कृष्ण के प्रति मीरा की भक्ति :– मीरा की कृष्ण भक्ति श्रीकृष्ण के सगुण स्वरूप के प्रति माधुर्य भाव की भक्ति है। इस भक्ति को प्रेमाभक्ति या मधुरा भक्ति भी कहा जाता है। मधुराभक्ति का प्रधान भाव रति है। इस ‘रति’ को लौकिक प्रेम से भिन्न करने के लिए सगुण भक्तों ने इसे ‘उज्वल रस’ कहा है। ‘रति’का मूल स्वभाव सर्वाधिक मानवीय, तीव्र और प्रगाढ़ होता है।
इसके अन्तर्गत प्रिय के प्रति चरम तन्मयता और निर्द्धन्द्ध समर्पण होता है। इसलिए प्रेम’ मात्र को ही व्यक्तित्व की स्वाधीनता की अभिव्यक्ति कहा जाता है। देह, मन और आत्मा की मानवीय स्वाभाविकताओं के अनुरूप घटित होते हुए इस प्रेम में अपने मार्ग की बाधाओं से लड़ने का अद्भुत नैतिक साहस होता है। मीरा की माधुर्य भाव की भक्ति का यही स्वरूप है। यह भक्ति जितनी आध्यात्मिक है, उतनी ही मानवीय भी। माधुर्यभाव की भक्ति को सूर ने ‘सुझा भक्ति’ कहा है।
कृष्ण के प्रति मीरा की भक्ति का वैशिष्ट्य
‘सुद्धा भक्ति मोहि को चाहै। मुक्ति हुं की सो नहि अवगा है।’
इस प्रकार इस ‘सुद्धा भक्ति’ में भक्ति का एकमात्र प्राप्य आराध्य है। भक्त अपने आराध्य को संसार से अपनी मुक्ति के लिए नहीं चाहता। मीरा के लिए भी उनकी ‘कृष्ण भक्ति’, साधन और साध्य दोनों है तथा वे परलोक, निवृत्ति अथवा मुक्ति की चिंता न कर कृष्ण के प्रति चरम एकात्म की दृढ़ आकांक्षा करती हैं। जीवन, समाज या संसार के प्रति उनका वैराग्य भी संत, भक्त कवियों से भिन्न प्रकार का है।
वे जीवन के असाधु, अमानवीय और अन्यायपूर्व पक्ष के प्रति विरक्त हैं, किन्तु लोक जीवन का साधु, प्रेममय मानवीय पक्ष उन्हें प्रिय हैं। वे मनुष्य में सवृत्तियों के विकास की चिंता करती हैं इसलिए अन्याय और असत्य से उनका विरोध बहुत सीधा और तीव्र है। अन्यायी राणा को फटकारते हुए मीरा कहती है
‘नाहिं सुख भावै थारो देसलड़ो रंगरूड़ो ।।टेक।।
थारे देसा में राणा साध नहिं छै, लोग बसै सब कूड़ो ।।
इसीलिए मीरा संत समाज से जितनी सुखी होती है संसार को देखकर उतना ही दुःख पाती है।
नाभादास ने मीरा के भक्तिभाव को कृष्ण के प्रति गोपिका के प्रेम सदृश्य लिखा है। पुष्टिमार्ग के अन्तर्गत गोपीभाव की इस भक्ति को भक्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप माना गया है। मीरा की भक्ति के सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि उसे सगुण-निर्गुण भक्ति के परिपाटीबद्ध स्वरूप के अन्तर्गत नहीं निर्धारित किया जा सकता।
मीरा के भावजगत के निर्माण में सगुण-निर्गुण भेद की कोई दखल नहीं है और न ही वे किसी गुरू विशेष या भक्ति के संप्रदाय विशेष में दीक्षित हैं । वे भक्ति आंदोलन के मुख्य सार ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण मात्र’ को पहचानती है और इस दृष्टि से भक्ति की उस समूची परंपरा को आत्मासात करती है
जिसमें जयदेव, विद्यापति, चण्डीदास और चैतन्य महाप्रभु के साथ-साथ सिद्ध नाथ पंथी साधु और सूफीसंत भी हैं। मीरा की भावाभिव्यक्ति में जो वैविध्य मिलता है उसके मूल में इस समूची परंपरा का प्रभाव है। मीरा की भक्ति उनके व्यक्तित्व के समान ही सहज निराडंबर और रागपूर्ण है।
