जार्ज ग्रियर्सन ने भक्ति आंदोलन पर विचार करते हुए लिखा था कि इसका आगमन ‘बिजली की चमक के समान अचानक’ हुआ था। लेकिन हम बता चुके हैं कि भक्ति आंदोलन का आरंभ कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। 14वीं-15वीं सदी में भक्ति आंदोलन के जन्म से पहले ही दक्षिण में भक्ति का व्यापक प्रसार हो चुका था। यह सही है कि भक्ति आंदोलन का उदय तत्कालीन परिस्थितियों की देन था, लेकिन इस पर विभिन्न धार्मिक मतों के प्रभाव से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
भक्ति आंदोलन 14वीं से 17वीं के बीच विद्यमान रहा है। इसमें कई धाराएँ और उप-धाराएँ रही हैं। हम इनका अध्ययन आगे करेंगे। इससे पहले हमें भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताओं का अध्ययन अवश्य कर लेना चाहिए ताकि हम इस बात को अच्छी तरह समझ सकें कि भक्ति काव्य की सामान्य आधारभूमि क्या है।
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भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ
भक्ति के स्वरूप पर विचार करते हुए हमने बताया था कि ईश्वर की उपासना के क्षेत्र में भक्ति का क्या महत्व है। भक्ति आंदोलन पर विचार करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने निम्नलिखित सामान्य विशेषताओं का उल्लेख किया है :
प्रेम ही परम पुरुषार्थ है, मोक्ष नहीं।
भगवान के प्रति प्रेम कौलीन्य से बड़ी चीज है।
भक्त भगवान से भी बड़ा है।
भक्ति के बिना शास्त्र-ज्ञान और पांडित्य व्यर्थ है।
नाम रूप से भी बढ़कर है।
अगर भक्ति की इन विशेषताओं पर विचार करें तो हम समझ सकते हैं कि भक्ति के मार्ग में जाति-पाँति, शास्त्र ज्ञान, आचार-विचार आदि का कोई महत्व नहीं था। ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम और उसके नाम का स्मरण यही सबसे महत्वपूर्ण तत्व थे, जो भक्ति काव्य के आधार बने। सगुण-निर्गुण तथा राम और कृष्ण का लीला गान आदि बातें इसी के बाद आती हैं। उपर्युक्त बातों के आधार पर हम भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ बता सकते हैं, जो संपूर्ण भक्ति काव्य पर लागू की जा सकती हैं।
1. ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम
ईश्वर के प्रति तीव्र प्रेम का अनुभव करना ही भक्त की पहचान है। हम सभी भक्त कवियों में इस विशेषता को समान रूप से पा सकते हैं। चाहे वे निर्गुण को मानते हों या सगुण को, चाहे वे राम की उपासना करते हों या कृष्ण की। अपने आराध्य के प्रति गहरी अनुरक्ति और उसको पाने की लालसा, उनमें समान रूप से मिलती हैं। कबीर कहते हैं :
आँखड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि।।
इसी तरह मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ में प्रेम तत्व को ही प्रधानता दी है। मीरा तो अपने को प्रेम दिवानी कहती ही हैं। सूर और तुलसी का संपूर्ण साहित्य ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम का ही परिणाम है। तुलसी कहते हैं :—
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास ।
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास ।।
2. समानता का भाव
