अश्वत्थामा का चरित्र-चित्रण | डॉ धर्मवीर भारती | अंधा युग | - Rajasthan Result

अश्वत्थामा का चरित्र-चित्रण | डॉ धर्मवीर भारती | अंधा युग |

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

अश्वत्थामा का चरित्र-चित्रण :- अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का एकमात्र पुत्र तथा दुर्योधन का सर्वाधिक विश्वस्त मित्र है। महाभारत युद्ध में अपने पिता की निर्मम हत्या ने उसे जीवन से प्रायः विरक्त कर दिया है जब महाभारत के अंतिम दिन का युद्ध हुआ और भीम ने कृष्ण की प्रेरणा से अधर्म वार कर दुर्योधन को पराजित कर दिया उस समय अश्वत्थामा उस दृश्य को देखकर इतना खिन्न मन हो गया कि उसने अपने धनुष को तोड़ दिया और आर्तनाद करता हुआ वन की ओर चला गया।

अश्वत्थामा का चरित्र-चित्रण

दुर्योधन की पराजय ने उसे अंतिम स्तर तक तोड़ दिया और वह इस बात से विक्षुब्ध हो उठा कि वह अपने मित्र दुर्योधन की दयनीय पराजय देख कर भी उसकी सहायता नहीं कर सका| अपने टूटे हुए धनुष को लेकर वह वन में अंतर मंथन में लीन होकर अपनी आंतरिक दशा का उद्घाटन स्वयं इस प्रकार करता है।

यह मेरा धनुष है धनुष अश्वत्थामा का

जिस की प्रत्यंचा खुद द्रोण ने चढ़ाई थी

आज जब मैंने दुर्योधन को देखा

निः शस्त्र, दीन आंखों में आंसू भरे

मैंने मरोड़ दिया अपने इस धनुष को

कुचले हुए सांप सा भयावह किंतु

शक्तिहीन मेरा धनुष है या जैसे है मेरा मन।

अश्वत्थामा के मन में केवल दुर्योधन की पराजय का दुख ही केंद्रीभूत नहीं हुआ बल्कि उसके मन में अपने पिता की निर्मम हत्या का प्रतिशोध भी पक रहा है। वह यह नहीं भूल पाता कि अपने आपको धर्मराज और सत्यवादी कहने वाले युधिष्ठिर ने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए इस प्रकार सत्य को तिलांजलि देकर झूठ का आश्रय ग्रहण किया। यह जानकर किस शस्त्र रहते द्रोणाचार्य को पराजित नहीं किया जा सकता उन्होंने एक कुटिल चाल चली और द्रोणाचार्य के सामने यह घोषणा की कि अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा का चरित्र-चित्रण

अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार युधिष्ठिर के मुख से सुनकर द्रोण ने उस पर विश्वास कर लिया और शस्त्र नीचे रख दिए। उसी समय धृष्टद्युम्न ने उनकी हत्या कर डाली। युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने अश्वत्थामा को इतना आधार पहुंचाया कि वह अपने मनुष्यत्व को खोकर बर्बर पशु बन गया| अपने इस मानसिक परिवर्तन को स्वीकार करते हुए वह स्वयं कहता है :- अश्वत्थामा का चरित्र-चित्रण

उस दिन से मेरे अंदर भी जो शुभ था कोमल तम उसकी भ्रूण हत्या युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने कर दी धर्मराज होकर वे बोले‘नर या  कुन्जर’ मानव को पशु से उन्होंने पृथक नहीं किया उस दिन से मैं हूं पशु मात्र अंध बर्बर पशु|

किंतु वह भी पराजय की एक अंधी गुफा में भटक जाता है उसके मन में इस पराजय ने एक ऐसा हीनता बहुत भर दिया कि उसे अपना जीवन भी एक भार लगने लगता है ऐसा जीवन जो कुंठाग्रस्त होकर एक पूर्व में परिणत हो गया है| :- अश्वत्थामा का चरित्र-चित्रण

दुर्योधन सुनो! सुनो, द्रोण सुनो!

मैं यह तुम्हारा अश्वत्थामा शेष हूं अभी तक

जैसे रोगी मुर्दे के मुख्य में शेष रहता है

गंदा कफ बासी थूक से हूं अभी तक में|

जीवन कि यह ऊंब और कुंठाग्रस्त मन की निरर्थकता उसे अत्यंत पीड़ा देती है| एक ऐसी पीड़ा जो आत्महत्या से भी बढ़कर है और आत्महत्या ही क्यों नरक की पिघलती अग्नि में उबलने से भी कष्ट कर प्रतीत होती है। :- अश्वत्थामा का चरित्र

आत्मघात कर लूं?

