मन- पारद कूप लौं रूप चहें उमहे सु | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
मन- पारद कूप लौं रूप चहें उमहे सु रहे नहि जेतो गहौं ।
गुन-गाड़नि जाय परै अकुलाय मनोज के अरेजनि सूक्ष सहौं।
घनआनन्द चेटक- धूम मैं प्रान घुटै न छुटै गति कासौं कहौं ।
उर आवत यौं छबि छांह ज्यौं हौं ब्रजहौल के गैलसदाई रहौं ।
मन- पारद कूप लौं रूप
प्रसंग :— यह पद्य कविवर घनानन्द रचित ‘सुजानहित’ नामक रचना से लिया गया है। प्रेम में मन परवश हो जाता है। वह सदा प्रिय की छाया बनकर रहता है। इस पद्य में मूलत: इसी भाव को उजागर करते हुए कवि कह रहा है————
व्याख्या :— एक गोपी (या राधा) दूसरी गोपी से कहने लगी- यह मनरूपी पारा उस प्रिय कृष्ण के रूप-रूपी कूप (कुप्पी) को चाहता है, क्योंकि यह जब एक बार उमड़ आता है, फिर इसे काबू में रखने का जितना भी प्रयत्न करूँ, काबू में नहीं आ पाता। अर्थात् जिस प्रकार पारा अस्थिर होता है, एक जगह रोकने पर भी नहीं रुक पाता; केवल कुप्पी जैसी किसी चीज में ही ढ़ककर रुक पाता है, अन्यत्र कहीं प्रयत्न करने पर भी नहीं रुकता |
बरबस कृष्ण के सौन्दर्य की ओर फिसल- फिसल जाता है। जब प्रिय मिलन की इच्छा मन में जागती है, तो सारे गुण और बंधन गड्ढे में जा गिरते हैं। व्याकुलता बढ़ जाती है और काम के प्रभाव से जोश बढ़ जाने पर सूल सहने पड़ते हैं। अर्थात् उमड़ा मन कष्ट सह कर भी प्रिय से मिलना चाहता है और तब सारे बन्धन स्वतः टूट जाते हैं।
कविवर घनानन्द कहते हैं कि तब प्रिय के रूप में जादू रूपी घुएं से प्राण घुटन से भरने लगते हैं; पर छूटते या निकलते नहीं। अपनी उस समय की विषम दशा का वर्णन मैं केसे और किसके सामने करूँ? अर्थात् उस स्थिति का वर्णन कर पाना कतई सम्भव प्रतीत नहीं होता। उस समय तो रह-रहकर बस एक ही बात मन में आया करती है कि कैसे प्रिय कृष्ण की परछाईं बनकर ब्रज की गलियों में उसके साथ घूमती फिरूं । अर्थात् सब कुछ छोड़-छाड़ इस जी को अब अपने प्रिय श्रीकृष्ण का साथ ही अच्छा लगता है, अन्य कुछ नहीं ।
विशेष
1. मन की चंचलता की पारे से तुलना अत्यन्त स्वाभाविक बन पड़ी है। प्रेमियों का मन प्रिय संग की इच्छा से पारे-सा ही अस्थिर हो जाया करता है।
2. ‘गुन-गाड़नि’, ‘चेटक – धूम’ आदि पदों का प्रयोग विशेष अभिप्राय से किया गया प्रतीत होता है। दोनों प्रयोग बड़े सार्थक बन पड़े हैं।
3. पद्य में विशेषोक्ति, रूपक, उपमा, अनुप्रास आदि अलंकार हैं। ‘गुन’ पद में श्लेष अलंकार की योजना बड़ी स्वाभाविक बन पड़ी है।
4. भाषासानुप्रतीक माधुर्यगुण प्रधान भावाभिव्यक्ति में सक्षम और संगीतात्मक कही जा सकती है।
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