श्री अरविन्द का जीवन परिचय व दर्शन
श्री अरविन्द का जन्म पश्चिम बंगाल के कोन्नगर में 15 अगस्त, 1872 को हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा दार्जिलिंग के लॉरेटो कान्वेंट स्कूल में हुई और उसके बाद आठ वर्ष की उम्र में ही वे इंगलैंड चले गये। सन् 1885 में उन्हें लंदन के सेंट पॉल के स्कूल में भेजा गया, जहां उनमें कुछ प्राचीन भाषाओं जैसे ग्रीक और लैटिन के प्रति एक अनोखा आकर्षण पैदा हुआ।
श्री अरविन्द
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने आई सी एस की परीक्षा में भाग लिया। जहां उन्होंने लिखित परीक्षा तो पास कर ली, परंतु घुड़सवारी की परीक्षा ग्रह उत्तीर्ण न कर सके। सन् 1893 में वे भारत वापस आये और बड़ौदा राज्य सेवा में शारी हुए, जहां उन्हें प्राचीन भारतीय दर्शन को पढ़ने का पर्याप्त समय मिला । वे बड़ौदा ता लगभग दस वर्षों तक रहे और उसके बाद उन्होंने अपने को राजनीतिक कार्यों के रहे।
सन् 1908 में गिरफतार होने तक समर्पित किया। कारावास के दौरान वे एक आध्याति ये परिवर्तन से गुजरे जो उन्हें एक योगी के मार्ग की ओर ले गया । अप्रैल 1910 में पांडिचेरी चले गये, जहां वे 1950 में उनकी मृत्यु होने तक रहे। पांडिचेरी में श्री अराई आश्रम ने श्री अरविन्द के सारे लेखों को एकरूप पुस्तकालय संस्करण में प्रकाशित काने प्रारंभ किया और आज भी करता है।
इन लेखों में 30 भाग वाले श्री अरविन्द न सेन्टेनरी लाइब्रेरी में पहले प्रकाशित रचनाएं और साथ ही नये ग्रंथ के लगभग 4000 सम्मिलित हैं।
श्री अरविन्द का दर्शन
श्री अरविन्द अद्वैती हैं, परतु शंकर के अद्वैत के समान नहीं । माया ब्रह्म की वास्तविक शक्ति है, चेतना का घटक है । यह ब्रह्म की सृजनात्मक शक्ति हैं जो इससे नीचे आकर जड़ तत्व के जगत् में प्रवेश करती है। यहां ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसमें ब्रह्म न हो और इसलिए सब कुछ वास्तविक है। चेतना में अचेतन का अंश है और अचेतन में चेतन का ।
चेतन और अचेतन दोनों ही ब्रह्म की शक्तियां हैं। ब्रह्म पूर्ण सत् है और ब्रह्म की शक्ति का यह स्वभाव है कि यह स्वयं को जगत् की सीमित वस्तुओं और आत्माओं में अभिव्यक्ति करता है। विकास की प्रक्रिया में, सभी सत्ताएं निरंतर ब्रह्म की ओर लौटती है| सत् की आदिम शक्ति की ओर लौटने की प्रक्रिया आत्म शक्ति के चेतना के उच्चतर रूपों में विकसित होने में परिणमित होती है।
डार्विन के विपरीत, श्री अरविन्द के अनुसार सभी सत्ताएं चित्– शक्ति के उत्पाद हैं। प्रत्येक सत्ता का अन्य सत्ता से कुछ साम्य है। निम्नतर (वनस्पति) और उच्चतर (जीव) का साधारण भेद कोई वास्तविक भेद नहीं है, बल्कि केवल मात्रा का भेद है। निम्नतर स्तर निरंतर उच्चतर में समझाने के लिए संघर्ष करता है, और उच्चतर सदैव निम्नतर में प्रकाशित होता है।
