | संदर्भ सहित व्याख्या | मलिक मोहम्मद जायसी |
-
Recent Comments