रति रंग-पगे प्रीति – पागे रैन जागे नैन | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
रति रंग-पगे प्रीति – पागे रैन जागे नैन,
लागेई आवत घूमि घूमि छबि के छके।
सहज बिलोल परे केलि की कलोलनि मैं,
कबहूँ उमंगि रहें कबहूँ जके थके।
नीकि पलकनि पीक लीक झलकनि सोहै,
रस – बलकनि उनमदि न कहूँ सके।
सखद सुजान घनआनन्द पोखत पान |
अचिरजि खानि उघरें हू लाज सों ढके ॥ (२९)
रति रंग-पगे प्रीति
प्रसंग :— यह पद्य कवि घनानन्द द्वारा विरचित ‘सुजानहित’ से लिया गया है। इसमें कवि नायिका के कामोन्मत्त और काम तृप्त नयनों की चंचलता के बारे में कहता है-
व्याख्या :— काम-भावना में डूबे और प्रेम-भाव से भरे हुए उसकी नयन – ज्योति रातभर जागने के कारण अतीव सुन्दर एवं आकर्षक प्रतीत हो रहे हैं। वे नयन प्रियतम की छवि और सहचर्य से तृप्त होकर बारम्बार इधर घूमे आते हैं। काम-क्रीड़ा में मगन रहने के कारण सुन्दरी नायिका के नयनों में एक प्रकार की स्वाभाविक एवं विशेष चंचलता आ गई है।
इस कारण कभी थके-थके से लगने लगते हैं। काम-क्रीड़ा की तृप्ति और उमंग से भरी सुन्दरी सुजान की सुन्दर पलकों में एक स्वाभाविक लाज की लाली की रेखा-सी खिंच कर शोभा पा रही है। उसकी आँखों और मन मे जो रस की लहरें उमड़- उमड़ पड़ रही हैं, उसकी मस्ती और उत्साह का वर्णन कर पाना संभव नहीं लग रहा ।
कविवर घनानन्द कहते हैं कि ये सुन्दर नयन सुखदायक सुजान के प्राणों का पालन करने वाले हैं। परन्तु आश्चर्य की खान वे नयन इस कारण हैं तो खुले हुए, फिर भी उन्हें एक स्वाभाविक लज्जा के भाव ने ढक रखा है। भाव यह है कि नायिका के नयन काम-भाव की तप्ति का अनुभव करके उमंग- उत्साह से तो पूरे-पूरे लगते हैं; पर स्वाभाविक सज्जा को वे कभी भी हाथ से जाने नहीं देते।
विशेष
1. कवि ने नायिका के कामोन्मत्त एवं काम तृप्त नयनों में विद्यमान चंचलता और लाज की लाली का बड़ा ही स्वाभाविक वर्णन किया है।
2. ‘केलि की कलोलनि मैं’ पद केंद्रिय भाव को करने वाला है।
3. पद्य में रूपक, सन्देह, उल्लेख, सम, वर्णन, और विविध भेद आदि कई अलंकारों का सफल सार्थक प्रयोग किया गया है।
4. भाषा सानुपासिक, गत्यात्मक, चित्रमय, संगीतात्मक एवं माधुर्य-गुण से मण्डित है। उस पर दरबारी प्रभाव भी स्पष्ट है।
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