भक्ति के मार्ग में सांसारिक भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। इस बात को सभी भक्त कवियों ने स्वीकार किया है। तुलसीदास जो वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करते हैं, भक्ति के क्षेत्र में किसी तरह के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते इसीलिए उनके राम शबरी के झूठे बेर खा लेते हैं और निषादराज को अपने भाई भरत के समान प्रिय बताते हैं। सूरदास की गोपियाँ भी प्रेम के मार्ग में विधि-निषेधों को स्वीकार नहीं करतीं? कबीर आदि निर्गुण कवियों ने तो जाति-पाँति का विरोध दृढ़तापूर्वक किया है।
3. गुरु महिमा
ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम भक्ति की केन्द्रीय विशेषता है लेकिन भक्त कवियों ने ईश्वर से भी बड़ा उस गुरु को माना है जिसने ईश्वर के साक्षात् रूप से उनका परिचय कराया है। इसीलिए कबीर गुरु को गोविंद से बड़ा मानते हैं। वे कहते हैं :
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागों पाँय ।
बलिहारी वा गुरु की जिन गोविंद दिया दिखाय।।
जायसी के ‘पद्मावत’ में भी सुआ राजा रत्नसेन को पद्मावती के रूप में सौंदर्य से परिचित कराता है। रत्नसेन आत्मा, पद्मावती परमात्मा और सुआ गुरु का प्रतीक है। तुलसीदास ने ‘मानस‘ के आरंभ में ही गुरु की वंदना करते हुए कहा है : बंदी गुरु पद कंज, पा सिंधु नर रूप हरि।। कहने का तात्पर्य यही है कि प्रायः सभी भक्त कवि गुरु के महत्व को स्वीकार करते हैं। ।
4. शास्त्र-ज्ञान की अनावश्यकता
भक्त कवियों ने शास्त्र ज्ञान और पांडित्य को भक्ति के लिए आवश्यक नहीं माना है बल्कि कभी-कभी तो इन्हें भक्ति के मार्ग की बाधा ही स्वीकार किया है। कबीर इसीलिए कहते हैं कि ‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोई।’
सूरदास की गोपियाँ उद्धव के शास्त्र-ज्ञान का मजाक उड़ाती हैं “आयो घोष बड़ो व्योपारी/लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी।” तुलसीदास ने भी बार-बार इस बात को दोहराया है कि शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा ईश्वर की पा अधिक महत्वपूर्ण है। उसी की कृपा से अज्ञानी और पापी भी भवसागर पार हो जाते हैं।
5. नाम-महिमा
भक्ति के जिन नौ साधनों का ऊपर वर्णन किया गया है उनमें स्मरण कीर्तन और श्रवण का संबंध नाम-महिमा से ही है। भक्त कवियों ने राम के नाम को राम से भी बढ़कर माना है। कबीर कहते हैं ‘राम नाँव ततसार है’।
वे यह भी कहते हैं कि ‘कबीर सुमिरण सार है और सकल जंजाल’ इसी प्रकार तुलसीदास ने ‘विनय पत्रिका’ के कई पदों में ऐसे भक्तों का बार-बार उदाहरण दिया है जिन्होंने नाम स्मरण के बल पर प्रभु की कृपा प्राप्त की। ‘रामचरित मानस’ में उन्होंने कलिकाल में कल्याण का सबसे बड़ा साधन राम से भी बढ़कर उनके नाम को माना है।
6. अहंकार का त्याग
भक्त कवियों में यह विशेषता भी समान रूप से पाई जाती है। कबीरदास इसीलिए कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ और मोती मेरा नाम है। मेरे गले में राम नाम का पट्टा बंधा है, वह जिधर खींचता है, मैं उधर ही जाता हूँ। सूरदास के विनय संबंधी पदों में भी हम ऐसा ही समर्पण और दैन्य भाव पाते हैं। तुलसी ने तो बार-बार कहा है कि
राम सो बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो ?
राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो ?