इस नपुंसक अस्तित्व से छुटकारा पाकर

यदि मुझे पिघली नरकाग्नि में उबलना पड़े

तो भी शायद इतनी यातना नहीं होगी।

किन्तु तभी उसे अपने नाम की पुकार सुनाई देती है और उसका उलझा तथा कुण्ठाग्रस्त मन एकाएक ही चौंक उठा और उसकी सुसुप्त प्रतिहिंसा जागृत हो उठी। प्रतिशोध की भावना के जाग्रत होते ही वह आत्मघात वाला निर्णय त्याग कर जीवित रहने और इस प्रकार अपने पिता और दुर्योधन के हत्यारों से प्रतिशोध लेने का निर्णय लेता है। युधिष्ठिर ने अपने अर्द्धसत्य से उसे पशु तुल्य घोषित कर दिया है और वह युधिष्ठिर की वाणी को सत्य चरितार्थ कर देने को सन्नद्ध है

 

किन्तु नहीं !

जीवित रहूँगा मैं अन्धे बर्बर पशु-सा

मेरी इस पसली के नीचे

दो पंजे उग आयें

मेरी ये पुतलियाँ

बिन दाँतों के चीथ खाएँ

पायें जिसे !

वध, केवल वध, केवल वध

अन्तिम अर्थ बने मेरे अस्तित्व का

प्रतिहिंसा की इस दुर्दम्य भावना ने अश्वत्थामा को इतना उन्मादित कर दिया है कि उसे कर्तव्याकर्तव्य का भी ध्यान नहीं रह जाता। अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य वह केवल हत्या को ही समझता है, चाहे उस हत्या के पीछे कोई कारण हो अथवा नहीं।

या वह व्यक्ति चाहे तटस्थ और अवध्य ही क्यों न हो, उसे तो केवल वध करना है। इसीलिए जब संजय उधर से निकल रहे थे तो अश्वत्थामा ने उनका गला दबोच लिया और क्रूर अट्टहास किया। कृपाचार्य के यह कहने पर कि वह संजय है और संजय तटस्थ तथा अवध्य है, अश्वत्थामा अपनी स्थिति को इस प्रकार स्पष्ट करता है

 

तटस्थ ?

मातुल मैं योद्धा नहीं हूँ

बर्बर पशु हूँ

यह तटस्थ शब्द

है मेरे लिये अर्थहीन

पक्ष में नहीं है जो मेरे

वह शत्रु ।

युधिष्ठिर के अर्द्धसत्य ने उसकी समस्त मानवता का गला घोंट डाला है और उसमें विवेक, नीति या आचरण की मर्यादा शेष नहीं रह गई थी। अब तो वह केवल एक ऐसा पशु है जो बर्बर और घातक है। उसकी मानसिक स्थिति इतनी असंतुलित हो गई है कि उचितअनुचित को भूल चुका है, अपनी हीन मनोग्रंथि का परिचय वह कृपाचार्य को स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार देता है। वह प्रतिहिंसा की ज्वाला में झुलसता लगभग विक्षिप्त हो गया है और उसकी इस विक्षिप्तता से कृतवर्मा भी भयभीत हो जाता है-

कृपाचार्य

भय लगता है

मुझको

इस अश्वत्थामा से।

 

उसे सदैव यही चिन्ता सताती रहती है कि वह पाण्डवों की हत्या करके कब अपनी प्रतिहिंसा को शांत कर पायेगा। इसी उधेड़बुन में पड़ा एक दिन वह बलराम-श्रीकृष्ण का संवाद सुन लेता है और बलराम के यह कहने पर कि एक दिन निश्चित रूप से पाण्डव भी अधर्म से मारे जायेंगे, वह उत्फुल्लित हो उठता है और निर्णय लेता है कि वह भी अधर्म से ही पाण्डवों की हत्या छिपकर करेगा।

