संजय का चरित्र-चित्रण | अंधा युग | डॉ धर्मवीर भारती |
संजय का चरित्र-चित्रण :- संजय को महाभारत में दिव्य दृष्टि संपन्न तटस्थ वक्ता के रूप में दिखाया गया है और वह महाभारत युद्ध में अपनी दिव्यदृष्टि से जो कुछ देखते हैं उसे स्पष्ट शब्दों में धृतराष्ट्र को बता देते हैं। अंधा युग में भी संजय के इसी रूप के दर्शन हमें होते हैं। वह 17 दिनों तक अपनी दिव्यदृष्टि से जो कुछ देखते हैं उसका सत्य कथन धृतराष्ट्र से करते हैं किंतु 18 दिन वह भी तो मोहग्रस्त होकर मार्ग में भटकने लगते हैं।
संजय का चरित्र-चित्रण
संजय तटस्थ दिव्य दृष्टा तथा शब्दों के शिल्पी हैं और उनका दायित्व अत्यंत गहन है किंतु वह क्या करें जो भाषा उन्हें मिली है वह अपूर्ण है और श्रोता अंधे हैं किंतु फिर भी यह निश्चित है कि संकट के क्षण में वह सब यही कहेंगे लेकिन आज :-
वह संजय भी
इस मोह निशा से घिरकर
है भटक रहा
जाने किस कंटक पथ पर।
वह इस दुश्चिंता में पड़ जाते हैं कि यद्यपि 17 दिन तक व समस्त युद्ध समाचार धृतराष्ट्र को गांधारी को देते रहे हैं किंतु आज अंतिम दिन की पराजय ने जो अनुभव उन्हें दिया है उसने तो सत्य की प्रकृति को ही बदल डाला है। फिर वही पुराने शब्द इस नई अनुभूति को कैसे वहन कर पाएंगे वह कृतवर्मा से कहते हैं :- संजय का चरित्र-चित्रण संजय का चरित्र-चित्रण
अंधों से किंतु कैसे कहूगा हाय
चरम त्रास के उस बेहद गहरे क्षण में
कोई मेरी सारी अनुभूतियों को चीर गया
कैसे दे पाऊंगा मैं संपूर्ण सकते उन्हें विकृत अनुभूति से ?
किंतु फिर भी संजय अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक हैं और अपने दायित्व को पूरा करने के लिए कटिबद्ध है। यद्यपि उन्हें मानसिक उहापोह ने जकड़ लिया है किंतु फिर भी :- संजय का चरित्र-चित्रण संजय का चरित्र-चित्रण
सत्य कितना कटु हो
कटु से यदि कटुतर हो कटुतर से कटुतम हो
फिर भी कहूंगा मैं
केवल सत्य केवल सत्य केवल सत्य है अंतिम अर्थ।
और अपने इस निर्णय के साथ ही संजय शीघ्रता से हस्तिनापुर की ओर चल पड़ते हैं। तभी अश्वत्थामा उन पर आक्रमण कर देता है और उनका गला दबोच लेता है। संजय को लगता है जैसे वह अपने दायित्व से मुक्त होने जा रहे हैं किंतु तभी कृपाचार्य और कृतवर्मा उन्हें बचा लेते हैं उस पर क्षुब्ध होकर संजय करते हैं :-
मत छोड़ो मुझे कर दो वध
जाकर अंधों से सत्य कहने की
मर्मान्तक पीड़ा है जो
उससे तो वध ज्यादा सुखमय है।
संजय के जीवन की सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि वह तटस्थ रहकर केवल सत्य कथन कह सकते हैं। किंतु कर्म मार्ग से उनका कोई संबंध नहीं है। कर्म लोग से तो वह बहिष्कृत है। न वह स्वयं कर्म कर सकते हैं और ना किसी को उस और प्रवृत्त कर सकते हैं और तटस्थ दृष्टा होने के कारण कर्म मार्ग के दर्शन का ही परित्याग कर सकते हैं। उनकी स्थिति दो पहियों के बीच लगे उस शोभा चक्र कि सी है जो व्यर्थ तो है किंतु अपनी धुरी से उतर भी नहीं सकता। :
मैं संजय हूं जो कर्म लोक से बहिष्कृत है
मैं दो बड़े पहियों के बीच लगा हुआ
एक छोटा निरर्थक शोभा चक्र हूं जो बड़े पहियो के साथ घूमता है
पर रथ को आगे नहीं बढ़ाता और न धरती ही छुपाता है!
और जिसके जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि वह धुरी से उतर भी नहीं सकता !
फिर भी वह अपना कर्तव्य निर्वाह करते हैं और धृतराष्ट्र तथा गांधारी को दुर्योधन के मरण के समाचार के साथ ही अश्वत्थामा द्वारा किए गए नरसंहार का समाचार भी सुनाते हैं। गांधारी को अश्वत्थामा के दर्शन कराने के फेरे में वह अपनी दिव्य दृष्टि भी खो बैठते हैं। मानव मूल्यों के निकट जा ही नहीं सकते और न ही मानव भविष्य की सुरक्षा का ही समर्थन में है। :-
कर्म से पृथक
खोता जाता हूं कृमशः
अर्थ अपने अस्तित्व का
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