7. लोक जीवन से जुड़ाव
भक्त कवि किसी राजा या बादशाह के दरबारी कवि नहीं थे। इनमें से कई तो कोई न कोई व्यवसाय करते थे। कबीर पेशे से जुलाहा थे, रैदास चर्मकार । तुलसीदास कथावाचक थे। तुलसीदास ने तो स्पष्ट रूप से लिखा था कि जो कवि प्राकृत जनों राजा-महाराजा का गुणगान करता है।
उसकी कविता पर सरस्वती अपना सिर धुनकर पछताती है। वस्तुतः भक्त कवियों ने राम को ही अपना राजा समझा और सामान्य जनता के बीच ही अपनी कविता ले गए। इस तरह उनकी कविता में लोक जीवन का समावेश हुआ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि भक्त कवियों में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो सभी में समान रूप से मिलती हैं। भक्ति का मार्ग ईश्वर की आराधना का सरल, सहज और सर्वसुलभ मार्ग था। इस मार्ग में छोटे-बड़े और ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं था।
यहाँ शास्त्रीय ज्ञान और कठोर साधना की आवश्यकता नहीं थी केवल प्रभु के प्रति गहरा प्रेम और आत्मसमर्पण ही पर्याप्त था। इसलिए इस काव्य को इतनी लोकप्रियता प्राप्त हुई। लेकिन इस काव्य में कई धाराएँ अंतर्निहित थीं। भक्ति काव्य की अब तक बताई गई सामान्य विशेषताओं के अतिरिक्त धाराओं की अपनी विशेषताएँ थीं, जिनके कारण उनकी अपनी अलग पहचान बनी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्त कवियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया है।
एक हैं निर्गुण भक्त कवि और दूसरे हैं सगुण भक्त कवि। इसी आधार पर उन्होंने भक्ति काव्य को भी निर्गुण भक्ति काव्य और सगुण भक्ति काव्य नामक भेदों में विभाजित किया। कबीर, जायसी, रैदास, नानक, दादूदयाल आदि को निर्गुण काव्य धारा में और सूरदास, नंददास, तुलसीदास आदि को सगुण काव्य धारा में सम्मिलित किया है। निर्गुण काव्य धारा और सगुण काव्य धारा में मूलभूत अंतर यह है कि निर्गुण कवि ईश्वर को निर्गुण (यानी सांसारिक गुणों से रहित या उनसे ऊपर), निराकार (रूप और आकार से रहित अर्थात् वह कोई रूप धारण नहीं करता) मानते हैं
जबकि सगुण कवि ईश्वर को सगुण (अर्थात् सभी गुणों से युक्त परंतु उनसे परे भी), साकार (अर्थात् ईश्वर कोई भी रूप धारण करने में सक्षम और इस नाम रूपतामक जगत में रूप धारण करके अवतरित होता है)। ईश्वर की परिकल्पना का यह अंतर मामूली बात नहीं है। इसी कारण इन दोनों के काव्य की विषय वस्तु में अंतर आया है और जीवन और जगत संबंधी उनके दृष्टिकोण में भी अंतर दिखाई देता है।
निर्गुण भक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ
निर्गुण निराकार ईश्वर में विश्वास :–ईश्वर को निर्गुण निराकार मानना निर्गुण भक्ति काव्य की आधारभूत विशेषता है। निर्गुणपंथी अवतारवाद में विश्वास नहीं करते। उनका दृढ़ मत है कि ईश्वर निर्गुण और निराकार है। वह समस्त सृष्टि में व्याप्त है, लेकिन वह मनुष्य या अन्य प्राणी का रूप धारण नहीं करता। ईश्वर निर्गुण निरकार है, इसलिए उसकी मूर्ति बनाकर पूजा करना गलत है। समस्त सृष्टि उसी की रचना है इसलिए भी उसकी मूर्ति बनाना या मंदिर बनाना व्यर्थ है।
लौकिक प्रेम द्वारा आध्यात्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति : निर्गुण पंथी भक्त कवियों ने ईश्वर को निर्गुण निराकार तो माना, किंतु उसकी उपासना का भी एक मार्ग ढूँढ लिया। उन्होंने भक्ति की उपासना का मार्ग योग और गुह्य साधना-पद्धति में खोजा था। नाथ और सिद्ध इसी परंपरा में आते हैं। साधना का यह मार्ग सामान्य जनता को आकृष्ट नहीं कर सका।
