युद्ध करौ तिन सौ भगवन्त न मारि सकै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | चण्डी- चरित्र | गुरु गोविंद सिंह |
युद्ध करौ तिन सौ भगवन्त न मारि सकै अति दैत बली हैं।
साल भये तिन पंच हजार दुहू लड़ते नहि बाँह टली है।
दैतन रीझि कहौ ‘वर मांगि’, कहा हरि ‘सीसन देहि’ भली है ।
धारि उरू पर, चक्र सौं काटि कै, जोति लै आपने अंग मली है ॥ 11॥
युद्ध करौ तिन सौ भगवन्त
प्रसंग : प्रस्तुत पद्य दशम गुरु गोविंद सिंह विरचित काव्य ‘चण्डी- चरित्र’ में से लिया गया है। इस काव्य में कवि ने देवी चण्डिका के चरित्र का प्रकाशन एवं रूपायन पौराणिकता के आधार पर किया है। ब्रह्मा की पुकार एवं आवाहन पर भगवान विष्णु मधु-कैटभ से युद्ध करने लगे। इस युद्ध प्रसंग एवं उसके परिणाम का अपनी भावना के अनुसार वर्णन करते हुए कवि कह रहा है –
व्याख्या : भगवान विष्णु उन राक्षसों – मधु और कैटभ से निरन्तर युद्ध करने लगे। लेकिन वे द्वैत्य इतने अधिक बलवान थे कि निरन्तर युद्ध करते रहने पर भी भगवान विष्णु उनका वध नहीं कर सके। उन दोनों राक्षसों से लगातार युद्ध करते हुए उन्हें पांच हजार वर्ष बीत गये पर फिर भी थक या हारकर उनकी बांह रुकी या युद्ध करने से हारी नहीं।
वह निरन्तर युद्ध करती ही रही। बिना रुके, बिना विश्राम किए युद्ध कर के उन राक्षसों को मारने के प्रयास में जुटे रहे। तब दैत्यों ने रीझ कर उन्हें वर मांगने को कहा। भगवान विष्णु ने उत्तर दिया कि उचित एवं भला इसी बात में है कि अपना सिर मुझे दे दो। अर्थात् मुझे अपना सिर काटकर तुम लोग अपना वध करने दो। इस पर दैत्यों ने शर्त रखी कि मार कर उन्हें गीली धरती या पानी में मत फेंकना।
भगवान विष्णु ने उनकी शर्त स्वीकार करते हुए अपनी जांघ पर उन्हें रखकर चक्र सुदर्शन से उनके सिर काट दिये। सिर कटने पर उन राक्षसों के तन से जो एक प्राण-ज्योति प्रकट हुई, उसे भगवान विष्णु ने अपने भीतर समा लिया।
भाव यह है कि अनन्त काल तक लड़ते रहने पर भी भगवान के सामने किसी का वश नहीं चला करता। उसका पराभव निश्चित होता है। किन्तु दयालु भगवान पश्चाताप कर लेने वाले का स्वतः ही उद्धार कर दिया करते हैं।
विशेष
1. कवि ने दुर्यर्ष दैत्य – शक्ति का सांकेतिक वर्णन कर, दैवी शक्ति को भी अपने समक्ष अजेय नहीं माना।
2. दानवी शक्ति की अन्तिम पराजय निश्चित स्वीकारी है।
3. भगवान की दयालुता भी उजागर की है।
4. ‘जोति लै आपने अंग मली है’ कवि की मौलिक कल्पना है।
5. वर्णन में पौराणिक मान्यता का लगभग सम्पूर्ण निर्वाह किया
6. पद्य में असंगति, विषय और वर्णन अलंकार हैं। सवैया छंद है।
7. पद्य की भाषा-शैली सहज, सम्वादात्मक, मुहावरेदार और प्रवाहमयी है ।
8. ‘मली’ जैसे पदों द्वारा पंजाबी भाषा और मुहावरे का प्रयोग स्पष्ट देखा एवं अनुभव किया जा सकता है।
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