यह ब्रह्मांड निम्नतर और उच्चतर के बीच निरंतर चलने वाली एक विकासशील क्रीड़ा है और इस विकास का लक्ष्य सच्चिदानंद’ की प्रप्ति है ।
चित्त से जड़ की ओर और जड़ से चित् की ओर गति निरपेक्ष ब्रह्म के स्वभाव से संबंधित है, माया है निरपेक्ष ब्रह्म की शक्ति है। यदि आत्म-शक्ति चेतन है और माया अचेतन है, तब चेतन और अचेतन दोनों एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं, बल्कि आपस में सबंधित हैं। नीचे आने (प्रत्यावर्तन) और ऊपर उठने (विकास) की गतियां एक चक्रक गति का निर्माण करती हैं।
निरपेक्ष सत् (ब्रह्म) ‘सच्चिदानंद’ है। सत् चित् और आनंद । सवोच्च चित् शक्ति के जड़त्व में अवतरग की और जड़त्व से उत्थान की नौ अवस्थाएं है। सत्, चित्, आनंद, अतिमन, अधिमन, मनस्, आत्म, जीवन और जड़ |
सत् पूर्ण सत्ता, अनंत, नित्य और अनिर्वचनीय है। सत्ता और संभवन दोनों सत् पक्ष हैं। चित् चेतना-शक्ति है। सभी सत्तायें अंततः ऊर्जा, एक शक्ति के प्रवाह की ओर आती है और यही शक्ति चित् शक्ति है। आनंद निरपेक्ष उल्लास या नित्य और अनंत सुख है। अतः निरपेक्ष, ब्रह्म एक चित् सत्ता है जिसकी चेतना असीम आनंद है।
निश्चित रूप से, सर्वोच्च अनभिव्यक्त ‘सच्चिदानंद’ सबसे ऊपर है, क्योंकि सत् अंतिम विश्लेषण में, इसकी अभिव्यक्ति से परे है। उसके बाद ‘सच्चिदानंद’ निर्मित अभिव्यक्ति आती है, जो कि सत, चित् और आनंद है। ‘अतिमन’ साक्षात् सत्य चैतन्य है । यह सत्य को धारण करना है न कि सत्य की रचना करना है। यह वह चेतना है जिसके द्वारा दैवीय सत्ता अपने सार और अभिव्यक्ति को जान पाती है।
चेतना दैवीय सार के साथ संगति में स्वचालित क्रिया को उत्पन्न करती है। अभिव्यक्त ब्रह्मांड में, यहां तक कि जब वह इस विश्व में कार्यरत होता है तब भी, वस्तु के द्विभाजन में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसका उदाहरण वह हो सकता है जब जब कोई पूर्ण स्वार्थ रहित प्रेम के प्रकाश में काम करता है, जहां पर आत्म किया और प्रेमी के बीच कोई भेद नहीं होता।
अधिमन, अतिमन और मानव मन के निम्नतर स्तरों के बीच एक प्रकार का पुल है। अधिमन-चेतना वस्तुओं की एकता को जानती है। किन्तु इसकी किया विचार विचारपूर्वक होती है, स्वचालित नहीं होती जैसी क़ि अतिमन चेतना में होती है। मन – अंतर्मन – का सत्य के साथ साक्षात् प्रत्यक्ष होता है। इसका सत्य के साथ आमना-सामना केवल प्रदीपन के क्षणों में होता है
न कि अतिमन की चेतना में, जो कि स्थिर व अपरिवर्तनीय है। प्रदीप्त मन और उच्चतर मन एक दूसरे के समान है। जबकि उच्चतर मन एकता की अस्थायी समझ है, इस तरह यह अभी भी अवधारणात्मक विचारों में आबद्ध है, वहां प्रदीप्त मन अधिक एकीकृत, अधिक मानसिक है।