कबीर आदि संतों ने ईश्वर के प्रति अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए लौकिक संबंधों को आधार बनाया। कबीर ने ईश्वर को अपना ‘भरतार’ और स्वयं को उसकी ‘दुलहिन’ माना। इसी प्रकार सूफी कवियों ने लौकिक प्रेम कथाओं के माध्यम से ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्ति दी।
धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक कुरीतियों का विरोध
निर्गुणपंथी केवल ईश्वर प्रेम में लीन रहने वाले भक्त नहीं थे। उन्हें ईश्वर की बनाई इस सृष्टि से भी उतना ही प्रेम था। इसीलिए उन्होंने इसमें व्याप्त बुराइयों और अनाचारों का विरोध किया। उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों और कर्मकांडों को माया कहा। उनके अनुसार यह विश्वास करना कि काशी में मरने से स्वर्ग मिलेगा, या गंगा में नहाने से पुण्य होता है, केवल मन का भ्रम है। ईश्वर और जीव तो जल और बर्फ की तरह है, दोनों में कोई मूलभूत अंतर नहीं है।
पांणी ही तैं हिम भया, हिम वै गया बिलाइ।
जे कुछ था सोई भया, अब कछू कहया न जाइ ।।
जाति प्रथा का विरोध एवं हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन
जीव और ईश्वर की एकता के कारण ही निर्गुण पंथी जाति-पाँति और ऊँच-नीच के भेद में विश्वास नहीं करते थे। कबीर और अन्य संत कवियों ने बार-बार इस बात को दोहराया है कि ब्राह्मण और शूद्र (कबीर के युगीन संदर्भ में) एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें भेद करना गलत है। ‘एक जोति थें सब उपजा कौन ब्राह्मन कौन सूदा’ ।
निर्गुण पंथी जाति के भेद को तो अस्वीकार करते ही थे, हिंदू और मुस्लिम के बीच भी कोई फर्क नहीं करते थे। कबीर, नानक आदि ने हिंदू मुस्लिम एकता पर विशेष रूप से बल दिया। कबीर ने हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मों में व्याप्त अंधविश्वासों पर चोट की। दूसरी ओर मलिक मुहम्मद जायसी, मंझन, कुतुबन आदि सूफी कवियों ने हिंदू लोक कथाओं को अपनाकर अपनी सहिष्णुता और उदारता का परिचय दिया।
रहस्यवाद का प्रभाव
निर्गुण काव्य धारा की एक महत्वपूर्ण विशेषता है, उसका रहस्यवाद । सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में ईश्वर की परोक्ष सत्ता का आभास पाना, उनसे अपना संबंध जोड़ना और उस सत्ता के साथ अपने को एकाकार महसूस करना ही रहस्यवाद है।
शुक्लजी ने रहस्यवाद को दो प्रकार का बताया है- भावात्मक रहस्यवाद और साधनात्मक रहस्यवाद । भावात्मक रहस्यवाद में जीव ईश्वर के प्रति गहन प्रमानुभूति महसूस करता है। जायसी के यहाँ इसी भावात्मक रहस्यवाद को देखा जा सकता है। कबीर भी जब अपने को ‘राम की बहुरिया’ मानकर ईश्वर के प्रति गहरी विरह भावना को व्यक्त करते हैं तो यह भावात्मक रहस्यवाद ही है। लेकिन साधनात्मक रहस्यवाद में योग की साधना पद्धति का सहारा लिया जाता है। कबीर के यहाँ इस साधनात्मक रहस्यवाद का प्रभाव अधिक दिखाई देता है।
निर्गुण भक्ति काव्यधारा पर नाथों
