लौटे युग दल राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | राम की शक्ति पूजा |
लौटे युग दल ।
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज पति चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
प्रशमित हैं वातावरण, नमित मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीतचरण,
श्लध धनुगुण है, कटिबन्ध त्रस्त तूणीरधरण,
दृढ़ जटा मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वृक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।
आये सब शिविर
सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।
लौटे युग दल
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर निराला ने उस दिन के युद्ध के उपरांत युद्ध स्थल निराश-हताश अवस्था में लौटी राम की सेना का वर्णन किया है।
व्याख्या – कवि कहता है कि अंततः दिन ढलने पर युद्ध बंद हो गया और दोनों पक्षों की सेनाएं अपने-अपने निवास स्थानों को लौट आईं। चूंकि उस दिन युद्ध में रावण दल को अधिक सफलता मिली थी अतः राक्षस-दल इस प्रकार की खुशी में झूमता हुआ लौट रहा था के उनके उत्साहपूर्ण जय-जयकारों से आकाश व्याकुल हो रहा था-भाव यह है कि विजयोन्माद लौटती राक्षस सेना के कारण पृथ्वी और आकाश दोनों ही थर-थरा रहे थे। लौटे युग दल लौटे युग दल लौटे युग दल लौटे युग दल
दूसरी ओर शनर सेना में बड़ी ही खिन्नता परिव्याप्त थी और वह शिविर की ओर लौटते अपने स्वामी के चरणों की ओर देखती हुई इस प्रकार के शांत-उदास भाव से लौट रही थी मानो वह सेना न कर बौद्ध-संन्यासियों का समूह हो । लौटे युग दल
कवि आगे कहता है कि वानर सेना की तरफ संपूर्ण वातावरण शांत था। लक्ष्मण भी है इस प्रकार मुख झुकाकर चल रहे थे जैसे संध्या के समय कमलों के मुख मुरझाकर झुक जाते हैं हैं। जिस प्रकार की खिन्न मनोदशा में लक्ष्मण चल रहे थे उसी प्रकार की उदास मनःस्थिति में में संपूर्ण वानर-दल लौट रहा था। सबसे आगे-अगे राम अपने मक्खन के समान कोमल चरणों को धीरे-धीरे पृथ्वी पर रखते हुए चल रहे थे।
राम के धनुष की डोरी ढीली पड़ी हुई थी और तरकश रखने का कमरबंद भी ढीला हो गया था। उनकी जटाओं का कसकर बांधा हुआ मुकुट भी उस समय ढीला और अस्त-व्यस्त हो गया था। उनके बालों की प्रत्येक लट ढीली होकर खुल गई थी और उनके केश उनकी पीठ, भुजाओं और विशाल वक्षस्थल पर फैले हुए थे। राम के उस रूप को देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी दुर्गम पर्वत पर सांध्यकालीन अंधकार अवतरित हो गया है। पर्वत के पीछे से मंद-मंद चमकने वाले तारों की भांति राम की उदास आंखें चमक रही थीं।
इसी प्रकार उदाम मनःस्थिति में राम और उनकी वानर सेना पर्वत की चोटी पर स्थित अपने शिविर में आ गए। सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान, अंगद, हनुमान, नलनील, गवाक्ष आदि यूथपति, जो दल-विशेषों के सेनापति थे अपने आश्रय-स्थल अर्थात् शिविरों में आकर, प्रातःकाल होने वाले युद्ध के विषय में मंत्रणा करने लगे। वे इस विषय में विचार-विमर्श करने लगे कि प्रातः काल होने वाले युद्ध में राक्षस-सेना को परास्त करने के लिए। हमें क्या कदम उठाने चाहिए।
विशेष
1. प्रस्तुत पंक्तियों में निराशामय वातावरण का बड़े ही सटीक बिंबों के माध्यम) से अंकन किया गया है।
2. सांध्यकालीन उदास वातावरण राम तथा वानर सेना की मनःस्थिति से पूर्ण साम्य रखता है।
3. दल, तल, गुण, धारण के रूप में कवि ने पदमैत्री का अच्छा निर्वाह किया है। है।
4. कवि ने वानर सेना के लिए स्थविर – दल की बड़ी ही उपयुक्त उपमा दी है। जिस प्रकार संन्यासियों को संसार मिथ्या प्रतीत हुआ करता है, उसी प्रकार राम की सेना को भी संसार मिथ्या ) प्रतीत हो रहा था।
5. राक्षसों के महोल्लास के कारण पृथ्वी और आकाश दोनों के ही व्याकुल व चिंतित होने के वर्णन पर चंदवरदाई और भूषण आदि कवियों का प्रभाव माना जा सकता।
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