इस प्रकार यह भक्ति सगुण की अनेक विशेषताओं का अनुकरण करने के बावजूद कई प्रकार से उसका अतिक्रमण भी करती है। इस प्रकार के अतिक्रमण के संदर्भ प्राय: वही हैं जिन्हें सामने रख कर मीरा के निर्गुण भक्त या नाथपंथी परंपरा का भक्त सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।
मीरा के एकमात्र अभीष्ट ‘गिरधर नागर’ है तथा उन्हें ‘गिरधर नागर’ से सच्ची प्रीत का प्रत्येक पंथ प्रिय है। कृष्ण को अनेक नामों से स्मरण करने वाली मीरा कहीं-कहीं उन्हें ‘राम’ या ‘रमैया’ पुकार बैठी है
‘सुन्दर स्याम सुहावणा, मुख देख्यां जी जैहो ।
मीरां के प्रभु रामजी, बड़ भागण रौझं हो।।’
यहां ऐसा लगता है कि ‘रामजी’ से मीरा का अभिप्राय सुन्दर श्याम कृष्ण से ही है। मीरा के क अन्य पदों में भी ‘राम’ के लिए संबोधन है। प्राय: इस प्रकार के पदों का संदर्भ भक्त वत्सल भगवान के प्रति मनुष्य को प्रेरित और उद्बोधित करने का है। जैसे –
‘लेतां लेतां राम नाम रे, लो कड़िया तो लाजा मरे है।’
या
‘जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत जाण,
ऊंच-नीच जाने नहीं, रस की रसीलड़ी।’
कहीं-कहीं मीरा की अनूठी भावतन्मयता के चलते राम और कृष्ण में अद्भुत मेल हो गया दीखता है। जैसे
देखत राम हसै सुदामा कूं देखत रामहसै | टेक ।।
वस्तुत: मीरा के लिए भक्त वत्सल राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं है। मीरा ने कृष्ण को ‘जोगी, ‘ ‘जोगिया, ‘ ‘रावल’ आदि संबोधन भी दिये हैं। इन संबोधनों के संदर्भ से ही मीरा पर नाथपंथी प्रभाव की बात कही जाती है। ऐसे पदों में मीरा की अपने आराध्य के प्रति प्रेम की तीव्रता दीवानगी की हद तक है। प्रेम की इस तीव्रता को सूफी संतों के प्रभाव से भी जोड़ा जाता है।
इसके अतिरिक्त मीरा ने कुछ पदों में ‘सतगुरू’ का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार के साक्ष्यों से मीरा को निगुर्णसंत परंपरा का प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है।
यद्यपि मीरा कबीर, रैदास, नानक या पुष्टिमार्गीय भक्त कवियों की तरह भ्रमणशील नहीं थी तथापि उनकी साधु मण्डली में प्रत्येक पंथ के साधु या भक्तजनों का स्वागत था।
वहां ‘सतसंग’ होता था, भगवद्भक्ति विषयक विचारों का आदान-प्रदान भी होता रहा होगा। इसके अलावा गुजरात और राजस्थान सिद्धनाथ संतों की साधना और भाव प्रचार का महत्वपूर्ण क्षेत्र तो थे ही। तो इन समस्त प्रभावों से मीरा की भक्ति का स्वरूप निर्मित हुआ होगा।
मीरा की भक्ति में अन्य संत कवियों की भांति अध्यात्म की रहस्यवादी जटिलतायें प्रायः नहीं है। उनका भावजगत उनके व्यक्तित्व की ही भांति पूरी तरह से व्यक्त और प्रत्यक्ष है तथा वे अपने प्रत्येक भाव के साथ कृष्ण के प्रति संहज संबोधित है। इसके अतिरिक्त कबीर या तुलसी के समान मीरा के लिए काम, कोध, मद, मोह, मात्सर्य के पंच मकार या सांसारिक सुखों के प्रलोभन आदि कहीं समस्या नहीं है।