सिद्धों, सूफीमत, अद्वैतवाद और वैष्णव भक्ति का प्रभाव था। निर्गुण काव्यधारा ने इन सभी को अपनाया और इन्हीं में से अपना रास्ता निकाला। नाथों और सिद्धों की परंपरा से उन्होंने धार्मिक पाखंड का खंडन और जाति-पाँति का विरोध किया। उन्होंने योग-साधना की पद्धति का प्रभाव भी इन्हीं से ग्रहण किया। सूफी मत से उन्होंने प्रेम तत्व प्राप्त किया।
सूफी काव्य का तो यह आधार था ही। उन पर ईश्वर के स्वरूप और माया के सिद्धांत का प्रभाव अद्वैतवाद के कारण था। वैष्णव परंपरा से उन्होंने अहंकार का त्याग, ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम और ‘राम’ नाम का आधार लिया। इस प्रकार निर्गुण काव्य धारा विभिन्न परंपराओं का समागम है।
निर्गुण काव्य धारा को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दो शाखाओं में विभाजित किया है – कबीर आदि संतों की ज्ञानाश्रयी शाखा और जायसी आदि सूफी कवियों की प्रेममार्गी भााखा । इनका अध्ययन हम आगे करेंगे।
सगुण भक्ति काव्य की सामानय विशेषताएँ
ईश्वर के सगुण और साकार रूप में विश्वास करने वाले भक्त कवियों के काव्य को सगुण काव्यधारा नाम दिया गया। हमने पहले इस बात पर विचार किया था कि आद्यशंकराचार्य के मत ने उपासना के क्षेत्र में भक्ति के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया था। शंकराचार्य के सिद्धांत ‘अद्वैतवाद’ के अनुसार ‘ईश्वर ही सत्य है, जगत मिथ्या है। माया के कारण ही मनुश्य संसार को सच मानता है।
भांकराचार्य के अनुसार केवल ब्रहम ही सत्य है इसलिए आत्मा भी ब्रह्म ही है। ऐसी स्थिति में भक्ति संभव नहीं है क्योंकि भक्ति के लिए भक्त और भगवान के बीच किसी न किसी रूप में भेद की चेतना होना आवश्यक है। यही कारण है कि रामानुजाचार्य ने जीव, जगत और ईश्वर के संबंधों को लेकर एक नया दार्शनिक मत प्रस्तुत किया।
रामानुज (11वीं शती) के अनुसार जीव, जगत और ईश्वर के बीच उसी तरह का संबंध है जिस तरह का संबंध भारीर और उसके अंगों के बीच होता है। जिस प्रकार शरीर के अंग शरीर से भिन्न भी हैं और भाररीर से एकाकार भी, उसी तरह जीव भी ईश्वर से अलग भी है और उसका अंग भी। इस प्रकार, रामानुज भी जीव और ईश्वर के बीच अद्वैतता (दो का निषेध) मानते हैं लेकिन यह विशिष्ट किस्म की अद्वैतता हे। इसीलिए रामानुज के सिद्धांत को ‘विशिष्टाद्वैत’ कहा जाता है। रामानुज माया की सत्ता को भी स्वीकार नहीं करते।
रामानुज का मानना है कि जीव ब्रहम से उत्पन्न होकर उसी में लीन हो जाता है। जीव अपने अंगी रूप ब्रह्म को प्राप्त करना चाहता है। भक्ति उसकी इसी इच्छा की पूर्ति का मार्ग है। इस सिद्धांत में ईश्वर की सगुण रूप में कल्पना की गई है। दास्य भाव की भक्ति को आदर्श भक्ति माना गया है। कबीर के गुरु रामानंद रामानुज की ही परंपरा से संबद्ध थे।
भक्ति काव्य का शिल्प विधान
भक्ति काव्य विषय-वस्तु की दृष्टि से ही नहीं, वरन् काव्य-कला की दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध है। भक्त कवियों ने काव्य की रचना यश या अर्थ कमाने या काव्य कला के प्रदर्शन के लिए नहीं की थी। वे तो कविताओं द्वारा ईश्वर के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को ही व्यक्त कर रहे थे। उनके काव्य में रस, छंद, अलंकार आदि का प्रयोग मिलेगा, लेकिन कवियों का प्रयोजन इन्हीं तक सीमित नहीं था।
भक्त कवि तो यह चाहते थे कि अपनी भावनाओं को ऐसे काव्य रूप में प्रस्तुत करें जो सभी को सहज ही समझ में आ जाए। वे दरबारी कवि नहीं थे। उन्होंने किसी राजा के मनोरंजन के लिए काव्य की रचना नहीं की थी।