सामान्य जागृत चैतन्य मनस् का स्तर है जो एकल व्यक्ति के परिपेक्ष्य में कार्य करता है और वस्तुओं की विविधता को मौलिक मानता है । वस्तुओं की विविधता वास्तविक है, परंतु मनस् का स्तर वस्तुओं के वास्तविक संयोजन को देख पाने में असमर्थ होता है। वस्तुतः मनस् संपूर्ण को नहीं जानता और अन्य सभी वस्तुओं के संबंध में अपनी वैयाक्तिकता को इसकी विशेषता के रूप में परिभाषित करने की गलती करता है।
‘आत्म’ वह है जो जीवन के सभी रूपों में ‘दैवीय सत्ता’ की विद्यमानता को प्रदर्षित करता है । यह व्यक्ति में और व्यक्ति के लिए इच्छाओं को उत्पन्न करता है, और इस प्रकार एक को संपूर्ण से अलग करता है। क्योंकि आत्म एक दैवीय प्रकाश है, वह व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान को सुगम बनाता है। ‘जीवन’ वह शक्ति है जो प्रत्येक सजीव, वस्तु, जन्तु, या वनस्पति को जीवन्त बनाती है। जड़त्व’ ब्रह्मांड का भौतिक उपादान है।
मानव जीवन का उद्देश्य अतिमानसिक चैतन्य की ओर आध्यात्मिक रूप से विकास करना है, और मनुष्य में सारी मानव जाति के लिए इस प्रक्रिया की सहायता करने या रोकने की क्षमता है। मनुष्य में सम्पूर्ण वस्तुतः जब व्यक्ति अधिमानसिक चैतन्य को प्राप्त करता है, अधिमन स्वयं को मानव चेतना के स्तर तक इस प्रकार लाता है कि वह व्यक्ति की आध्यात्मिक सिद्धि के परे जाता है।
जिस मार्ग से व्यक्ति दैवीय आत्म-अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में भाग लेता है, वह ‘समग्र योग’ के अभ्यास से प्राप्त होता है। समग्र योग’ आध्यात्मिक अभ्यास का जगत् की नित्य प्रति की गतिविधियों से एकीकरण है।
मनस् से जड़त्व तक के स्तर का संबंध आनुभविक जगत् से हैं। अतिमन से ऊपर के स्तर श्रेष्ठ और दिव्य है। अधिमन, माया के आवरण के कारण, जो कि मनस् व अतिमन को अलग करती है, इन दोनों के बीच मध्यस्थ है। अधिमन वेदांत के साक्षी–चैतन्य से मिलता-जुलता है। सत्ता से प्रारंभ होने वाले पहले तीन स्तर ब्रह्म की रचना करते है।
ब्रहम सच्चिदानंद है। ‘माया’ मनस् और अमिमन के बीच रहती है, और माया और अधिमन एक-दूसरे से संबंधित है।
मानव जीवन का लक्ष्य अधिमन से अतिमन की ओर और इसी प्रकार आगे के श्रेष्ठ स्तरों की ओर उठने वाले मार्ग का अनुसरण करना है। उच्चतर स्तरों पर असत्यता की संभावना बिल्कुल नहीं होती क्योंकि वहां और अज्ञान और चेतना अपृथक होते हैं। अधिमन जब—तब मनस् में कुछ महान तत्वों को भेजता है, जो कि मनस् द्वारा उत्तरदायी नहीं होता है।
जब मनुष्य अधिमन के स्तरों तक उठता है और उसके साथ एक हो जाता है, तो वह अतिमानव हो जाता है। अरविन्द का अतिमानव एक योगी है जिसने स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दिया है और उसके साथ एक हो रहा है। इसका नीत्यो के अतिमानव से कोई साम्य नहीं है। जा उच्चतर स्तरों तक उठ गये हैं, उनके लिए कोई विवाद या कलह नहीं होता। वहां पर बिना भेद के पूर्ण एकता होती है। ऐसा अनुभव ही एकग्र ज्ञान है।
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