मेरोई जीव जौ मारत मोहि तौ प्यारे कहा | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

मेरोई जीव जौ मारत मोहि तौ प्यारे कहा | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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मेरोई जीव जौ मारत मोहि तौ प्यारे कहा तुम सो कहनो है।

आँखिन हूँ पहिचानि तजी कछु ऐसोई भागनि को लहनो है।

आस तिहारियै हौ घनआनन्द कैसे उदास भएँ रहनो है।

जान है होत इते पै अजान जौ तौ बिन पावक ही दहनो है।

मेरोई जीव जौ मारत

प्रसंग :— यह पद्य कविवर घनानन्द विरचित ‘सुजानहित’ में से उद्धृत किया गया है। प्रिय जब निर्मोही हो जाए, तो प्रेमी के पास मानव को कोसने के सिवा अन्य कोई चारा नहीं रह जाता। चतुर सुजान या प्रिय से ठगे जाने के बाद निराश प्रेमी की इसी प्रकार की दयनीय मानसिकता का चित्रण करते हुए कवि घनानन्द कह रहे हैं

व्याख्या :— हे प्रिय ! जब मेरा अपना मन और प्राण ही मेरा दुश्मन बनकर मुझे मार डालने पर तुल गया है, तो ऐसी दशा में तुझसे यदि शिकायत की भी जाए, तो केसी और क्यों कर? अर्थात् तब तुम्हारा काई दोष नहीं, यही मानना और कहना पड़ता है! मेरोई जीव जौ मारत

हे प्रिय! तुमने तो आँखों की पहचान तक त्याग दी है, अर्थात् मुझे पहचानने तक से इन्कार कर दिया है, ऐसी दशा में प्रेमी कहना या मानना तो दूर की बात है। यह देख सुनकर लगता है कि मेरे भाग्य में तुम्हारे साथ ऐसा ही लेना-देना लिखा था। अर्थात् तुम्हें प्रेम करके भी बदले में तुमसे अपहचान पाना ही मेरे भाग्य में लिखा था, सो मिल गया है।

घनानन्द कवि कहते हैं कि जब मन और जीवन में केवल तुम्हारा प्रेम ही सब कुछ है, वही जीने की आशा भी है, तब निराश होकर जीवन जीने से क्या लाभ? अरे, तुम तो चतुर सुजान हो, सब कुछ भली प्रकार से समझते और जानते हो। तुम मेरे प्रेम को अच्छी प्रकार जान कर भी जो इस तरह जान-बूझ कर अंजान बन रहे हो, तो लगता है कि बिना आग के भी हमें अब जलते ही रहना है। अर्थात् तुम्हारे विरह की आग में जल जलकर जिए जाना ही अब मेरा भाग्य बन चुका हैं। अन्य किसी तरह का कोई चारा या उपाय नहीं है।

विशेष

1. ‘बिन पावक ही दहनो’ विप्रलम्भ शृंगार की तीव्रता को व्यंजित करने वाला पद है। उसे परम्परागत ही कही जा सकती है। मेरोई जीव जौ मारत

2. प्रिय का जान-बूझकर अन्जान बनना वस्तुतः बड़ा ही मारक कार्य हुआ करता है। विरहजन्य यह भाव मार्मिक अभिव्यकित पा सका है।

3. पद्य में वक्रोक्ति, असंगति, उपमा, अनुप्रास और सभंग यमक अलंकार हैं।

4. भाषा भावानुकूल माधुर्य गुण से सम्पन्न, चित्रात्मक प्रवाहमयी और व्यंजना को संगीतात्मक रूप से प्रभावी बनाने वाली है।

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