उनका उद्देश्य अपनी भक्ति भावनाओं को प्रस्तुत करना और ईश्वरीय लीलाओं का गायन करना था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि ये कवि काव्य कला से अनभिज्ञ थे। इन कवियों के काव्य की विविधता यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि कबीर जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी भक्त कवि न केवल अपने समय में प्रचलित काव्य रूपों और काव्य उपकरणों से परिचित थे, बल्कि यथावसर उनका उपयोग करने में भी सिद्धहस्त थे। भक्त कवियों ने प्रबंध काव्य भी लिखे हैं और मुक्तक भी।
उन्होंने दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि अनगिनत छंदों का प्रयोग किया है। भाषा की दृष्टि से अवधी और ब्रज जो उस समय हिंदी क्षेत्र में प्रचलित साहित्यिक भाषाएँ थीं, का प्रयोग तो मिलता ही है, कबीर आदि संत कवियों ने एक मिली-जुली सधुक्कड़ी भाषा का भी प्रयोग किया।
काव्य भाषा
भक्त कवियों ने सामान्य जनता में प्रचलित लोकभाषाओं का प्रयोग किया। कबीर आदि संत कवियों ने जिस भाषा का प्रयोग किया उसमें किसी एक बोली का ही प्रभाव नहीं था। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी कहा जाता है। सधुक्कड़ी अर्थात् साधुओं के बीच प्रचलित भाषा। इस भाषा के अतिरिक्त ब्रज और अवधी भक्ति काल की अन्य प्रमुख भाषाएँ हैं। सूफी काव्य और सगुण भक्ति काव्य इन्हीं भाषाओं में रचा गया है। अवधी का प्रयोग प्रायः प्रबंध काव्यों की रचना के लिए किया गया।
मलिक मोहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’ तथा अन्य सूफी कवियों के प्रबंध काव्य अवधी भाषा में है। गोस्वामी तुलसीदास विरचित ‘रामचरित मानस’ अवधी भाषा में है। सूफी कवियों में अवधी का ठेठ रूप मिलता है। उनमें लोक में प्रचलित अवधी का अधिक प्रभाव है जबकि तुलसीदास के यहाँ अवधी अधिक परिष्कृत और संस्कृतनिष्ठ है।
ब्रज भाषा का प्रयोग प्रायः
मुक्तकों और गीतों की रचना के लिए किया गया है। इस युग में प्रायः संपूर्ण कृष्ण भक्ति काव्य ब्रज भाषा में ही लिखा गया है। इसका प्रयोग सूरदास, नंददास आदि कृष्ण भक्त कवियों के यहाँ तो मिलता ही है, तुलसीदास ने भी गीतों और मुक्तकों के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। गीतावली, कृष्ण गीतावली जैसे ग्रंथ इसी भाषा में रचे गए हैं।
भक्त कवियों ने इन भाषाओं को परिनिष्ठित रूप तो दिया, लेकिन इनमें निहित लोक तत्व को नष्ट नहीं होने दिया। भक्त कवियों की भाषा में लोक जीवन से लिए गए उपमान, मुहावरे और शब्द प्रयोग मिलते हैं। इन्हीं के बीच संस्कृत परंपरा के शब्द प्रयोग भी आ जाते हैं। भाषा के संबंध में इन भक्त कवियों की दृष्टि उदार थी। जहाँ आवश्यक हुआ, वहाँ उन्होंने अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी किया। इन कवियों ने अपनी भाषा को विषय के अनुरूप ढाला। भक्त कवियों की भाषा में माधुर्य, ओज और प्रसाद तीनों गुण मिलते हैं। भाषा पर कवियों का जबर्दस्त अधिकार था। भाषा उनके भावों और विचारों की अनुगामिनी थी। उन्होंने आवश्यकतानुसार तीनों शब्द शक्तियों, अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग किया।
काव्य रूप
