बहुत बड़ा सवाल का सारांश | मोहन राकेश |
बहुत बड़ा सवाल का सारांश :– इस एकांकी में कथा और घटनाओं का नितांत अभाव है। इसमें लो ग्रेड वर्कर्स वेलफेयर सोसाइटी की एक बैठक को विषय बनाया गया है। बैठक की एक महत्वपूर्ण औपचारिकता को नज़रदाज करते हुए उसके एजेडे से भी सदस्यों को पहले से अवगत नहीं कराया गया है।
बैठक की व्यवस्था स्कूल के एक छोटे से कमरे में की गयी है, जिसमें ब्लैक बोर्ड को हटाकर कोने में रख दिया गया है। इसमें अध्यक्ष के लिए मास्टर की कुर्सीमेज और सदस्यों के लिए बच्चों के डेस्क की व्यवस्था है।
पर्दा उठने के बाद रोज़मर्रा के एकरस कामों से ऊबे हुए राम भरोसे और श्याम भरोसे कुर्सी-मेज़ और डेस्कों से धूल झाड़ते हुए दिखाए गए हैं। श्याम भरोसे की शिकायत पर कि इतनी धूल क्यों उड़ाता है, राम भरोसे जबाव देता है :
बहुत बड़ा सवाल का सारांश
राम भरोसे .. ससुर रोज़-रोज़ मीटिंग होंगी, तो किसकी जान रहेगी? आज एक का जन्म-दिवस होकर निकलता है तो कल दूसरे का मरन-दिवस। जनमेंमरें ये, धूल खाएँ राम भरोसे, श्याम भरोसे (जोर-जोर से झाड़ता हुआ) सबेरे निकालो, तो शाम को चली आती है। शाम को निकालो, तो सबेरा नहीं होने देती।
श्याम भरोसे : आज भी किसी का जनम-दिवस है क्या?
राम भरोसे : पता नहीं, कौन दिवस है? अपना तो मरन-दिवस है।
इसे बैठक की निरर्थकता का पूर्वाभास माना जा सकता है, जिसे समय पर उपस्थित होकर संगठन का सेक्रेटरी शर्मा और अधिक गहरा बना देता है। ‘लोग समझते हैं, मेरे बाप के घर का काम है। कोई एक आदमी वक़्त से नहीं आता।’
कुछ सदस्यों के आने पर भी बैठक के बारे में कोई बात न होकर आपस में नोक-झोंक, एक-दूसरे पर छींटाकशी, अनुपस्थित अध्यक्ष के चरित्र पर लांछन आदि को लेकर बहस चलती है, चाय और मूंगफली का दौर चलता है। एकांकी का एक तिहाई भाग इन्हीं निरर्थक बातों में उलझ कर रह जाता है।
संगठन के अध्यक्ष की अनुपस्थिति में एक साधारण सदस्य कपूर को अध्यक्ष बनाकर बैठक आरंभ करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन भाईयों और बहनों’ के संबोधन पर आपत्ति की जाती है, जिस पर लम्बी बहस चलती है। ‘लेडीज़ एंड जेंटलमेन’ की तर्ज़ पर ‘बहिनो और भाइयों को सही संबोधन स्वीकर कर लेने पर भी कार्यवाही चल नहीं पाती। संबोधन पर इस तरह की आपत्ति और उसके पक्ष-विपक्ष का समर्थन संगठन के सदस्यों की अगंभीरता का परिचायक है।
ले-देकर जब सेक्रेटरी द्वारा कार्यवाही का आरंभ होता है, तो मूल प्रस्ताव के पूर्व भूमिका के रूप में लम्बे, उबाऊ, असम्बद्ध और अनर्गल भाषण पर बीच में रोक-टोक, टीका-टिप्पणी होती रहती है। किसी प्रकार यह उबाऊ धंधा खत्म होता है और पारित होने के लिए प्रस्ताव पढ़ने की बात आती है, तो प्रस्ताव ही सेक्रेटरी की फाइल से गायब हो जाता है।
उसे कभी पतलून की जेब में, कभी कोट की जेब में यहाँ तक कि गुरप्रीत के बटुवे में होने की बात कही जाती है। अंततः वह मिलता है, सफाई के बाद इकट्ठा किए गए कूड़े में। प्रस्ताव के प्रारुप का पहला, किंतु अधूरा वाक्य है, “हम, लो ग्रेड वर्कर्स वेल्फेयर सोसाइटी के सभी सदस्य….’वाक्य पूरा भी नहीं हो पाता तब तक संशोधन के रूप में दो आपत्तियाँ इस प्रकार उपस्थित की जाती हैं :
