उसने कहा था कहानी की समीक्षा कहानी के तत्वों के आधार पर कीजिए |
उसने कहा था कहानी की समीक्षा :– ‘उसने कहा था’ कहानी गुलेरीजी ने 1915 ई. में लिखी थी। इस कहानी की पृष्ठभूमि में प्रथम विश्वयुद्ध है, जिसे शुरू हुए अभी एक साल हुआ है। कहानी का मुख्य घटनाचक्र भारत से बाहर फ्रांस में घटित होता है, लेकिन कहानी का आरंभ अमृतसर से होता है। 1890 ई. के आसपास का अमृतसर।
कहानी के आरंभ में ही अमृतसर के तांगेवालों का लंबा खाका खींचा गया है। बाज़ार से गुजरते हुए तांगे वाले किस तरह की आवाजें लगाते हैं, किस तरह का व्यवहार करते हैं, इसका अत्यंत जीवंत और यथार्थपरक चित्र खींचा गया है।
उसने कहा था कहानी की समीक्षा
“यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती है। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमा वालिए, हट जा पुत्तां प्यारिए, हट जा लंबी उमर वालिए।”
उपर्युक्त अंश से स्पष्ट है कि अमृतसर का पंजाबी वातावरण आरंभ से ही कहानी पर छाया हुआ है। पात्रों की वेशभूषा, उनकी ज़बान, उनके मुहावरे और उनके व्यवहार में पंजाबीपन की स्पष्ट महक महसूस की जा सकती है।
उसके बालों और उसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख है’ (वेशभूषा) ‘वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ’ (पंजाब का घरेलू जीवन) ‘तेरी कुड़माई हो गई’ (भाषा) उसने कहा था के सभी पात्र पंजाबी हैं।
इसलिए उनकी भाषा और व्यवहार में पंजाबीपन का आना स्वाभाविक है। अगर, कहानीकार पात्रों की क्षेत्रीय पृष्ठभूमि की उपेक्षा करता तो उसमें वह बात नहीं आती जो कहानी में अब नज़र आती है। यानी कि इस पंजाबीपन के कारण कहानी के पात्र अधिक जीवंत और वास्तविक लगते हैं।
युद्ध के मैदान में भी उनका यह पंजाबीपन नहीं छूटता। पंजाब के लोग – विशेषतः सिख अपने साहस और चुलबुलेपन के लिए विख्यात हैं। यह विशेषताएँ हम लहनासिंह और अन्य पात्रों में भी देख सकते हैं।
‘वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदा पानी भरकर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला – “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण’। इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल छंट गये।”
कौन जानता था कि दाढ़ियों वाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खंदक गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानो चार दिन से सोते और मौज करते हों।’ उसने कहा था- कहानी का अधिकांश हिस्सा फ्रांस के युद्ध-मैदान से संबंधित है। कहानी में इतना अवसर नहीं था कि फ्रांस के परिवेश का चित्रण किया जाता, लेकिन कहानी में युद्ध के मोर्चे का वातावरण अवश्य प्रभावशाली ढंग से चित्रित हुआ
“अचानक आवाज़ आयी, “वाह गुरूजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा!” और धड़ाधड़ बंदूकों के फ़ायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।”
युद्ध के मोर्चे पर सिपाहियों के जीवन के कई रूप इस कहानी में देखने को मिलते हैं। खंदकों में लेटे-लेटे लड़ाई का इंतजार करते सैनिक, उनकी बातचीत, उनकी मनःस्थिति, भविष्य की उनकी योजनाएँ, सभी कुछ इस कहानी में व्यक्त हुए हैं। इसके बाद जब सचमुच युद्ध शुरू होता है, उस वातावरण का भी गुलेरीजी ने अत्यंत प्रभावशाली चित्रण किया है।
लेकिन कहानी में लहनासिंह की बदलती मनःस्थितियों का चित्रण करने में लेखक को विशेष सफलता मिली है। आरंभ में बालिका (सूबेदारनी) के साथ उसकी छेड़छाड़, उसके बाद बालिका की सगाई का सुनकर उसकी प्रतिक्रिया। यहाँ लेखक बजाए अपनी ओर से टिप्पणी देने के, लहनासिंह की तत्काल की गई प्रतिक्रियाओं से ही उसकी मनःस्थिति व्यक्त कर देता है।
‘रास्ते में लड़के को मारी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभी वाले ठेले में दूध उँडेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि पाई, तब कहीं घर पहुंचा।
इसी तरह युद्ध के मोर्चे पर उसका उत्साह, उसका साहस, उसकी समझदारी यानी उसकी मनःस्थिति और उनमें आते बदलाव का चित्रण करने में गुलेरीजी सफल रहे हैं। अंत में, जब लहनासिंह घायल अवस्था में लेटा हुआ अपने अतीत को याद करता है एक ओर उसे सूबेदारनी की कही बातें याद आती हैं तो दूसरी ओर उसे अपना घर-गाँव याद आता है।
धीरे-धीरे उसकी चेतना लुप्त होने लगती है और वह वजीरासिंह को ही कीरतसिंह समझकर अपने बाग-बगीचे की बात बड़बड़ाने लगता है- वही किसानी सपना जिसे देखते-देखते वह मर जाता है।
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