भक्त कवियों ने काव्य रचना के लिए प्रबंध और मुक्तक दोनों तरह के काव्य रूपों का प्रयोग किया है। महाकाव्य प्रबंध काव्य का एक रूप है भक्तिकाव्य के अंतर्गत कई महाकाव्य लिखे गए जिनमें जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ और तुलसीदास कृत ‘रामचरित मानस’ उल्लेखनीय हैं। भक्ति काव्य का एक बड़ा हिस्सा मुक्तक काव्य के रूप में रचा गया है। एक तरह के मुक्तक काव्य में कवि ने ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति को वाणी दी है।
कबीर के विरह संबंधी पद, तुलसी के विनय संबंधी पद तथा मीरा के पद इसी श्रेणी में आते हैं। दूसरी तरह के मुक्तकों में कवि ने ईश्वरीय लीलाओं का वर्णन किया है। सूरदास की रचनाएँ गीतावली, कवितावली आदि काव्य ग्रंथों में तुलसीदास ने इसी तरह के पद रचे हैं। तीसरी तरह के मुक्तक पदों में कवि के विचार पक्ष को अभिव्यक्ति मिली है। कबीर के पदों में धर्म और समाज की आलोचना इसी श्रेणी में आती है।
छंद विधान
भक्ति काव्य में प्रायः उन सभी छंदों का प्रयोग किया गया जो उस समय प्रचलित थे। महाकाव्य के लिए दोहा और चौपाई छंदों का प्रयोग किया गया। ‘पद्मावत’ में सात चौपाई के बाद एक दोहा प्रयुक्त हुआ है जबकि ‘रामचरित मानस’ में आठ चौपाई के बाद एक दोहे का प्रयोग किया गया है। ‘मानस’में तुलसीदास ने सोरठा, छप्पय आदि छंदों का भी प्रयोग किया है।
मुक्तक काव्य के लिए प्रयुक्त छंदों में अधिक विविधता पाई जाती है। कबीरदास ने दोहाचौपाई तथा गेय पदों का प्रयोग किया है। सूरदास ने ‘सूरसागर’ में गेय पदों का ही अधिक प्रयोग किया है। इन गेय पदों में दोहा, चौपाई, रोला, छप्पय, सवैया, घनाक्षरी, हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग मिलता है। तुलसीदास ने पद, कवित्त, सवैया, छप्पय, सोरठा तथा अन्य कई छंदों का प्रयोग किया है। इस प्रकार, हम पाते हैं कि भक्ति काव्य में छंद की दृष्टि से अधिक विविधता और व्यापकता पाई जाती है।
भक्ति काव्य की एक प्रमुख विशेषता है, उसकी गेयता। प्रायः सभी भक्त कवियों ने गेय पदों की रचना की हैं, जो विभिन्न राग-रागनियों पर आधारित हैं। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा आदि भक्त कवियों के पद अपनी गेयता के कारण जन-जन के कंठहार बन गए थे और आज भी वे उतने ही लोकप्रिय हैं।
अलंकार
भक्त कवियों ने अलंकारों का प्रयोग काव्य का अर्थगत सौंदर्य बढ़ाने के लिए किया है। उनके यहाँ अलंकार सहज ही चले आते हैं। प्रायः उन्होंने सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग किया है। कबीर की रचनाओं में उपमा और रूपक अलंकार का अधिक प्रयोग हुआ है। कबीर ने इनका प्रयोग अपने भावों को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए किया है। जायसी के यहाँ भी सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग अधिक हुआ है। इनमें भी उपमा, है रूपक और उत्प्रेक्षा का व्यवहार अधिक मिलता है।
सूरदास के यहाँ भी उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का अधिक प्रयोग हुआ है। सांगरूपक में तो सूरदास और तुलसीदास विशेष सिद्धहस्त हैं। कृष्ण की लीलाओं से संबंधित कई पदों में स्वभावोक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है। तुलसीदास ने भी सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग अधिक किया है।
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