कृतवर्मा उस परं व्यंग्य करते हैं कि तुम पाण्डवों को वैसे ही मारोगे जैसे वृद्ध याचक की छिपकर हत्या की थी। अश्वत्थामा के स्वीकार करने पर वह उस पर फिर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि वह अपनी अधर्मयुक्त उज्जवल वीरता का प्रदर्शन कहीं और करे। इस पर चिढ़कर अश्वत्थामा कृतवर्मा को चुनौती देता हुआ कहता है-

प्रस्तुत हूँ उसके लिए भी मैं कृतवर्मा

व्यंग्य मत बोलो

उठाओ शस्त्र

पहले तुम्हारा करूँगा वध

तुम जो पाण्डवों के हितैषी हो।

 

किन्तु जब कृपाचार्य उसके इस उद्धत स्वभाव और अप्रांसगिक कटुता पर उसे प्रताड़ित करते हैं तो वह अपने को निपट अकेला पाता है। वह जानता है कि जिसने भी विजय पाई है अधर्म से पायी है। किन्तु वह जब अधर्म से विजय पाना चाहता है तो उसके साथ उसी के सहयोगी इस प्रकार का अमैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हैं। मर्यादित जीवन से उसे चिढ़ हो गयी है। और वह अपनी प्रतिहिंसा में स्वयं को असहाय पाता है –

सुनते हो पिता

मैं इस प्रतिहिंसा में

बिल्कुल अकेला हूँ

तुमको मारा धृष्टद्युम्न ने अधर्म से

भीम ने दुर्योधन को मारा अधर्म से

दुनिया की सारी मर्यादाबुद्धि

केवल इस निपट अनाथ अश्वत्थामा पर ही लादी जाती है।

युधिष्ठिर के पाखण्ड ने उसके कोमल मन को इतना झिंझोड डाला है कि अब वह प्रतिशोध के अतिरिक्त कुछ सोचता ही नहीं है। धर्म-अधर्म, उदारता, मानवता या मर्यादा मनुष्यों के चिन्तन की चीजें हैं, वह मनुष्य नहीं पशु है – अंध बर्बर पशु, अपने इस प्रतिशोध को पूरा करने के लिए वह सेनापतित्व ग्रहण करता है। आधी रात में सुप्त कौओं को उलूक द्वारा मारे जाने के दृश्य को देखकर उसमें एक नया दर्शन पैदा होता है और वह उसी समय कृपाचार्य तथा कृतवर्मा को जगाकर अपनी योजना उनके सम्मुख इस प्रकार रखता है –

पाण्डव शिविर की ओर

नींद में निहत्थे, अचेत

पड़े होंगे सारे

विजयी पाण्डव गण

 

वे सब अकेले हैं

कृष्ण गये होंगे हस्तिनापुर

गांधारी को समझाने

इससे अच्छा अवसर आखिर मिलेगा कब ?

 

कौए के कटे पंख के समान काली उसकी रक्तरंगी घृणा बड़ी भयानक है, पाण्डव- शिविर जाने के पूर्व ही उसे अपने आराध्यदेव शंकर मिलते हैं। पहले तो वह उनसे लड़ता है किन्तु फिर पहचान कर उनकी स्तुति करता है। उसके बाद वह शिविर में ऐसा नरसंहार करता है कि धृष्टद्युम्न, शतानीक तथा शिखण्डी आदि कितने ही पाण्डव वीर मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। संजय उसके वीर रूप का वर्णन गांधारी के सम्मुख इन शब्दों में करते हैं-

धुआँ, लपट, लोथें, घायल घोड़े, टूटे रथ

रक्त, मेद, मज्जा, मुण्ड,

खण्डित कबन्धों में टूटी पसलियों में

विचरण करता था अश्वत्थामा सिंहनाद करता हुआ

नर रक्त से वह तलवार उसके हाथों में

चिपक गयी थी ऐसे जैसे वह उगी हो उसी के भुजमूलों से।

इतना होने पर भी जब वह दुर्योधन के निकट जाता है और कृपाचार्य दुर्योधन से कहते हैं कि इसने पाण्डवों का नाश कर दिया है, अश्वत्थामा अत्यन्त कातर शब्दों में कहता है कि अभी मेरी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई है। अभी मैं आपका प्रतिशोध नहीं ले पाया हूँ किन्तु मैं उसे भी पूरा करूँगा यह वचन देता हूँ

किन्तु अब भी आपका प्रतिशोध नहीं ले पाया ।

शेष है अभी भी, सुरक्षित है उत्तरा

जन्म देगी जो पाण्डव उत्तराधिकारी को ।

किन्तु स्वामी, अपना कार्य पूरा करूँगा मैं ।

 

