रूप के भारनि होतीं है सौहीं लजौं हियै दीठि | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
रूप के भारनि होतीं है सौहीं लजौं हियै दीठि सुजान यौं झूली |
लागियै जाति, न लागि कहूँ निसि, पागी तहीं पलकौ गती भूली।
बैठियै जू हिय पैठति आजु कहा उपमा कहियै समतूली ।
आए हौ भौर भएँ घनआनन्द आंखन मांझ तौ सांझ-सी फूली || (२३)
रूप के भारनि होतीं है
प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। कई बार सौन्दर्य एक प्रकार का बोझ – सा भी बन जाया करता है। इसी भावना को इस पद्य में व्यंजित करते हुए कवि कह रहा है –
व्याख्या : सामने आकर नजर मिलते ही अपने सौंदर्य के बोझ से दबी सुजान की आँखे लाज के मारे नीचे झुक गई । अर्थात् वह नजरें मिलाकर देखते रहने का ताव न ला सकी, अतः उस सुन्दरी की पलकें जैसे अपनी सुन्दरता के बोझ से ही झुक गई। उन्हें देखकर लगता था कि जैसे रात को उसकी आँखें कहीं लगी नहीं, अर्थात् ह चैन की नींद नहीं सो सकी।
अतः उसकी याद में अपनी गति भूलकर अभी तक उसी ध्यान में मग्न है। अर्थात् रात को जिस कारण नींद नहीं आई, आँखें अभी भी मानो उसी के ध्यान में खोई हुई या अब भी उसी ध्यान में मगन हो रही हैं। वह बैठी हुई भी आज अपने इसी रूप में हृदय में समाई जा रही है। उसे इस रूप में देखकर उसकी समानता कर पाने में समर्थ कौन-सी उपमा दी जाए, कुछ भी तो समझ नहीं पड़ता। अर्थात् अपनी धज में वह अनुपम प्रतीत होती है।
घनानन्द कवि कहते हैं कि उसे देखकर लगता है कि भोर के आ जाने पर भी उसकी आँखों में अभी तक साँझ ही फूल रही है। अर्थात् साँझ के समय उसकी आँखों में जो भाव था, वह सुबह हो जाने पर -त्यों बना हुआ है। ज्यों-का
विशेष
1. अपना सौन्दर्य ही भार एवं लज्जा का कारण बन जाया करता है, कवि ने इस सहज मनोवैज्ञानिक तथ्य का सरल प्रतिपादन किया है।
2. वर्णन की समूची मानसिकता पूर्णतया मध्ययुगीन है।
3. पद्य में उपमा, प्रश्न, विषय और अनुप्रास आदि अलंकार है।
4. भाषा प्रसादगुणात्मक, गत्यात्मक एवं कुछ-कुछ अप्रचलित है। इसी कारण भावाभिव्यक्ति किंचित दुरुह हो गई है।
यह भी पढ़े 👇
- गुन बाधि कियो हिय फिरि खेल कियौ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | (२२)
- क्यौं हँसि हेरि हरयौं हियरा अस क्यौ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | (२१)
- रूप धरे धुनि लौं घनआनन्द सूझासि बूझ की | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | (२०)
Recent Comments