वे इनसे सहज ही मुक्त है तथा आर्तजनों की सहज मुक्ति के लिए सर्वस्व समर्पण वाला भक्ति की रीति का विधान करती है। संसार से उनकी विरक्ति कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति के समान ही सहज और निर्बाध है। मीरा की भक्ति का मूलाधार कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम है । इसके अतिरिक्त उनकी भक्ति में अन्य भक्त कवियों के समान दैन्यपूर्ण आत्मविगलन प्रायः नहीं है ।
मीरा का भावलोक व्यापक, उदात्त और समृद्ध है। उनकी भक्ति में कांता भाव के प्रगाढ़ रंग के अतिरिक्त कहीं-कहीं सख्य या दास्य भाव के भी रंग मिलते हैं, किन्तु आत्म-निवेदन के इन सभी रूपों में मीरा के उत्कट कृष्ण प्रेम के अलावा उनके जीवनानुभवों की सच्चाई और गहराई है। कृष्ण का अद्भुत अलौकिक सौन्दर्य मीरा की अनुरक्ति की मूल प्रेरणा और आकर्षण हैं।
निरंतर प्रगाढ़ होती हुई इस अनुरक्ति के चलते मीरा कृष्ण के अनवरत सानिध्य का यत्न करती है। इस क्रम में उनकी भक्ति में पुष्टिमार्गीय भक्ति के भी कुछ लक्षण प्रकट होते हैं। जैसे प्रभु के स्वरूप और गुण का स्मरण, कतन, प्रभु के पुरूषार्थ, लीला एवं भक्त हितकारी स्वरूप का निरूपण, उनकी वंदना, आत्मनिवेदन, नैकट्य की आकांक्षा की अभिव्यक्ति, सतसंग, तादात्म्य एवं समर्पण आदि । मीरा स्वयं अपनी भक्ति को ‘भगति रसीली’ कहती है ।
यह भक्ति उनके लिए ‘अमर रस’ का प्याला है जिसे पीकर वे दुर्मति, कालप्रकोप और नश्वर संसार से सहज ही मुक्त है। अपने भक्त रूप को गोपी भाव में अवस्थित मान मीरा ने कृष्ण से अपने जन्म-जन्मातर के प्रेम की बात कही है। कृष्ण उनका अविनाशी सुहाग है। उन्हें अनेक बार मीरा पिव, भरतार, वर आदि संबोधन देती है। उनकी भक्ति में कहीं स्वकीया का अधिकार और आत्म-विश्वास है तो कहीं वे ऐसे प्रिय को परकीया की तरह उपालंभ भी देती हैं।
मीरा प्रेम की ही नहीं दरद की भी दीवानी है। प्रिय से प्राप्त यह दर्द उन्हें प्रिय के समान ही प्रिय है। मीरा का भक्ति में अनुभव और उपदेश का सुन्दर एकात्म है। अपनी प्रेम साधना का चरम आकांक्षा के रूप में मीरा उस अगम्य देस में वास की इच्छा करती हैं जिसके निकट काल की भी गति नहीं है। मीरा कहती है
‘चालां अगम वा देस, काल देख्यां डरौँ ।
भरा प्रेम रा होज, हंस केल्याँ करों।
साधा संत रो संग, इयाण जुगतां करां ।
घरा सांवरो ध्यान चित्त उजलों करां ।
साजा सोल सिंगार, सोणारो राखड़ाँ ।
साँवलिया सू प्रीत, औरों सूं आखड़ौँ ।।
मीरा के इस उद्गार में किंचित निर्गुण संतों के रहस्यवादी स्वर का भी स्पर्श है, किन्तु वह उनसे कम जटिल या अमूर्त है।
इस प्रकार मीरा की माधुर्य भाव की भक्ति सगुण-निर्गुण भक्ति की समूची परंपरा के सार को आत्मसात करती हुई आध्यात्मिकता को मानवीय राग-विराग से संपन्न भावलोक सौंपती हुई अपनी अभिव्यक्ति में मीरा के ही समाज सहज किंतु अनूठी और असाधारण है। उसमें स्वानुभूति की वह तीव्रता और सच्चाई है जिसके द्वारा वह भक्ति आंदोलन में एक अनूठे रागात्मक स्वर का विधान करती है ||
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