संतोष :— मुझे आपत्ति है। जब प्रस्ताव हिदीं में है तो संस्था का नाम भी हिंदी में होना चाहिए। :
दीनदयाल मुझे भी आपत्ति है। जब सब सदस्य यहाँ उपस्थित नहीं हैं, तो प्रस्ताव में सब सदस्यों का उल्लेख कैसे किया जा सकता है। :
इन दोनों संशोधनों का समर्थन भी दो सदस्य कर देते हैं। संतोष के यह कहने पर कि जब संस्था का प्रस्ताव हिंदी में है तब उसका अंग्रेज़ी में नाम होना राष्ट्र भाषा का अपमान है, तो हिंदी में सही नाम की खोज शुरू हो जाती है।
बहुत वाद-विवाद के बाद दोनों संशोधनों को स्वीकार करते हुए प्रस्ताव पढ़ा जाता है। प्रस्ताव में प्रयुक्त तीन स्थानों पर निम्नस्तर’ शब्द को लेकर लम्बी बहस छिड़ जाती है, जिसका अर्थ जानने के लिए अध्यक्ष द्वारा डिक्शनरी की खोज और संतोष से स्पष्टीकरण की मांग की जाती है।
बहस को लम्बा खिंचते देख और पक्ष-विपक्ष में मतदान की स्थिति में बहत से सदस्य खिसक जाते हैं। अंततः कोरम के अभाव में अध्यक्ष द्वारा मीटिंग बरखास्त कर दी जाती है। बैठक के बाद श्याम मरोसे द्वारा यह पुणे जाने पर कि बाबू लोग क्या पास कर गए तो राम भरोसे कहता है, ‘पास कर गए कि राम भरोसे, राम भरोसे के घर में रहेगा, श्याम भरोसे श्याम भरोसे के घर में। और बाबू लोग अपने-अपने घर में रहेंगे। यह कथन बैठक की निरर्थकता को पूरी तरह उद्घाटित करता है।
एकांकी बहुत बड़ा सवाल का चरित्र-विधान
यहाँ आप एकांकी के चरित्र-विधान का अध्ययन करने जा रहे है। पात्रों का चरित्र-चित्रण कहानी की भाँति ही एकांकी का भी एक महत्वपूर्ण तत्व माना गया है। कथा-तत्व की न्यूनता और घटनाओं के अभाव में यह एकांकी पात्रों का एक अपायब घर बनकर रह गया है।
राम भरोसे और श्याम भरोसे को छोड़ कर किसी भी पात्र में जीवतंता की वास्तविक हरकत दिखाई नहीं देती। शर्मा मंच पर पहुंचते ही अपनी अहंवादी अनुदारता का परिचय राम भरोसे और श्याम भरोसे के प्रति व्यवहार द्वारा दे देता है।
यही स्थिति मनोरमा और संतोष की भी है, जो मंच पर पहुँचते ही अपने छिछलेपन और अवसरवादी प्रकृति का परिचय दे देती हैं। गुरप्रीत ही ऐसी पात्र है, जो एकांकी में अंत तक अपनी शालीनता का परिचय देती है। वह एक ओर मीटिंग के लिए चिंतित दिखाई देती है।
तो दूसरी ओर अन्य सदस्यों द्वारा परनिंदा और दूसरों पर कटाक्ष के प्रति अपना असंतोष व्यक्त करती है। वह प्रायः ‘फ्लीज’ या ‘प्लीज़! प्लीज़! प्लीज़!’ और ‘दिस इज टूमच’ जैसे शब्दों, वाक्यांशों के माध्यम से ही अपना विरोध प्रकट करती है।
अनुपस्थित अध्यक्ष के चरित्र हनन से संबंधित वार्तालाप से अत्यंत खिन्न होकर ही उसने दो वाक्य बोले हैं, “मैं इसी लिए आप लोगों की मीटिंग में नहीं आना चाहती थी। यहाँ काम तो कुछ होता नहीं, बस इसी तरह की बातें होती रहती हैं। इस प्रकार की बातों से तंग आकर वह सेक्रेटरी शर्मा से पूछती है, ‘मैं जान सकती हूँ, मीटिंग कब शुरू होगी?” मुझे आज मीटिंग होती नहीं दिखाई देती। मीटिंग को असफल होते देख वह सबसे पहले वहाँ से चली जाती है।
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