मीरा को आधुनिक स्त्री क्यों कहा जा सकता है? मीरा ने कौन-कौन से स्वतंत्र निर्णय लिए ?
मीरा को आधुनिक स्त्री :– साहित्य समाज का दर्पण है। जब वह युगीन यथार्थ को प्रतिबिंबित करता है तो उसका लक्ष्य दोहरा होता है। एक लक्ष्य है युगीन विकृतियों, विसंगतियों और रुग्णताओं को विश्लेषण का विषय बना कर उनके निवारण हेतु समुचित समाधान खोजना।
दूसरा, अपने अनुभव-सत्य से गुजर कर बेहतर भविष्य के निर्माण हेतु भावी पीढ़ी का दिशा-निर्देश करना। मीरा का काव्य स्त्री-मानस की पीड़ा को शब्द देता है। मीरा के युग में स्त्री आत्माभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र नहीं थी। वह पुरुष के उपयोग-उपभोग के लिए थी और पुरुष की दृष्टि से देखी जाती थी।
मीरा को आधुनिक स्त्री
स्त्री के सुख-दुख, सपने-आकांक्षाएँ, वर्तमान-भविष्य उसके अपने भीतर निहित नहीं थे, अपितु पुरुष-समाज द्वारा प्रत्यारोपित किए जाते थे। इसलिए स्त्री की नजर से स्त्री- -मानस को पढ़ने का संस्कार और आवश्यकता मध्ययुग में कहीं दिखाई नहीं देती। सन् 1498 से सन् 1546 तक की जिस कालावधि में मीरा के होने का अनुमान इतिहासकार लगाते हैं, वह काल हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है।
भक्तिकाल सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक उत्पीड़न के विरोध में उठा एक सांस्कृतिक आंदोलन है जो व्यक्ति की ऐहिक-ऐन्द्रिक सत्ता को झुठला कर परलोक की सम्मोहक अवधारणा को समक्ष रखता है। चाहे इसे नैराश्य से उबरने का जिजीविषापूर्ण प्रयास कहा जाए या अपनी क्षीण होती अस्मिता को बचाने की अकुलाहट भक्ति आंदोलन ने पारलौकिकता के गाढ़े आवरण के बीच व्यक्ति की भौतिक सत्ता, समाजव्यवस्था और सम्बन्धों के महीन अंतर्जाल को गहराई से देखा-परखा है।
अलबत्ता लोक और परलोक के बीच अपने को स्थापित करने का द्वंद्व भक्ति साहित्य में साफ झलकता है। यह द्वंद्वग्रस्तता आत्मस्वीकृति चाहती है तो तत्काल आत्मनिषेध की गूंजती हुंकार से भयभीत हो पीछे हट जाती है। इसलिए विद्रोह और यथास्थितिवाद भक्तिकाल में साथसाथ चले हैं।
परवर्ती आलोचना इन द्वंद्वों को चिह्नित करने की अपेक्षा साहित्येतिहास के कालविभाजन और नामकरण को सटीक सिद्ध करने की कोशिश में सम्वत् 1350 से सम्वत् 1700 तक के मध्ययुगीन कालखंड को भक्ति-धारा से आप्लावित होने का पूर्वाग्रह लेकर चली है।
यही कारण है कि वह मीरा के काव्य की भास्वर आत्माभिव्यक्ति को अलक्षित कर कबीर, सूर, तुलसी, रसखान सरीखे भक्त कवियों की कोटि में रखती आई है। परिणामस्वरूप मीरा-काव्य में निहित परिवार, कुलकानि, राजसत्ता के प्रति विद्रोह की तीव्र टंकार को लौकिक जीवन का निषेध कर अलौकिक ईश्वरीय सत्ता से जुड़ने की ललक के रूप में पढ़ा समझा गया।
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