वह केवल पराक्रमी ही नहीं हैं वरन् उसके पास ब्रह्मास्त्र भी है। यद्यपि वह इस नरसंहार के बाद तपोवन में चला गया था किन्तु उसके कथनानुसार अर्जुन ने अपने अग्निवाणों से आहत कर उसे ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने के लिए विवश कर दिया। ब्रह्मास्त्र फेंकते हुए वह अर्जुन को चेतावनी देते हुए कहता है –

रक्षा करो अपनी अब तुम अर्जुन

मैंने तो सोचा था

वल्कल धारण कर रहूँगा तपोवन में

पूरे पाण्डव वंश को

निर्मूल किए बिना शायद

युद्ध लिप्सा नहीं शांत होगी कृष्ण की।

अच्छा तो यह लो यह है ब्रह्मास्त्र ।

इसके प्रभाव को 

एक क्या करोड़ कृष्ण मिटा नहीं पाएँगे।

 

इस विनाशकारी अस्त्र का प्रयोग होते ही व्यास अश्वत्थामा को अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लेने का अनुरोध करते हैं किन्तु अश्वत्थामा पराक्रमी पिता का पराक्रमी पुत्र है। वह कहता है कि मेरे पिता ने मुझको या मेरे अस्त्रों को केवल आक्रमण की रीति सिखायी है. पीछे हटना नहीं।

कृष्ण द्वारा शाप दिये जाने के कारण वह कोढी हो जाता है और उसके अंग-अंग पर कोढ के दाने फूट निकलते हैं जिनसे पीप भरा दुर्गन्धित रक्त बहता रहता है, इतना होने पर भी जब वह कृष्ण की स्तुति सुनता है तो स्पष्ट और निर्भीक शब्दों में इस स्तुति वाचन का विरोध करते हुए कहता है

झूठे हैं ये स्तुति वचन, ये प्रशंसा वाक्य

कृष्ण ने किया है वही

मैंने किया था जो पाण्डव शिविर में

उसने नशे में अपने बंधुजनों की

की है व्यापक हत्या

 

यहां तक कि वह इस ‘हत्या’ में अपने को कृष्ण से अधिक श्रेष्ठ मानता है क्योंकि उसने जिनकी हत्या की थी वे उसके शत्रु थे, जबकि कृष्ण ने स्वयं अपने ही भाइयों की हत्या कर डाली थी

 

उसने किया है वही

मैंने तो किया था उस रात

फर्क इतना है

मैंने मारा था शत्रुओं को

पर उसने अपने ही वंशवालों को मारा

के मरण को किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह किसी के गुण पर रीझता नहीं। कृष्ण को वह अपना परम शत्रु मानता है किन्तु युयुत्सु की अंधी प्रेतात्मा जब अनास्थामय होकर कृष्ण के मरण को एक कायर के मरण- रूप में स्वीकार करती है, तो अश्वत्थामा अपनी गुणग्राहिता का परिचय इस पकार देता है

कायर मरण ?

मेरा था शत्रु वह

लेकिन कहूँगा मैं दिव्य शांति छायी थी

उसके स्वर्ण मस्तक पर

जीवन भर अनास्थावादी रहने के उपरांत जब कृष्ण की मृत्यु उसके घावों की पीड़ा को हर लेती है तो वह सहसा आस्थामय हो उठता है । आस्था नामक एक नयी अनुभूति उसे मिलती है और वह अनायास ही कह उठता है.

यह जो अनुभूति मिली है

क्या यह आस्था है ?

 

इस प्रकार अश्वत्थामा के चरित्र में प्रेम और पराक्रम यह दो तत्व प्रधान रूप में मिलते हैं। जीवन में केवल दो व्यक्तियों, पिता द्रोण और मित्र दुर्योधन से उसने प्रेम किया और इनकी हत्या ने ही उसमें घोर प्रतिहिंसा भर दी । इस प्रतिहिंसा ने उसके प्रेम को घृणा में परिवर्तित कर दिया। इस प्रतिहिंसा जन्य घृणा ने ही उसके पराक्रम को पाशविक बना दिया। इसीलिए अंत में वह अपने को मानव-भविष्य की रक्षा करने में अक्षम अनुभव करता है और स्वयं को अमानुषिक कहता है Il

 

यह भी पढ़ें 👇

 

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!